बेरोजगारी का समाधान नौकरी ही नहीं है

punjabkesari.in Friday, Mar 03, 2017 - 10:27 PM (IST)

अपनी सरकार ने इस वर्ष के बजट में लगभग 2.80 लाख व्यक्तियों को सरकारी नौकरी देने का मन बनाया है। नोटबंदी के दौरान हुए अनुभव को देखते हुए आयकर विभाग में लगभग दोगुने लोग हो जाएंगे और इसी तरह जी.एस.टी. लागू करने के लिए कस्टम तथा एक्साइज विभाग में भी 40 हजार लोग बढ़ जाएंगे। इसी तरह अन्य कुछेक विभागों में भर्ती की जाएगी। इसमें रेलवे नहीं आता क्योंकि वहां पहले से ही जरूरत से ज्यादा लोग लगे हुए हैं। 

जहां तक सरकारी नौकरियों का संबंध है, उनमें इतनी बढ़ौतरी हो चुकी है कि एक की जरूरत पूरी करने के लिए कई-कई लोग रख लिए जाते थे। उनके पास काम कम और वक्त ज्यादा होता था। कर्मचारी आराम से दफ्तर पहुंचते और जल्दी दफ्तर से निकल जाते। पूरा काम न होने से दफ्तरों में अगर पब्लिक से संबंधित कोई विभाग है तो वहां बाबू हो या अफसर, अपनी सीट या कमरे से नदारद ही मिलते हैं। 

कुछ लोगों ने जब देखा कि नौकरी पक्की है और वेतन के साथ-साथ सरकारी मकान, चिकित्सा, एल.टी.सी. जैसी सुविधाएं मुफ्त के बराबर मिलती हैं तो खाली वक्त को कहीं और लगाया जाए। उन्होंने सरकारी रुतबे का फायदा उठाते हुए अपने छोटे-मोटे रोजगार यानी साइड बिजनैस खोल लिए और इस तरह दफ्तर के काम पर कम और अपने व्यापार पर ज्यादा ध्यान देने लगे। उनके लिए उनकी इस आमदनी के आगे सरकारी वेतन बहुत मामूली-सी रकम हो गई थी जिसकी परवाह वे केवल इसलिए करते थे ताकि नौकरी से होने वाले बाहरी फायदों का लाभ उठा सकें। 

यह सही था या गलत, इस पर कोई टिप्पणी दिए बिना वस्तुस्थिति यह है कि इन भाग्यशाली सरकारी कर्मचारियों में इतनी प्रतिभा थी कि वे अपना कोई स्वरोजगार या व्यापार कर सकें। इनमें से ज्यादातर कर्मचारी अपने इस साइड बिजनैस का बहुत अधिक विस्तार हो जाने या सरकारी कानून-कायदों की पकड़ में आ जाने से बड़ी खुशी से नौकरी छोड़कर पूरी तरह अपने काम में लग जाते थे। ऐसे एक नहीं, सैंकड़ों-हजारों लोग हैं जो सरकारी कर्मचारी होते हुए पूरी तरह व्यापारी हैं और कहीं न कहीं नौकरी पर लगे हुए हैं। तात्पर्य यह है कि इनमें स्वरोजगार की प्रतिभा थी और इसलिए ये कामयाब हुए तो क्या बेरोजगारी दूर करने के लिए स्वरोजगार को नौकरी का एक सशक्त विकल्प नहीं बना लेना चाहिए? 

अब क्योंकि हमें अक्सर विदेशी उदाहरणों से कोई भी बात जल्दी समझ में आ जाती है तो यह हकीकतहै कि जब यूरोप में कई दशक पहले विकसित देशों की कतार में शामिल हो रहे देशों ने देखा कि उनके यहांकर्मचारी अक्सर अपनी सीट से गायब रहते हैं तो उन्होंने कई फार्मूले अपनाए। जैसे कि यह नियम लागू कर दिया कि कर्मचारी अपनी मर्जी से आने और जाने का समय तय कर सकते हैं लेकिन उन्हें कुछेक निश्चित घंटों में दफ्तर में रहना होगा। कर्मचारियों ने इसे हाथों-हाथलिया और फ्लैक्सीबल टाइमिंग का चलन शुरू हो गया।रविवार के साथ शनिवार को भी छुट्टी दे दी गई जो हमारे यहां भी लागू है ताकि लोग अपने घरेलू काम कर सकें।

