विवाह के लिए उम्र का बंधन नहीं, आत्मनिर्भर होना जरूरी

punjabkesari.in Saturday, Dec 25, 2021 - 05:45 AM (IST)

हमारे देश में लड़कियों के लिए 12, 14, 18 और अब 21 वर्ष की आयु तय की जा रही है कि इससे पहले अगर उनका विवाह हुआ तो गैर-कानूनी होगा। तर्क दिया गया कि वे इससे लड़कों के बराबर हो जाएंगी, उन्हें पढऩे-लिखने का अधिक समय मिलेगा और मां बनने के लिए उनका शरीर पूरी तरह तैयार हो चुका होगा और वे अपनी घर गृहस्थी सही ढंग से चला सकेंगी। ध्यान रहे लड़कों के लिए शादी की उम्र इक्कीस को बरकरार रखा गया है। 

विवाह और मानसिकता : अधिकांश परिवार चाहे शहरी हों या ग्रामीण, लड़की के जन्म लेते ही यह मान लेते हैं कि उन्हें एक जिम्मेदारी जो असल में बोझ की भावना होती है, निभानी है। वे सोचने लगते हैं कि अब कन्या के रूप में एक और जीव को पालना-पोसना होगा। उसकी परवरिश, देखभाल, सुरक्षा की जिम्मेदारी अब तक उसके अठारह वर्ष होने तक की थी जो अब इक्कीस वर्ष तक की हो जाएगी। इसके बाद ही उसका विवाह कर किसी अन्य को यह दायित्व सौंपा जा सकेगा। उल्लेखनीय है कि दुनिया के ज्यादातर यूरोपीय, अमरीकी, एशियाई और मुस्लिम देशों तक में शादी चाहे लड़का हो या लड़की पच्चीस और उसके बाद ही करने का चलन है। उससे पहले वे अपने को गृहस्थ जीवन के न केवल योग्य बनाते हैं बल्कि उससे पहले आत्मनिर्भर होना चाहते हैं। 

यह भी एक तथ्य है कि शारीरिक गठन तथा पारिवारिक वातावरण के कारण लड़कों की तुलना में लड़कियां अधिक गंभीर, जिम्मेदार और सहनशील होती हैं और उनसे बराबरी करने के लिए लड़के उनसे उम्र में दो, चार, पांच, दस साल बाद ही तैयार हो जाते हैं इसीलिए शादी से पहले दोनों की उम्र में अंतर पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। बराबर या लड़के की आयु कम होने पर आमतौर से रिश्ते नहीं होते। 

कानून की सीमा और भेदभाव : जहां तक कानून की बात है, व्यक्तिगत, जीवन और घर परिवार से जुड़े कानूनों का पालन एक सीमा तक ही होता है। अगर ऐसा न होता तो कठोर कानून होने के बावजूद बाल विवाह न होते, दहेज लिया और दिया नहीं जाता, यौन उत्पीडऩ, घरेलू हिंसा तथा एक से अधिक विवाह करने और जिन धर्मों में इसकी अनुमति नहीं है, चोरी-छिपे या धर्म बदलकर शादी करने की घटनाएं नहीं होतीं। इसका मतलब कतई यह नहीं कि इन मामलों में कानून नहीं बनने चाहिएं या उनके उल्लंघन करने पर दंड की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए बल्कि यह है कि कानून के साथ-साथ ऐसी परिस्थितियां और वातावरण बनाने पर ध्यान देने और इस प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराने पर ज्यादा जोर देना चाहिए कि कानून का पालन करना आसान हो और कोई भी उन्हें न मानने का साहस करने से परहेज करें। 
उदाहरण के लिए क्या आज तक समाज में लड़कियों की शिक्षा की व्यवस्था, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में पूरी तरह हो पाई है और क्या वे बिना किसी भय, दबाव या लालच के पढ़ाई करने के लिए कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र हैं?

इसी प्रकार क्या लड़कियों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उन्हें लड़कों के बराबर या उनसे अधिक पर्याप्त पौष्टिक भोजन मिलने की सोच परिवारों में बन पाई है। शिक्षा के मामले में यह सोच कि लड़की को ज्यादा क्या पढ़ाना, इसने तो घर गृहस्थी चलानी है, लड़कों की पढ़ाई पर खर्च करना ही फायदे का सौदा है, इनकी बराबरी क्या करनी, बदल पाई है? 

