देश में विभिन्न समुदायों के लिए अलग-अलग कानून नहीं हो सकते

punjabkesari.in Monday, Aug 19, 2024 - 05:30 AM (IST)

समान नागरिक संहिता (यू.सी.सी.) की अवधारणा जोर पकड़ रही है। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस सप्ताह स्वतंत्रता दिवस के भाषण के बाद हुआ है। देश को विभाजित करने वाले कानूनों के खिलाफ प्रधानमंत्री की दृढ़ प्रतिबद्धता और धर्मनिरपेक्ष यू.सी.सी. के लिए उनका आह्वान इस मुद्दे के महत्व को और रेखांकित करता है। संविधान के अनुच्छेद 44 में सभी नागरिकों के लिए यू.सी.सी. की बात कही गई है। 1956 में हिंदू कानूनों के संहिताकरण के बावजूद, यू.सी.सी. पर आम सहमति अभी तक नहीं बन पाई है, क्योंकि विभिन्न धार्मिक समुदाय अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों का पालन करते हैं। 

यू.सी.सी. फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, अमरीका और ऑस्ट्रेलिया सहित कई देशों में प्रचलित है। ये कानून विभिन्न कानूनी प्रणालियों को एक साथ लाने और निष्पक्षता को बढ़ावा देने के लिए बनाए गए थे। केन्या, पाकिस्तान, इटली, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और ग्रीस में, धार्मिक या सांस्कृतिक कारक अक्सर उन कानूनी प्रणालियों को प्रभावित करते हैं जिनमें यू.सी.सी. नहीं है। यू.सी.सी. एक औपनिवेशिक विरासत है। 1835 में, तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने भारतीय कानून को और अधिक समान बनाने का प्रस्ताव रखा था। भारत में वर्तमान में हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और पारसियों के लिए अलग-अलग व्यक्तिगत कानून हैं। विवाह, तलाक, विरासत और गोद लेने जैसे पारिवारिक मामलों के लिए कोई कानून लागू नहीं होता। यू.सी.सी. भाजपा के 3 मुख्य एजैंडों में से एक है। 

कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों के नेतृत्व वाले राजनीतिक विरोधियों और यहां तक कि कुछ भाजपा सहयोगी भी इसका विरोध करते हैं। यू.सी.सी. को लागू करने पर अभी तक कई कारणों से आम सहमति नहीं बन पाई है। ऐसा मुद्दे की जटिलता, विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच अधिक सहमति की आवश्यकता और राजनीतिक चुनौतियों के कारण है। वर्तमान में, विशिष्ट धार्मिक और जाति समूहों के लिए कानून हिंदुओं और मुसलमानों के रीति-रिवाजों और प्राचीन ग्रंथों पर आधारित हैं। संविधान बनाते समय, भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, कि मुझे नहीं लगता कि वर्तमान समय में मेरे लिए इसे (यू.सी.सी.) लागू करने का प्रयास करने का सही समय है। यदि हमारे संविधान निर्माताओं ने इस मुद्दे पर निर्णय लिया होता, तो आज यह समस्या नहीं होती। विभिन्न भारतीय समुदायों के अपने अलग-अलग नागरिक कानून हैं, जबकि आपराधिक कानून सभी पर लागू होते हैं। यह विविधता यू.सी.सी. के कार्यान्वयन को जटिल बनाती है। मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा का मानना है कि आधुनिक राष्ट्र में अलग-अलग समुदायों के लिए अलग-अलग कानून नहीं होने चाहिएं। 

यू.सी.सी .के समर्थन में कई तर्क हैं। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, सभी के लिए एक कानून होना बहुत जरूरी है। इससे राजनीतिक दलों द्वारा धर्म का शोषण करने की संभावना कम हो जाएगी। सभी नागरिकों को समान सुरक्षा मिलेगी, जाति और धर्म आधारित कानून खत्म हो जाएंगे। यह सुनिश्चित करके महिलाओं को सशक्त बनाएगा कि धार्मिक नियम उनके अधिकारों का निर्धारण नहीं करते। कई मौजूदा विशिष्ट व्यक्तिगत कानून मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं, यू.सी.सी. कानूनी मामले के बजाय राजनीतिक मामले में बदल गया है। समर्थक और विरोधी दोनों पक्षों पर बहस करते हैं। कांग्रेस और उसके धर्मनिरपेक्ष दलों के नेतृत्व में विरोधी इसके खिलाफ हैं। वोट बैंक की राजनीति भी इसमें शामिल है। मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक इसके पक्ष में नहीं हैं, हालांकि कुछ इस्लामी देशों ने सभी के लिए एक समान कानून अपनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने लगातार समान नागरिक संहिता के महत्व पर जोर दिया है। 1985 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता बनाए रखेगी। 1995 में, न्यायालय ने सभी नागरिकों के लिए एक ही कानून की सिफारिश की। 

समान नागरिक संहिता को लागू करना व्यक्तिगत कानूनों में लैंगिक भेदभाव को खत्म करने की दिशा में एक कदम होगा। एक देश में, अलग-अलग समुदायों के लिए अलग-अलग कानून नहीं हो सकते। भाजपा ने हाल ही में उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू की है। गुजरात और असम भी इसे अपनाने पर विचार कर रहे हैं। गोवा, जो एक पूर्व पुर्तगाली उपनिवेश था, ने 1867 से पुर्तगाली कानून पर आधारित समान नागरिक संहिता का पालन किया था। हालांकि, केरल ने अपने विधानमंडल में समान नागरिक संहिता पर आपत्ति जताई है और भाजपा के कुछ सहयोगी आदिवासी बहुल पूर्वोत्तर राज्यों में इसका विरोध कर रहे हैं। 

भारत में समान नागरिक संहिता महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका उद्देश्य एक धर्मनिरपेक्ष देश में सभी के लिए एक कानून प्रदान करना है। आजादी के 78 साल हो चुके हैं और हमें इसे जल्द से जल्द लागू करने पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। 
प्रधानमंत्री को राजनीतिक दलों के साथ बैठकें करनी चाहिएं और आम सहमति बनानी चाहिए। बहस व्यापक होनी चाहिए और सभी वर्गों को अपना समर्थन या विरोध व्यक्त करना चाहिए।-कल्याणी शंकर    
 


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