राजनीति में कभी भी विराम नहीं लगता
punjabkesari.in Thursday, Nov 20, 2025 - 03:55 AM (IST)
अंतत: सब सुखद रहा। बिहार में 2 चरणों में संपन्न विधानसभा चुनावों में अंतत: राजग की जीत हुई और नीतीश कुमार पुन: बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में पदासीन होंगे। 74 वर्षीय इंजीनियर से राजनेता बने नीतीश कुमार ने राजनीतिक खेल के नियम नए सिरे से लिखे तथा कांग्रेस-राजद महागठबंधन के विरुद्ध कठिन मुकाबले में जीत दर्ज कर अपने राजनीतिक अस्तित्व को प्रासंगिक बनाया। कृतज्ञ मतदाताओं ने नीतीश द्वारा अंतिम क्षण में उठाए गए कल्याणकारी कदमों का प्रतिफल दिया जिसमें बिजली की 125 नि:शुल्क यूनिट, 1.2 करोड़ महिलाओं को 10 हजार रुपए, ग्रामीण सड़कें आदि शामिल हैं। सोशल मीडिया में यह बात बढ़-चढ़कर आ रही है कि इन कल्याणकारी कदमों से नीतीश कुमार को बड़ी संख्या में मत मिले किंतु बिहार की राजनीति मुख्यत: सामाजिक गठबंधन पर आधारित है। जो दल जातीय गठबंधन करने में सफल होता है वह चुनावी मुकाबले में भी सफल होता है।
चिराग पासवान की राजग में वापसी से जमीनी स्तर पर एक उत्कृष्ट गठबंधन बना जिसमें एक ओर उच्च जातियां तो दूसरी ओर गैर यादव, अन्य पिछड़े वर्ग और दलित थे जिसका व्यापक पैमाने पर प्रभाव भी पड़ा। 90 के दशक में लालू यादव का केन्द्रित उदय से लेकर नीतीश द्वारा पिछड़े वर्गों का व्यापक समर्थन प्राप्त करना जिसमें पुराने मंडल बनाम कमंडल अर्थात जद यू-भाजपा का मार्ग प्रशस्त किया। इस चुनाव में राजग को 202 सीटें मिलीं जिसमें भाजपा को 89 सीटें मिलकर वह अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनी। जद-यू को 85 और लोजपा को 19 सीटें मिलीं तथा अन्य दो सहयोगी दलों को 9 सीटें मिलीं। इसकी तुलना में महागठबंधन को केवल 35 सीटें मिलीं जिसमें राजद को 25 और कांग्रेस को 6 सीटें मिलीं।
बड़े-बड़े चमत्कार कर देते हैं नीतीश : वस्तुत: नीतीश को कमजोर माना जा रहा था किंतु वह एक ऐसे राजनेता हैं जो बड़े-बड़े चमत्कार कर देते हैं। अब भले ही उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं है पर उनको मिली प्रत्येक चुनौती का वे धैर्य से मुकाबला करते हैं। उनकी अपील इसमें नहीं है कि वे क्या वायदे करते हैं अपितु इसमें है कि वे जंगलराज की वापसी को रोक सकते हैं। वे स्वयं को बिहार के नाजुक सामाजिक और राजनीतिक संतुलन के सफल अभिरक्षक के रूप मे प्रस्तुत करते हैं। इसके साथ ही वे दोनों पक्षों का साथ ले सकते हैं। सीटों के गणित ने दल बदल की संभावना को कम कर दिया है। 2025 के जनादेश में कोई ऐसा मार्ग नहीं खुला है। भाजपा ने अपनी सुसंगठित पार्टी मशीनरी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संख्या खेल में आगे रहने से पहली बार उसे गठबंधन को अनुशासित करने की शक्ति मिली है। नीतीश गठबंधन के केन्द्र में हैं किंतु उसकी धुरी अब बदल गई है। लालू के युवराज द्वारा लालू के जंगलराज की वापसी की आशंका और विकल्पहीनता की स्थिति बिहार में बनी हुई थी।
