विजय का जयघोष वंदे मातरम युगों-युगों तक गूंजता रहेगा
punjabkesari.in Friday, Nov 07, 2025 - 04:39 AM (IST)
हमारे देश के इतिहास में ऐसे कई महत्वपूर्ण पड़ाव आए हैं, जब गीतों और कलाओं ने विभिन्न रूपों में जनभावनाओं को जागृत कर आंदोलन को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चाहे वह छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना के युद्ध गीत हों, स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं के गीत हों या आपातकाल के विरुद्ध युवाओं के सामूहिक गीत, इन गीतों ने स्वाभिमान की प्रेरणा दी और भारतीय समाज को एकजुट भी किया।
ऐसा ही है भारत का राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम’, जिसका इतिहास किसी युद्धभूमि से नहीं बल्कि एक विद्वान बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय जी के शांत किन्तु दृढ़ संकल्प से शुरू होता है। वर्ष 1875 में, जगधात्री पूजा (कार्तिक शुक्ल नवमी या अक्षय नवमी) के दिन उन्होंने उस भजन की रचना की जो भारत की स्वतंत्रता का शाश्वत गान बन गया। इन पावन शब्दों को लिखते समय,वह भारत की गहरी सभ्यतागत जड़ों से प्रेरणा प्राप्त कर रहे थे। अथर्ववेद के मंत्र ‘माता भूमि: पुत्रो अहं पृथ्वया’ से लेकर देवी महात्म्य में विश्व माता के आमंत्रण से प्रेरणा ले रहे थे। बंकिम बाबू का यह मंत्र एक प्रार्थना भी था और भविष्यवाणी भी। ‘वंदे मातरम्’ भारत का राष्ट्रगान है, न केवल स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा है बल्कि यह बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय जी द्वारा रचित ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का प्रथम मंत्र है। इसने हमें स्मरण कराया कि भारत केवल एक भू-खंड नहीं, बल्कि एक भू-सांस्कृतिक राष्ट्र है जिसकी एकता उसकी संस्कृति और सभ्यता से उपजी है। यह केवल एक भू-भाग नहीं बल्कि एक तीर्थस्थल है, स्मृति, त्याग, शौर्य और मातृत्व से बंधी एक पावन भूमि है।
जैसा कि महर्षि अरविंद ने वर्णित किया है, बंकिम आधुनिक भारत के एक ऐसे ऋषि थे जिन्होंने अपने शब्दों के माध्यम से राष्ट्र की आत्मा को पुनर्जीवित किया। उनका ‘आनंदमठ’ केवल एक उपन्यास नहीं बल्कि गद्य में रचा गया एक मंत्र था जिसने अपनी दिव्य शक्ति को विस्मृत कर चुके राष्ट्र को जागृत किया। अपने एक पत्र में, बंकिम बाबू ने लिखा था, ‘‘यदि मेरे सभी कार्य गंगा में बह भी जाएं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यह श्लोक सदैव अमर रहेगा। यह एक महान गीत होगा और लोगों का हृदय जीत लेगा।’’ ये शब्द भविष्यसूचक थे। औपनिवेशिक भारत के सबसे अंधकारमय काल में लिखा गया, ‘वंदे मातरम’ जागृति का प्रभात गीत बन गया, एक ऐसा भजन जिसमें ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’और सभ्यता का गौरव समाहित था। ऐसी पंक्तियां केवल वही व्यक्ति लिख सकता था जिसका हृदय राष्ट्र के प्रति समर्पण से ओत-प्रोत हो। 1896 में, रबींद्रनाथ टैगोर जी ने ‘वंदे मातरम’ को संगीतबद्ध किया और कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन में गाया, जिससे इसे प्रसिद्धि और अमरता प्राप्त हुई। यह गीत भाषा और क्षेत्र की सीमाओं को पार कर पूरे देश में गूंज उठा। तमिलनाडु में, सुब्रमण्यम भारती जी ने इसका तमिल में अनुवाद किया और पंजाब में, क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश राज की खुली अवज्ञा करते हुए इसे गाया।
1905 में, बंग-भंग आंदोलन के दौरान,बंगाल में विद्रोह भड़क उठा। अंग्रेजों ने ‘वंदे मातरम’ के सार्वजनिक पाठ पर प्रतिबंध लगा दिया था, फिर भी, 14 अप्रैल, 1906 को बारीसाल में हजारों लोगों ने इस आदेश का उल्लंघन किया। जब पुलिस ने एक शांतिपूर्ण सभा पर लाठीचार्ज किया तो पुरुष और महिलाएं ‘वंदे मातरम’ का नारा लगाते हुए सड़कों पर उमड़ पड़े। वहां से, ‘वंदे मातरम’ का मंत्र गदर पार्टी के क्रांतिकारियों के साथ कैलिफोर्निया पहुंचा, आजाद हिंद फौज में गूंजा जब नेताजी के सैनिक सिंगापुर से कूच कर रहे थे और 1946 की रॉयल इंडियन नेवी की क्रांति में भी गूंजा, जब भारतीय नाविकों ने ब्रिटिश युद्धपोतों पर तिरंगा फहराया।
खुदीराम बोस से लेकर अशफाकउल्लाह खान तक, चंद्रशेखर आजाद से लेकर तिरुपुर कुमारन तक, नारा एक ही था। यह अब सिर्फ एक गीत नहीं रहा, यह भारत की सामूहिक आत्मा की आवाज बन गया था। महात्मा गांधी ने स्वयं स्वीकार किया था कि ‘वंदे मातरम’ में ‘सबसे निष्क्रिय रक्त को भी जगाने की जादुई शक्ति’ है। इसने उदारवादियों, क्रांंतिकारियों, विद्वानों और नाविकों को एकजुट किया। महर्षि अरविंद जी ने कहा था कि यह ‘भारत के पुनर्जन्म का मंत्र’ है।26 अक्तूबर को ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर देशवासियों को ‘वंदे मातरम’ गीत के इस इतिहास की याद दिलाई और राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’ की 150वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में 7 नवम्बर से अगले एक वर्ष तक भारत सरकार द्वारा विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करने का निर्णय लिया।
इन आयोजनों के माध्यम से, ‘वंदे मातरम’ का पूरा गीत पूरे देश में गाया जाएगा। आज जब हम भारत पर्व मना रहे हैं और सरदार पटेल की जयंती पर उन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रहे हैं तो हमें यह भी स्मरण है कि कैसे सरदार साहब ने ‘एक भारत’ का निर्माण करके ‘वंदे मातरम’ की भावना को मूर्त रूप दिया। यह गीत न केवल अतीत की स्मृति है बल्कि भविष्य के लिए एक आह्वान भी है। ‘वंदे मातरम’ आज भी 2047 के विकसित भारत के हमारे विजन को प्रेरित कर रहा है। यह भारत के सभ्य आत्मविश्वास का प्रतीक है। अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम इस भावना को एक आत्मनिर्भर और श्रेष्ठ भारत में परिवर्तित करें। ‘वंदे मातरम’ स्वाधीनता का गीत है, अटूट संकल्प की भावना है और भारत के जागरण का प्रथम मंत्र है। राष्ट्र की आत्मा से उत्पन्न शब्द कभी नहीं मरते, वे जीवित रहते हैं, पीढिय़ों तक गूंजते रहते हैं। विजय का यह जयघोष युगों-युगों तक गूंजता रहेगा। अब समय आ गया है कि हम अपने इतिहास, अपनी संस्कृति, अपनी मान्यताओं और अपनी परंपराओं को भारतीयता की दृष्टि से देखें।-अमित शाह(केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री)
