पश्चिम ने हर रिश्ते को पैसे से तोला है

Tuesday, Feb 07, 2023 - 05:24 AM (IST)

पिछले दिनों ब्रिटेन से एक दिलचस्प खबर आई थी। उसमें बताया गया था कि एक नानी ने अपनी बेटी से कहा कि नातिन की देखभाल के लिए उसे 1600 रुपए प्रति घंटा के हिसाब से दिए जाएं। यदि पैसे नहीं दिए गए, तो वह बच्ची की देखभाल नहीं करेगी। यही नहीं, बच्ची की जरूरत की चीजों को भी वह दोबारा इस्तेमाल नहीं करेगी, इसलिए कार में हमेशा नया सामान भी हो। मां की इस मांग से लड़की परेशान है। उसका कहना है कि उसके पास इतने पैसे नहीं हैं कि मां की मांगों को पूरा कर सके। फिर भविष्य के लिए उसे कुछ बचाना भी है। सारे पैसे मां को दे देगी, तो उसका क्या होगा। उसने यह भी कहा कि मां के पास कोई काम नहीं है। वह दिन भर कुछ नहीं करती है। अब उसकी बच्ची की देखभाल भी नहीं करना चाहती। 

आखिर पश्चिम ने हर संबंध को जिस तरह से पैसे से तोला है, जहां इमोशंस और भावना का कोई नामो-निशान तक नहीं है, परिजनों द्वारा एक-दूसरे की देखभाल और परवाह को भी केयर ईनामी का नाम दिया गया है, ऐसे में ये बातें सुनकर कोई आश्चर्य भी नहीं होता। देखने वाली बात यह भी है कि जब बेटी अपनी मां की शिकायत करने लगी, तो बहुत से लोगों ने यह भी कहा कि आप अपनी मां से यह उम्मीद क्यों कर रही हैं कि वह अपकी बच्ची को पालें। उन्होंने अपनी बच्ची यानी कि आपको पाल दिया। अब अपनी बच्ची को आप खुद पालें। वैसे भी पश्चिमी देशों में परिवार का ढांचा वह भी नहीं, जो हमारे यहां है। 

अपने यहां से तो कभी पिता के माता-पिता तो कभी मां के माता-पिता बारी-बारी से विदेशों में रह रहे बच्चों के बच्चों को पालने जाते हैं। वे अपने नाती-पोतों को किसी भार की तरह नहीं, अपने परिवार का हिस्सा मानकर ही पालते हैं। बल्कि इस तरह की कहावतें भी कही जाती हैं कि बच्चे का दूध नानी-दादी नहीं पी जाएंगी।

वे खुद नहीं खाएंगी, पहले बच्चे या बच्ची को देंगी, जो सच भी है। कुल को आगे बढ़ते देखने की जो भावना है, वही कारण है कि दादा-दादी, नाना-नानी, बच्चों के बच्चों के साथ खुद भी बच्चा बन जाते हैं। वे शिशु को अपना सबसे बड़ा मनोरंजन अपनी युवा उम्र और बचपन में वापस लौटना भी कहते हैं। पिछले सौ सालों में जितने हमले परिवार नामक संस्था पर हुए हैं, विभिन्न विमर्शों के कोड़े से जिस तरह से इस संस्था को पीटा गया है, फिर भी यह बची हुई है, तो इसका कारण भावनात्मक लगाव और जिम्मेदारी की भावना ही है। ऐसा देखकर पश्चिम में रहने वाले तमाम लोग बहुत आश्चर्य भी करते हैं और प्रभावित भी होते हैं। 

भारतीय दादा-दादी, नाना-नानी जब अपने बच्चों के बच्चों की देखभाल करते हैं, तो उसमें मूल भावना यही होती है कि इससे उनके बच्चे अपने रोजमर्रा का काम जैसे कि नौकरी आदि भी सुचारू रूप से कर सकेंगे, फिर अगली पीढ़ी के बच्चों से एक भावनात्मक सूत्र भी जुड़ेगा जो हमेशा चलता रहेगा। यही नहीं, शिशु की देखभाल करते हुए वे सिर्फ उसके खाने-पीने, नहलाने, धुलाने, सफाई, सुलाने, खेलने, घुमाने, पढ़ाने आदि बातों का ही ध्यान नहीं रखते, बल्कि समय-समय पर संस्कार भी देते हैं। जैसे कि घर में जब कोई आए तो उससे नमस्ते करना है, आदर से बात करनी है, खाना बिगाडऩा नहीं है, सभी पर दया करनी है। इसके लिए न वे पैसे मांगते हैं और न कोई अतिरिक्त मांग ही रखते हैं। इसलिए यदि नानी ने पैसे मांगे हैं, तो हमें ब्रिटेन में परिवारों के ढांचे को भी समझना होगा। 

परिवार में एकजुटता कितनी है, यह देखना होगा। शायद परिवार में यह सिखाया ही नहीं गया कि हम सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं। जीवन में सभी को दूसरे की जरूरत होती है। अकेलापन तब तक अच्छा लग सकता है जब तक कोई विपत्ति न आ पड़े। नानी बच्ची की देखभाल क्यों नहीं करना चाहती। क्यों उसका बच्ची से भावनात्मक लगाव नहीं है, इसीलिए न कि वहां परिवार और जिसे एक्सटैंडेड फैमिली कहते हैं, उसकी अवधारणा ही नहीं बची है। अफसोस कि भारत के लोग भी इस अंधी दौड़ में शामिल होते जा रहे हैं। परिवार उन्हें सबसे बड़ा बोझ लग रहा है।-क्षमा शर्मा

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