युवाओं का आंदोलन सस्ती, सार्थक और समान शिक्षा के अधिकार का ‘संघर्ष’ बने

punjabkesari.in Thursday, Nov 28, 2019 - 01:00 AM (IST)

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.) में फीस बढ़ौतरी को लेकर चला आंदोलन जो सवाल उठा रहा है वह सिर्फ  जे.एन.यू. का नहीं है बल्कि पूरे देश का है। सवाल सिर्फ  फीस तक सीमित नहीं है, बल्कि उच्च शिक्षा के समान अवसर से जुड़ा है। इसलिए अगर इस आंदोलन का अंत जे.एन.यू. के फीस बढ़ौतरी को पलटने से हो गया तो यह कोई सफलता नहीं होगी।

किसी भी बड़े आंदोलन का लक्षण यह है कि वह किसी छोटे और तीखे मुद्दे के बहाने बहुत बड़े और दूरगामी परिवर्तन की मांग करता है। महिलाओं के यौन शौषण के खिलाफ मी टू आंदोलन हुआ था, जिसने दिखाया कि बड़े-बड़े मीडिया घरानों में काम करने वाली सम्पन्न महिलाओं को भी किस-किस तरह के यौन उत्पीडऩ का सामना करना पड़ता है। उद्देश्य यह नहीं था कि आप सिर्फ  मीडिया हाऊस में कुछ ठीक कर दें, बल्कि यह कि देश में हर कामकाजी औरत के लिए काम करने की परिस्थिति बेहतर हो, यौन उत्पीडऩ से उन्हें बचाया जाए।

ठीक यही बात जे.एन.यू. आंदोलन के बारे में लागू होती है। जे.एन.यू. न तो इस देश की सबसे गरीब यूनिवर्सिटी है, न ही जे.एन.यू. की फीस इस देश में सबसे अधिक है। देश के तमाम केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को केन्द्र सरकार से अनुदान मिलता है। राज्य सरकारों द्वारा चलाए जा रहे विश्वविद्यालयों के मुकाबले में सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के पास कहीं ज्यादा पैसा है, कहीं ज्यादा स्कॉलरशिप है। बाकी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की तुलना में भी जे.एन.यू. थोड़ी बेहतर स्थिति में है। इस विश्वविद्यालय की फीस बाकी सरकारी संस्थानों से ज्यादा नहीं है। जे.एन.यू. की हॉस्टल फीस जो पहले 32000 रुपए थी, वह बढ़कर अगर 56000 रुपए हो भी जाती है तो भी यह देश की सबसे महंगी यूनिवर्सिटी नहीं होगी।

उच्च शिक्षा एक साधारण परिवार की पहुंच से बाहर होती जा रही 
आप पूछेंगे कि फिर जे.एन.यू. में फीस वृद्धि को लेकर आंदोलन क्यों? जे.एन.यू. की खासियत यह है कि यह देश के उन चंद विश्वविद्यालयों में से है जहां सचमुच पूरे देश से विद्यार्थी आते हैं, काफी गरीब घरों के बच्चे आते हैं। असली सवाल यह है कि अगर फीस वृद्धि से जे.एन.यू. के विद्यार्थी भी परेशान हैं तो यह समस्या बाकी देश में कितनी गहरी होगी? सवाल है कि क्या उच्च शिक्षा एक साधारण परिवार की पहुंच से बाहर होती जा रही है? अगर ऐसा है तो जो असंतोष आज जे.एन.यू. में फूट रहा है वह देर-सवेर देश की तमाम उच्च शिक्षण संस्थाओं में किसी न किसी स्वरूप में उभरेगा।

हाल ही में भारत सरकार ने राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे की एक रिपोर्ट पेश की है। देश में एक लाख से अधिक घरों में जाकर यह सर्वेक्षण पूछता है कि आपने शिक्षा पर कितना खर्च किया। हर तरह का खर्च फिर चाहे वो यूनिफॉर्म का खर्चा हो, पाठ्यपुस्तक का खर्चा हो या ट्रांसपोर्ट का खर्चा हो, सब कुछ देख कर रिपोर्ट अनुमान लगाती है। अगर आप बिल्कुल साधारण से साधारण किस्म की शिक्षा दिलवाएं, यानी स्थानीय कॉलेज में जाएं, जहां न तो शिक्षा मिलेगी, न ही डिग्री समय पर मिलेगी और उसमें से नौकरी तो कतई नहीं मिलेगी, वहां पर भी आप के सालाना 20,000 रुपए खर्च होंगे और अगर थोड़ा सा बेहतर जगह जाएं, कोई भी प्रोफैशनल डिग्री के लिए हो,  फिर चाहे वह मैडीकल की हो, लॉ की हो या फिर इंजीनियरिंग की हो, जिसमें शायद नौकरी की थोड़ी-सी गुंजाइश बन जाती है, उसकी कीमत 50,000 से 70,000 रुपए प्रति वर्ष है। और अगर कुछ बेहतर प्राइवेट संस्थान में जाना हो वहां 2 लाख रुपए प्रति वर्ष। इस सब में अभी हॉस्पिटल का या बाहर कमरा लेकर ठहरने का खर्चा शामिल नहीं है। सारा खर्च सिर्फ  एक बच्चे का है।

