टैगोर की धरती पर बाहरी-भीतरी के संकीर्ण विचारों की जगह नहीं

punjabkesari.in Saturday, Mar 27, 2021 - 04:26 AM (IST)

वैसे तो चुनाव लोकतंत्र का पर्व है, लेकिन एक ऐसा अनूठा पर्व जिसमें उत्साह और उमंग की जगह कटुता, प्रतिद्वंद्विता और नफरत के साथ मनाने की परम्परा घर कर चुकी है। दुर्भाग्यवश आज दुनिया की सारी डैमोक्रेसीज कमोबेश इसी की गिरफ्त में हैं। हाल ही में हुए अमरीकी राष्ट्रपति के चुनावों में लोकतंत्र के पर्व को कैसे मनाया गया यह सबने देख लिया। आए दिन भारत में होने वाले स्थानीय निकायों से लेकर प्रांतीय और राष्ट्रीय चुनावों का जो तथाकथित पर्व हम निरंतर मना रहे हैं, उसके राजनीतिक परिणाम चाहे जो भी हों, लेकिन उसके सामाजिक परिणाम हमें लगातार वैचारिक ध्रुवीकरण और वैमनस्यता की ओर धकेल रहे हैं। 

बंगाल में ममता दीदी की राजनीतिक और वैचारिक प्रतिद्वंद्विता भाजपा और अन्य दलों से हो सकती है लेकिन इसे बाहरी बनाम भीतरी की लड़ाई बता कर खामख्वाह आपसी वैमनस्य पैदा करना कितना उचित है?  क्या यही हम सब का गौरवपूर्ण स्वॢणम बंगाल है? मूल रूप से मैं बिहार का निवासी हूं। लेकिन दशकों से गुजरात में आनंदपूर्वक रहता हूं, उतने ही इत्मिनान और अधिकार से जितना कि कोई तथाकथित भूमिपुत्र गुजराती मानस रहता होगा या फिर उसी तरह जितने आनंद से अन्य राज्यों के लोग बंगाल में रहते हैं। 

मेरे बच्चे और कई सारे दोस्त-रिश्तेदार दिल्ली में रहते हैं। नतीजतन, इन सारी जगहों से मेरा भी एक भावनात्मक लगाव है। विदेश यात्रा के समय भी यदि किसी को गुजराती, बंगला, मराठी या अन्य किसी भारतीय भाषा में बोलते सुनता हूं तो उन अनजान लोगों के प्रति अजब सा आकर्षण महसूस करता हूं। 

अब कोई बताए कि मेरे जैसे अनेक लोगों को जो अपने ही देश की अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग कारणों से रह रहे हैं और जिनके सारे व्यावहारिक, राजनीतिक, भावनात्मक सरोकार उन स्थानों और वहां के परिवेश से जुड़ चुके हैं क्या उन्हें बाहरी कहा जा सकता है? यही नहीं, इस देश में मेरे जैसे अनगिनत लोग हैं जिन्होंने बंगला के सर्वश्रेष्ठ साहित्य का अनुवाद हिंदी या अन्य भाषाओं में पढ़ा है और बंकिमचंद्र, गुरुदेव टैगोर, शरतचन्द्र, बिमल मित्र आदि की संवेदनाओं को उसी गहराई से महसूस किया है जितना कि कोई बंगाली भद्रलोक करता होगा। 

तभी तो राष्ट्रगान के रूप में गुरुदेव के जन-गण-मन और राष्ट्रगीत के रूप में बंकिम बाबू का वंदे-मातरम भारत के कोटि-कोटि जन के प्राणों का स्वर है! इन महापुरुषों ने यह वंदना तो सम्पूर्ण भारत को समॢपत की है, उन पर तो सभी भारतीयों का एक समान हक है। बंगाल जिसने 19वीं सदी के पूर्वाद्र्ध में भारतीय पुनर्जागरण की आधारशिला रखी और एक उन्नत अखंड भारतीय संस्कृति की कल्पना की कि वहां से बाहरी-भीतरी के ऐसे अनर्गल विचार कैसे उठ सकते हैं? अब कुछ तथ्यों पर भी नजर दौड़ाएं। सांस्कृतिक और भाषाई विविधता वाले इस देश में इंटरनल माइग्रेशन (आंतरिक प्रवासन) की एक सतत प्रक्रिया है। 

नौकरी, व्यापार, शिक्षा, शादी-ब्याह से लेकर बसने के इरादे तक कई कारणों से छोटा-लम्बा या फिर स्थायी आंतरिक प्रवासन लगातार चलता रहता है। कोरोना काल में यही प्रवासी आबादी जब बड़ी तादाद में अपने घरों को लौटने लगी तो देश की अर्थव्यवस्था पर उसके गम्भीर परिणाम दिखने लगे। तब सारे राजनीतिक दल विकास में तथाकथित बाहरी लोगों के योगदान की चर्चा करते नहीं थक रहे थे। लेकिन चुनाव आते ही इसे फिर राजनीतिक मुद्दा बना दिया गया। 

भारत सरकार की संस्था नैशनल सैम्पल सर्वे की परिभाषा के अनुसार कोई भी व्यक्ति जो किसी स्थान पर छह महीने से रहता हो वह उस स्थान का निवासी होता है। वर्ष 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार तब देश में आंतरिक प्रवासन की संख्या करीब 30.9 करोड़ थी। उसके बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। देश में 33 प्रतिशत की रफ्तार से शहरीकरण हो रहा है और किसी भी शहर के बसने और विकास में प्रवासियों की एक बड़ी भूमिका होती है। ये सारे प्रवासी एक समय में बाहरी ही होते हैं।

जहां तक बंगाल का प्रश्न है तो उसकी भावनात्मक गहराई, मानवीय मूल्यों के प्रति उसकी संवेदनशीलता और प्रगतिशील दृष्टिकोण हमेशा से देश के लिए प्रेरणा स्रोत रहे हैं। जिस धरती से गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने वैश्विक मानवतावाद के महान विचार को जन्म दिया हो उस धरती पर बाहरी-भीतरी के संकीर्ण विचारों के लिए जगह कैसे हो सकती है? 

क्या हम भूल सकते हैं गुरुदेव के उन प्रेरक उद्गारों को जो आज भी हमें शक्ति देते हैं , ‘‘जहां  मन है निर्भय और मस्तक हो ऊंचा, जहां ज्ञान है मुक्त, जहां पृथ्वी विभाजित नहीं हुई है छोटे-छोटे खंडों में संकीर्ण स्वदेशी मानसिकता की दीवारों में.... हे मेरे पिता, मेरे देश को जागृत होने दो।’’ इस मंत्र को हम कैसे भूल सकते हैं?-मिहिर भोले
 


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