तेजस्वी यादव परिवर्तन की बात कर रहे थे किंतु परिवर्तन के लिए विश्वास और आश्वासन मिलना भी आवश्यक है तथा नीतीश कुमार उस विश्वास और आश्वासन के प्रतीक हैं। नीतीश कुमार के साथ एक बड़ा वर्ग भी जुड़ा है जो उच्च जातियों से है और जिनकी निष्ठा मोदी के साथ है। नीतीश की राजनीति अति पिछड़े वर्गों, गैर-यादव में पिछड़े वर्ग तथा महादलितों में उनकी अपील के इर्द-गिर्द है तो तेजस्वी यादव-मुस्लिम और चिराग पासवान वोट बैंक पर निर्भर हैं।
भाजपा का उच्च जातियों में जनाधार पहले से अधिक मजबूत हुआ है। राजग का जनाधार बढ़ा है। नव-निर्वाचित विधायकों का सामाजिक प्रोफाइल इस पैटर्न को बताता है जिसमें उच्च जातियों के विधायकों की संख्या बढ़ी। गैर यादव, अन्य पिछड़े वर्गों की उपस्थिति साफ दिख रही है। अत्यधिक पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व बढ़ा। यह सामाजिक गठबंधन अब बिहार की चुनावी राजनीति का आधार बन गया है। यह आधार नीतीश कुमार ने दो दशक से अधिक समय से बनाया और यह उनका पर्याय बन गया है। बिहार में उच्च जातियां, गैर यादव, अन्य पिछड़े वर्ग और अत्यधिक पिछड़े वर्ग का गठबंधन मजबूत बन गया है। द्रमुक के स्टालिन ने कांग्रेस को सलाह दी है कि चुनाव परिणाम कल्याणकारी योजनाओं, सामाजिक और वैचारिक गठबंधन के परिणामों को दर्शाता है। यह एक स्पष्ट राजनीतिक संदेश है और अंतिम मत के पडऩे तक समर्पित प्रबंधन का परिणाम है।
स्टालिन ने यह भी सलाह दी कि अपनी विफलताओं के लिए कांग्रेस निर्वाचन आयोग को दोष न दे और वोट चोरी का आरोप न लगाए। यह उसी तरह है जिस तरह जले हुए खाने के लिए आग को दोषी बताएं। राहुल को इस बात का आत्मावलोकन करना चाहिए कि क्या वे इन आरोपों से मतदाताओं का अपमान कर रहे हैं और अपना तथा अपनी पार्टी का नुकसान कर रहे हैं। राहुल द्वारा बार-बार भाजपा और निर्वाचन आयोग के द्वारा षड्यंत्र के आरोपों से कांग्रेस को नुकसान पहुंचा है।
जीवनहीन कठपुतली की तरह क्यों दिखाई दे रही कांग्रेस : कांग्रेस को इस बात का उत्तर देना होगा कि वह जीवनहीन कठपुतली की तरह क्यों दिखाई दे रही है जिसकी डोर उसके युवराज यदाकदा खींचते रहते हैं। पार्टी जमीनी स्तर पर अपना संदेश देने में क्यों विफल रही है? लालू का राजद वंश चुनाव पश्चात बिखर रहा है तथा ऐसा लगता है कि वंशवादी राजनीति धराशायी हो रही है। इस वंशवादी राजनीति में जहां सत्ता गौरव और पारिवारिक बंधन मजबूत थे वे अब अपने ही विरोधाभासों से धराशायी हो रही है।
बिहार का जनादेश विरोधाभासों से भरा हुआ है। जहां उसने एक ओर तीन दशक पुरानी राजनीति का समापन कर दिया है तो दूसरी ओर उसने नई चुनौतियां भी पैदा की हैं। कुल मिलाकर इन चुनावों ने एक नई चिंगारी सुलगा दी है और यह बता दिया है कि राजनीति में कभी भी विराम नहीं लगता।-पूनम आई. कौशिश