 इस समय इस देश में 5 लोगों के एक परिवार की औसत आय लगभग 12,000 रुपए प्रति महीना है यानि 1,44,000 रुपए की सालाना आय है। अब बताइए ऐसा औसत परिवार उच्च शिक्षा के इस तरह के खर्चे को कैसे उठा सकता है? अगर जे.एन.यू. की फीस 32,000 से 56,000 रुपए बढ़ जाती है जो आपको और हमें देख कर लगता है थोड़ा-सा तो फर्क है लेकिन  उस परिवार के लिए यह पानी के ऊपर नाक रखने और नाक पानी के अंदर जाने का फर्क है।

समान अवसर का समाधान सिर्फ फीस में नहीं 
आज देशभर में लाखों-करोड़ों लोग पहली बार उच्च शिक्षा में आ रहे हैं जिनके मां-बाप ने कभी कॉलेज-यूनिवर्सिटी का चेहरा नहीं देखा। उनके मन में सपने हैं, उनके मां-बाप न जाने किस तरह पेट काटकर उनको यूनिवॢसटी में भेज रहे हैं। वे बच्चे मेहनत करने को तैयार हैं। उनमें प्रतिभा है। नहीं तो वे अपने गांव से उठकर इतने ऊपर नहीं आ पाते लेकिन उनके पास पैसे नहीं हैं। क्या उन्हें उच्च शिक्षा  पाने का अधिकार है? हमारा संविधान कहता है कि सबको समान अवसर मिलेंगे! वे समान अवसर कैसे मिलेंगे। समाधान सिर्फ फीस  में नहीं है, समाधान के लिए कम से कम चार कदम उठाने होंगे।

पहला, उच्च शिक्षा की लागत कम रखनी पड़ेगी। चाहे फीस हो, हॉस्टल फीस हो, मैस फीस हो। इन सब को यह सोच कर तय करना होगा कि एक साधारण परिवार कैसे उठा सकता है इतना खर्च। मतलब यह कि सरकार को इन सबके लिए अनुदान देना होगा। अगर कोई कहता है कि सरकार शिक्षा का बोझ क्यों उठाए तो उससे पूछिए कि सरकार का और काम क्या है।

दूसरा, स्कॉलरशिप और फैलोशिप में काफी वृद्धि करनी होगी। आज हमारे देश में केन्द्र सरकार उच्च शिक्षा की स्कॉलरशिप और फैलोशिप मिलाकर 1800-2000 करोड़ रुपए के करीब खर्च करती है। 3 करोड़ से ज्यादा विद्यार्थी हैं। मतलब प्रति विद्यार्थी प्रतिवर्ष कुल 600 रुपए की स्कॉलरशिप देती है। अमरीका के पूंजीवादी विश्वविद्यालय कम से कम 25 से 30 प्रतिशत विद्यार्थियों को उनकी पूरी शिक्षा और गुजर-बसर का खर्च देते हैं! हमारे यहां उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे विद्यार्थियों में से 2 प्रतिशत को भी ऐसी स्कॉलरशिप नहीं मिलती।

पढ़ते हुए कुछ कमाने का तरीका होना चाहिए
तीसरा, विद्यार्थियों के लिए यूनिवर्सिटी-कॉलेज में पढ़ते हुए कुछ कमाने का तरीका होना चाहिए। यानी विद्यार्थी हफ्ते में 20 घंटे तक लाइब्रेरी में या ऑफिस में या किसी रिसर्च का काम कर सकता है। इससे विद्यार्थी कम से कम अपना मैस का खर्चा उसमें से निकाल सकते हैं। इससे विद्यार्थी काम करना सीखेंगे, श्रम के प्रति इज्जत आएगी और चार पैसे कमाएंगे।

चौथा, कुछ कोर्स महंगे रहेंगे तो उनके लिए एजुकेशन लोन की व्यवस्था करनी होगी। आज के यह 12-14 प्रतिशत ब्याज वाले लोन का बोझ तो विद्यार्थियों को खत्म कर देगा। विद्याॢथयों को किसानों की तर्ज पर लोन मिले। ब्याज 7 प्रतिशत हो, समय से चुकाने पर और भी छूट मिले व सरकार उसकी गारंटी दे। इसलिए असली सवाल सिर्फ  जे.एन.यू. का या मैस की फीस का नहीं है। सवाल यह है कि भारत का संविधान जो अवसरों की समानता की बात करता है, वह लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति है या नहीं। जे.एन.यू. के छात्रों को सलाम करना चाहिए कि उन्होंने एक बड़ा सवाल उठाया है। लेकिन यह आंदोलन तब सफल होगा जब वह पूरे देश के युवाओं का आंदोलन बने, सस्ती शिक्षा,  सार्थक शिक्षा, समान शिक्षा के अधिकार का संघर्ष बने।
योगेंद्र यादव - yyopinion@gmail.com


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