खट्टर के बयान में कुछ गलत भी तो नहीं
Thursday, May 10, 2018 - 04:23 AM (IST)
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर विवादों में उलझने के काफी शौकीन हैं, खासतौर पर उन विवादों में जो हिन्दुत्व के प्रसार तथा अल्पसंख्यकों की मजहबी मान्यताओं से संबंधित हैं। ये विवाद खान-पान की आदतों, पाठ्य-पुस्तकों के ऐतिहासिक संदर्भों में बदलाव, सरस्वती नदी को पुनर्जीवित करने की योजना तथा मजहबी मान्यताओं पर टिप्पणियों से संबंधित हैं।
उनकी नवीनतम चांदमारी मुस्लिमों द्वारा सार्वजनिक स्थलों पर नमाज अदा करने से संबंधित है। उन्होंने कहा है कि इससे दूसरों के आने-जाने में व्यवधान पड़ता है और इसलिए नमाज केवल मस्जिदों तथा प्राइवेट परिसरों में ही अदा की जानी चाहिए। बेशक उनकी टिप्पणी की समाज के एक वर्ग द्वारा आलोचना की गई है लेकिन इस सुझाव को बेहतर परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। मूल रूप में इस बयान में कुछ भी गलत नहीं है और इस तथ्य से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि मजहब एक व्यक्तिगत मामला है, जिसके सार्वजनिक प्रदर्शन को प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए।
यदि मुख्यमंत्री खुद को केवल इस बिन्दु तक सीमित रखते हैं कि इस प्रकार के आयोजन आवाजाही में व्यवधान पैदा करते हैं और सड़कों पर गड़बड़चौथ का वातावरण पैदा हो जाता है या आम जनता को परेशानी होती है, तो उनकी टिप्पणियों का स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन यह शर्त हर हालत में समस्त सार्वजनिक एवं धार्मिक समारोहों पर लागू होनी चाहिए। यदि सार्वजनिक रूप में नमाज अदा करने से दूसरों को परेशानी होती है तो जगराते आयोजित करने, जलूस निकालने, माता का दरबार लगाने, शोभायात्रा निकालने अथवा गुरुपर्व के नगर कीर्तनों से भी तो ऐसी ही परेशानी होती है। इससे कुछ और अधिक जाते हुए यह कहना चाहिए कि शादी-विवाह के जलूस तथा रोष प्रदर्शनों के साथ-साथ कथित वी.आई.पी. के आने पर कुछ रूट बंद कर देना भी तो आवाजाही में बहुत बड़ा व्यवधान पैदा करता है।
एक अन्य उदाहरण कांवडिय़ों का है जो गंगाजल लेकर सड़कों पर मीलों-मीलों तक पैदल चलते हैं। जिन राजमार्गों पर कांवडि़ए चलते हैं उन पर टकराव के अनेक मामले देखने को मिलते हैं। इसके विपरीत हाल ही में महाराष्ट्र के आंदोलनरत किसानों ने जब मुम्बई तक ‘लांग मार्च’ निकाला तो बिल्कुल ही एक अलग और अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। वे केवल रात के समय ही चलते थे और वह भी चुपचाप ताकि वार्षिक परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों को किसी तरह की परेशानी न हो।
भारत मजहबी एवं सार्वजनिक व्यवहारों में विभिन्नता से भरा हुआ एक विशाल देश है। इसलिए मजहबी व सामाजिक उत्साह और जोश को प्रतिबंधित करना असंभव है। ऐसे व्यवहारों के साथ व्यक्तिगत संवेदनाएं एवं धार्मिक मान्यताएं जुड़ी होती हैं। यह व्यवहार तथा रीति-रिवाज युगों-युगों से चले आ रहे हैं और यह भी एक तथ्य है कि गत कुछ वर्षों दौरान इनके सार्वजनिक प्रदर्शन का रुझान अधिक प्रबल हुआ है। भारत एक सैकुलर देश है और यहां हर किसी को अपनी धार्मिक मान्यताओं को अंजाम देने का अधिकार है। इस मामले में किसी जाति या समुदाय के साथ भेद नहीं किया जा सकता। इसके अलावा इन सामाजिक व्यवहारों के साथ बहुत गहरी श्रद्धा और आवेग (जज्बात) जुड़े हुए हैं।
फिर भी यह गहन चिंतन का विषय है कि ऐसे प्रयास किए जाने चाहिएं जिनसे इन मजहबी और सार्वजनिक कार्यक्रमों से कम से कम परेशानी हो। यदि और कुछ नहीं तो भीड़-भाड़ वाले स्थानों पर तो निश्चय ही इस प्रकार के कार्यक्रम और प्रार्थना सभाएं आयोजित नहीं की जानी चाहिएं। आयोजकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ट्रैफिक में कम से कम व्यवधान पैदा हो। इस उद्देश्य से उन्हें अग्रिम घोषणाएं करनी चाहिएं और ट्रैफिक के सुचारू परिचालन के लिए वैकल्पिक रूट की व्यवस्था करनी चाहिए। ऐसे अनेक उदाहरण देखने में आए हैं कि एम्बुलैंस या बीमारों को लेकर जाने वाले वाहन रोष प्रदर्शन और जलूसों में फंस जाते हैं जिससे कई मरीज डाक्टरी सहायता मिलने से पहले ही मौत के मुंह में चले जाते हैं।
यह बात हर हालत में सुनिश्चित की जानी चाहिए कि संगीत, प्रार्थना तथा अजान की आवाज कम से कम रखी जाए ताकि बीमारों, बुजुर्गों तथा विद्यार्थियों को परेशानी न हो। इसलिए जरूरत इस बात की है कि किसी विशेष समुदाय को निशाना बनाने की बजाय सभी के प्रति एक-जैसी पहुंच अपनाई जाए। बेहतर तो यही होगा कि आयोजकों तथा मजहबी नेताओं को खुद ही मिलकर यह फैसला लेना चाहिए कि सार्वजनिक जीवन में इस तरह की परेशानियां तथा व्यवधान न्यूनतम स्तर पर ही रहें और अन्य लोगों को किसी प्रकार की असुविधा न हो।-विपिन पब्बी