विवाह की उम्र तय करने का कानून बनाने से ज्यादा जरूरी है कि ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिससे लड़कियों को अपनी पढ़ाई, नौकरी, रोजगार और अपनी मर्जी से कहीं भी आने-जाने का निर्णय करने की स्वतंत्रता और उसके सही या गलत होने की जिम्मेदारी भी उनकी ही हो। इसके लिए जिस प्रकार कोई पुरुष अपनी पत्नी या घर की स्त्रियों को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता, उसी प्रकार कोई भी महिला अपने बारे में स्वयं लिए गए निर्णय के लिए पति या घर के किसी पुरुष सदस्य को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती। 

पति-पत्नी संबंधों की रूप-रेखा : यह सच है कि अब यह सोच कि जोडिय़ां ऊपर से बनकर आती हैं, बदल रही है। अपने जीवन साथी का चुनाव करना अब पुरुष हो या स्त्री, दोनों को अपनी समझ, आवश्यकता और एकरूपता तथा विचारों में समन्वय और सामंजस्य के आधार पर होने लगा है और जो सही भी है। इस सोच के कारण भविष्य में माता-पिता या किसी अन्य व्यक्ति पर दोष लगाने की स्वतंत्रता नहीं रहती। पश्चिमी देशों में शादी से पहले ही आगे चलकर यदि दोनों की प्रकृति नहीं मिलती, अलग होना चाहते हों या तलाक लेने की नौबत आ जाए, उसकी रूपरेखा बना ली जाती है। इसका मतलब यह नहीं कि शादी कोई कांट्रैक्ट या समझौता है और उसमें एक-दूसरे के प्रति विश्वास, समर्पण, प्यार नहीं है बल्कि एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें दोनों ही पक्ष कोई अशोभनीय स्थिति होने पर उसका हल न्यायोचित ढंग से निकाल सकें। 

इसका अर्थ यह है कि दोनों एक-दूसरे के साथ आजीवन रहने की शपथ लेने के साथ इस बात के लिए भी तैयार हैं कि यदि कभी मनमुटाव हुआ या एक-दूसरे से किसी भी कारण से चाहे वह शारीरिक, मानसिक, आॢथक या व्यक्तिगत हो या अनबन होने पर, दोनों अपने स्वतंत्र निर्णय ले सकते हैं। इसका मतलब यह है कि इसकी रूपरेखा शादी के समय ही बन जाने से ही बिना किसी विवाह, झगड़े या सम्पत्ति के बंटवारे, संतान पर अधिकार जैसे महत्वपूर्ण विषयों का हल अपनी बुद्धि और विवेक से मिलजुल कर सकते हैं। यदि शादी के बाद दोनों के लिए अप्रिय स्थितियां बनती हैं तो उनका हल आपसी बातचीत से निकाल लिए जाने की संभावना और मानसिकता के साथ ही वे एक-दूसरे के साथ विवाह करने का निर्णय कर रहे हैं। 

उम्र के किसी भी पड़ाव पर हों या निर्णय करने का अधिकार केवल पुरुष और स्त्री का है कि उन्हें किस प्रकार का जीवनसाथी चाहिए। यह सोच बनने का सुखद परिणाम यह होगा कि बेमेल विवाह नहीं होंगे, दहेज प्रथा से छुटकारा मिल सकेगा और अपने पति या अपनी पत्नी का चुनाव करने और विवाह करने का दायित्व स्वयं लेने पर होने वाली प्रसन्नता हमेशा बनी रहेगी। विवाह के लिए उम्र का बंधन नहीं बल्कि आत्मनिर्भरता और अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठाने की मानसिकता का विकास होने और इस संबंध में पर्याप्त जागरूकता होने पर ही सफल विवाह की नींव पड़ सकेगी जो परिवार, समाज और अन्तत: देश के लिए लाभदायक होगी।-पूरन चंद सरीन
 


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