पिछले दिनों सैंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमैंट की तरफ से एक कार्यक्रम आयोजित हुआ जो हमारे देश में तेजी से बढ़ रहे खाने-पीने की वस्तुओं के व्यापार पर आधारित थाजिस पर कुछ वक्ताओं ने अपने संस्मरण सुनाए। साथ हीअनाज, फल आदि उपजों से अनेक प्रकार के व्यंजन तैयार करने के लिए एक रैसिपी पुस्तक का भी विमोचनहुआ। इस बात की चर्चा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हमारे देश में कृषि क्षेत्र में बेरोजगारी से लेकर किसान द्वारा आत्महत्या कर लेने की घटनाएं होती रहती हैं, जबकि कुछ उद्यमियों ने विभिन्न खाद्यान्नों, फलों और सब्जियों से अपने फलते-फूलते व्यापार स्थापित कर लिए हैं। इनमें ऐसी उपज शामिल है जिसकी बिक्री कम होने से उसे उगाने में किसान की ज्यादा दिलचस्पी नहीं रहती और अज्ञानतावश वह इनकी उपयोगिता से अनभिज्ञ रहता है। जरा सोचिए, अगर कहीं किसान को इस बात का प्रशिक्षण दे दिया जाए और जरूरी सुविधाएं प्रदान कर दी जाएं कि वह जो फसल नहीं उगा रहा है उसे उगाने से उसकी आमदनी कितनी अधिक बढ़ सकती है तो वह फसल उगाकर उसे आत्मनिर्भर होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। 

आज किसान के पास संचार सुविधाएं हैं, उसे मंडी की जानकारी आसानी से मिल जाती है और फिर उसके परिवार में पढ़ी-लिखी पीढ़ी भी पनप रही है जो उसे आधुनिक विधियों की जानकारी और अपनी मेहनत का पूरा प्रतिफल प्राप्त करने के गुर भी सिखा सकती है। पढ़ाई के बाद ग्रामवासियों के लिए अपने बच्चों को नौकरी करने हेतु शहरों में भेजने की प्रथा पर रोक लगेगी। जब बच्चों को वहीं गांव-देहात में अपने ही घर और परिवेश में अपनी ही जमीन की उपज से रोजगार मिलने लगेगा तो उन्हें नौकरी करने की जरूरत ही क्या रह जाएगी? वे शहर आएंगे तो अपने व्यापार या स्वरोजगार को बढ़ाने के लिए, इस तरह गांव और शहर का एक नया कारोबारी रिश्ता कायम हो जाने से दोनों ही क्षेत्रों का विकास होगा और खुशहाली आएगी, इस परिवर्तन का एक फायदा और होगा और वह यह कि चूंकि चीजें सीधे खेत-खलिहान से तथा किसान के परिवार के जरिए आएंगी तो उनमें मिलावट की गुंजाइश नहीं रहेगी और शुद्ध तथा पौष्टिक खान-पान घरों तक पहुंचना सुनिश्चित हो जाएगा। 

हमारे खेतों से लेकर जंगलों तक और नदियों से लेकर समुद्र तक इतनी विविधता है कि उनका रोजगार करने के लिए लोग कम पड़ सकते हैं और एक वक्त आ सकता है जब शहरों से लोग गांव-देहात में इन्हीं वस्तुओं का व्यापार करने जाएं। हालांकि कुछ शहरी व्यवसायियों ने इस बात को समझकर पहल भी कर ली है लेकिन अभी स्वरोजगार से स्वावलम्बी तक पहुंचने के लिए काफी रास्ता तय करना है।जहां तक भारतीय उपज की गुणवत्ता की बात है तो एक किस्सा है कि जब वास्को डि गामा खोज करते हुए कालीकट पहुंचा तो उसे काली मिर्च के पौधे की सुगंध ने वशीभूत कर लिया। 

वह अपने लश्कर के साथ राजा के दरबार में गया तो यही मांगा कि उसे इस बेहतरीन वस्तु के कुछ पौधे दे दिए जाएं ताकि वह अपने देश जाकर इसकी खेती कर सके। हालांकि राजा के दरबारी यह पौधा देने की सलाह देने से हिचक रहे थे लेकिन राजा ने वास्को डि गामा को कुछ पौधे दिए और दरबारियों से कहा कि पौधे बेशक चले जाएं लेकिन वह मौसम तो यहीं रहेगा जिसकी आबोहवा में यह पौधा फलता-फूलता है। कहने का अर्थ यह है कि भारत में जितनी जैव विविधता है, यदि उसका इस्तेमाल सही ढंग से हो जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी को अमीरी में बदलने से कतई नहीं रोका जा सकता। 

शहरों में इवैंट मैनेजमैंट, वैङ्क्षडग प्लानर, गिफ्ट सप्लायर, स्पोटर््स और लैदर के सामान की डिलीवरी, सिलाई, कढ़ाई, फैशन सामग्री, दस्तकारी से लेकर घर या दफ्तर की छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्लम्बर, इलैक्ट्रीशियन, पेंटर, मिस्त्री, मैकेनिक, ड्राइवर ये सब वे काम हैं जो अब संगठित क्षेत्र में आते जा रहे हैं। उत्साही युवा वर्ग इन्हें अब छोटा काम नहीं समझता बल्कि इन्हें अपने समूह बनाकर एक शृंखला की तरह चलाने में रुचि रखता है। भारत में स्वरोजगार ही बेरोजगारी दूर करने का सशक्त विकल्प है। इसके लिए हमारे राजनीतिक दलों को चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्ष, अपनी सोच बदलनी होगी। हालांकि वर्तमान केन्द्रीय सरकार ने इस दिशा में कुछ पहल की है लेकिन अभी यह काम सरकारी फाइलों से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाया है। 
 


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