तालिबान के राक्षसी चेहरे का कोई उत्तर नहीं

punjabkesari.in Saturday, Aug 21, 2021 - 04:47 AM (IST)

आज के कूटनीतिक जगत में तालिबान सर्वाधिक दुर्दांत है। उसने अफगानिस्तान में तबाही मचाई है और एक बार फिर इस इस्लामिक समूह के नियंत्रण में है, बाहर निकाले जाने के लगभग 20 वर्षों बाद। वे खुद को अफगानिस्तान के इस्लामिक अमीरात कहते हैं। 

तालिबानियों का उदय 1990 की शुरूआत में अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं के हटने के बाद उत्तरी पाकिस्तान में हुआ था। उनका पतन तथा उदय शक्तिशाली वैश्विक शक्तियों की असफलता की एक दिलचस्प कहानी बनाता है जिन्होंने कबाइली मुखियाओं के बीच विभिन्न अफगान धड़ों में लड़ाई की आधारभूत विशेषताओं को समझे बिना अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए शार्टकट अपनाए। 

आज जो स्थिति है तालिबानी विद्रोहियों ने काबुल पर पूरा नियंत्रण कर लिया है। जबकि राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़ कर चले गए हैं। उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात में एक सुरक्षित ठिकाना पा लिया है। तालिबानी लड़ाकों ने बड़ी तेजी से किए गए हमले में देश पर कब्जा करने की अपनी कार्रवाई पूरी कर ली है। प्रांतीय प्रमुखों तथा युद्ध नायकों ने हैरानीजनक तौर पर बिना लड़े उनके आगे हथियार डाल दिए हैं। 9/11 हमलों के मद्देनजर 20 वर्ष पूर्व बाहर किए जाने के बाद से यह पहली बार है कि तालिबानी लड़ाके काबुल में दाखिल हुए हैं। इससे पहले उन्होंने 1996 में इस पर कब्जा किया था। 

तालिबान की सफलता अमरीका द्वारा अफगानिस्तान की सेना को एक मजबूत संगठन के तौर पर खड़े करने के 20 वर्षों के प्रयासों की असफलता को दर्शाती है। अफगान नेतृत्व ने कथित रूप से इस तथ्य से अपनी आंखें फेर लीं कि अफगान बलों की असल ताकत उससे कहीं कम थी जिसका आधिकारिक दावा कागजों पर किया जा रहा था। यह इस कड़े तथ्य को स्पष्ट करता है कि अफगानिस्तान का सिस्टम अत्यंत भ्रष्ट था। अमरीका द्वारा 31 अगस्त तक अपनी सेनाओं की वापसी की घोषणा करने के बाद जब तालिबानियों ने आगे बढऩे के लिए अपनी गतिविधियां शुरू कीं तब अफगान सैन्य ताकत खोखली दिखाई दे रही थी। 

यह स्पष्ट है कि अमरीका तथा इसके नाटो सहयोगी अफगानिस्तानी सेना को एक आधुनिक संगठन बनाने में पूरी तरह असफल रहे। अफगान बलों की आमतौर पर शिकायत थी कि तालिबानी लड़ाकों से लडऩे के लिए उन्हें हथियारों तथा गोलाबारूद की आपूर्ति का अभाव था। मेरा यह विचार है कि अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को अफगानिस्तान की सैन्य शक्ति को चरमराने के लिए अमरीका की 20 वर्षों की भूमिका की गहन जांच करनी चाहिए। 

कड़े तथ्य जमीनी हकीकतें बयां करते हैं। जरा अफगानी राष्ट्रीय रक्षा तथा सुरक्षाबलों की कथित सांख्यिकी ताकत पर नजर डालें। इसमें 1,80,000 मजबूत अफगान नैशनल आर्मी, 1,50,000 मजबूत पुलिस बल और इनके एक तथा विभिन्न अन्य सुरक्षा दस्ते शामिल हैं जिन्हें अमरीकी सुरक्षा कर्मियों के अंतर्गत प्रशिक्षित किया गया। मैं समझता हूं कि अमरीका ने नवीनतम अल्ट्रा माडर्न हथियारों पर अरबों डालर खर्च करने के अतिरिक्त अफगानिस्तान में एक खरब डालर से अधिक खर्च किए हैं। इसके बावजूद तालिबानी लड़ाकों के खिलाफ वे कागजी शेर साबित हुए हैं। 

इसके लिए किसे दोष दिया जाए? स्वाभाविक है कि अमरीका तथा उसकी प्रशिक्षण की गुणवत्ता को। इसके साथ ही तालिबान के वहशियाना रिकार्ड को देखते हुए क्या उनका सामना करने के लिए अफगान सैनिकों में उनसे लडऩे की हिम्मत का अभाव था? मैं समझता हूं कि इसके पीछे कई कारण थे जिन्होंने तालिबानियों के काबुल के दरवाजे पर पहुंचने पर राष्ट्रपति अशरफ गनी को सत्ता त्यागने के लिए बाध्य करने में भूमिका निभाई। कोई हैरानी नहीं कि एक ऐसी उथल-पुथल भरी स्थिति में 4 लाख अफगान नागरिक कथित रूप से अपने घरों को छोड़ कर भाग गए। 

दुख की बात यह है कि विश्व के सभ्य देश तालिबान की मध्य युगीन बर्बरता पर मूकदर्शक बने हुए हैं। ऐसा दिखाई देता है कि उनके पास तालिबान के राक्षसी चेहरे का कोई उत्तर नहीं है। इससे अधिक परेशान करने वाली कोई कड़ी सच्चाई नहीं हो सकती जिससे अफगानिस्तान के लोग गुजरे हैं। संभवत: लोकतांत्रिक देशों की ओर से कमजोर प्रतिक्रिया को देखते हुए हमें संभवत: सभ्यतागत मूल्यों को पुनर्परिभाषित करना होगा। कितने शर्म की बात है। 

अधिकांश तालिबान पश्तून कबाइली हैं। बताया जाता है कि पाकिस्तान की आई.एस.आई. तथा सेना  ने तालिबान को एक लड़ाकू बल के तौर पर खड़ा किया और विद्रोह के दौरान उन्हें पूरा समर्थन दिया। यह कोई रहस्य नहीं कि भारत को मद्देनजर रखते हुए पाकिस्तान का लक्ष्य क्षेत्र में अपनी सर्वोच्चता कायम करने के लिए ‘रणनीतिक गहराई’ प्राप्त करना है। हालांकि महत्वपूर्ण प्रश्र यह है कि किस कीमत पर? 

अफगानिस्तान में 20 वर्षों बाद तालिबान फिर से सत्ता में है। दुर्भाग्य से विश्व का कोई भी देश नहीं जानता कि अफगान नागरिकों तथा अन्य देशों के लोगों के सामने तालिबान की वहशी चुनौतियों से कैसे निपटना है। यहां तक कि भारत भी कोई खतरा उठाने को तैयार नहीं। आने वाले वर्षों में संभवत: भारत अफगानिस्तान में खुद को अपेक्षाकृत एक अलाभकारी स्थिति में पाए। यह स्पष्ट है कि अफगानिस्तान में नया सुरक्षा तथा आर्थिक ढांचा पहले वाले वर्षों से भिन्न होने की संभावना है। चीन तथा पाकिस्तान अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव को न्यूनतम करने का प्रयास करेंगे। यह भारतीय नेतृत्व के सामने एक बड़ी चुनौती पैदा करता है। आधिकारिक तौर पर भारतीय नेताओं को नई रूप-रेखा पर विचार तथा कार्य करना होगा।-हरि जयसिंह
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News