विपक्ष की एकता ‘दूर की कौड़ी’ बनकर रह गई है

Wednesday, Feb 14, 2018 - 01:52 AM (IST)

लगातार शक्तिशाली हो रही भाजपा को घेरने के सपने देख रही कांग्रेस पार्टी के समक्ष मुख्य चुनौती क्या है? यह है अगले लोकसभा चुनावों से पहले-पहले यू.पी.ए. का फिर से नए रूप में पुनर्गठन करना। विपक्ष नोटबंदी, जी.एस.टी. तथा किसानों की समस्याओं को छोड़ कर किसी भी गंभीर मुद्दे पर सरकार को घेरने में सफल नहीं हुआ है। उलटा यह बंटा हुआ, छिन्न-भिन्न और दिशाहीन है। इसके पास कोई सशक्त मुद्दा ही नहीं है। इसका सबसे बढिय़ा उदाहरण तो गत वर्ष राष्ट्रपति चुनाव के दौरान देखने को मिला जब बहुत से विपक्षी सांसदों ने पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करते हुए भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में मतदान किया। 

मोदी के बढ़ते ‘महारथ’ को यदि जादू की कोई छड़ी रोक सकती है तो वह है भाजपा विरोधी शक्तियों की एकता। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य के हिसाब से देखा जाए तो यह एकता विभिन्न कारणों से शेखचिल्ली का सपना बन कर रह गई है, हालांकि 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने केवल 31 प्रतिशत वोट हासिल करके सरकार बनाई थी जबकि 69 प्रतिशत मतदाता विपक्षी पार्टियों के पक्ष में भुगते थे। कांग्रेस के लगातार कमजोर पड़ते जाने और उसकी सरकार केवल 6 राज्यों तक सीमित हो जाने तथा अनेक क्षेत्रीय दलों और नेताओं के मजबूत होने के कारण विपक्ष की एकता दूर की कौड़ी बनकर रह गई है। आज की स्थितियां ये हैं कि न तो कोई पार्टी और न ही कोई पायदार गठबंधन भाजपा को गंभीर चुनौती प्रस्तुत करने की स्थिति में है, यही भाजपा के लिए सबसे बड़े लाभ की बात है।

कांग्रेस के समक्ष पहली चुनौती तो यह है कि वह विपक्ष को एकजुट करने तथा यू.पी.ए. को नया रूप देने  में अग्रणी भूमिका अदा करे। जहां 2004 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी विभिन्न दलों का गठबंधन बनाकर वाजपेयी सरकार को पराजित करने में सफल हुई थीं वहीं आज का परिदृश्य बिल्कुल बदला हुआ है। सोनिया गांधी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और इसी कारण उन्होंने पार्टी की कमान अपने पुत्र राहुल गांधी को सौंप दी है। शरद पवार, ममता बनर्जी, मुलायम सिंह अथवा मायावती जैसे अधिकतर विपक्षी नेता राहुल के नेतृत्व में काम करना पसंद नहीं करेंगे। यही कारण है कि हाल ही में नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध सशक्त गठबंधन बनाने का काम संभालने के लिए सोनिया गांधी को आगे आना पड़ा। 

कांग्रेस के समक्ष दूसरी चुनौती यह है कि विपक्ष को एकजुट करने के लिए बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? क्षेत्रीय पार्टियां कमजोर पड़ चुकी कांग्रेस को अधिक वर्चस्व देने को तैयार नहीं। अभी गत माह ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) अध्यक्ष शरद पवार ने विपक्षी एकता का आह्वान किया था और महाराष्ट्र में बहुत प्रभावशाली ढंग से ‘संविधान बचाओ मार्च’ का आयोजन किया था। तीसरी चुनौती है प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पर आम सहमति बनाना। बेशक कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के साथ व्यापक गठबंधन बनाने पर सहमत दिखाई देती है तो भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के मुद्दे पर उसे समस्याएं दरपेश आएंगी। कांग्रेस इस पद के लिए कभी भी किसी अन्य विपक्षी पार्टी के उम्मीदवार का समर्थन नहीं करेगी तथा दूसरी ओर अन्य पार्टियां भी शायद राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखने पर सहमत नहीं होंगी। 

ममता बनर्जी जैसे कुछ क्षेत्रीय नेता  इस पद के सशक्त दावेदार हैं। उनके सामने यह विकल्प है कि वे खुद का गठबंधन बना सकते हैं या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के सवाल को 2019 के लोकसभा चुनावों के परिणाम आने तक खुला छोड़ सकते हैं। फिर भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के बिना यह गठबंधन मोदी जैसे सशक्त नेता के नेतृत्व में भाजपा और राजग के विरुद्ध काफी कमजोर सिद्ध होगा। चौथी चुनौती है कि पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के राज्यों में भाजपा के अभ्युदय पर अंकुश कैसे लगाया जाए? केवल 7 राज्य ही ऐसे हैं जहां भाजपा और कांग्रेस में सीधी टक्कर है। 

मध्य प्रदेश और राजस्थान सहित भाजपा पहले ही 12 बड़े राज्यों में अपने पूर्ण शिखर पर है और राजग की 336 सीटों में से 284 अकेली भाजपा की झोली में हैं। उत्तरी राज्यों में भाजपा अपने चरम पर पहुंच चुकी है यानी कि इन राज्यों में इसकी सीट संख्या में और अधिक बढ़ौतरी होने की संभावना बहुत कम है इसीलिए यह विस्तार के लिए पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत पर नजरें जमाए हुए है। पूर्वोत्तर भारत में 25 लोकसभा सीटें हैं। कोई समय था जब लगभग इस पूरे क्षेत्र में कांग्रेस का शासन था लेकिन आज परिदृश्य अलग है। 7 में से 5 राज्यों में भाजपा और इसके सहयोगी दलों का शासन है। 

दक्षिण भारत में कांग्रेस को भाजपा का अभ्युदय रोकने के प्रयास करने की जरूरत है और साथ ही इसके लिए यह भी जरूरी है कि कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में किसी भी कीमत पर अपनी सत्ता बचाए रखे। वर्तमान में कर्नाटक और पंजाब ही दो प्रमुख राज्य कांग्रेस के पास रह गए हैं। कभी दक्षिण भारत कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था लेकिन धीरे-धीरे क्षेत्रीय पार्टियों ने उसे हाशिए पर धकेल दिया। 1967 से कांग्रेस लगातार कभी द्रमुक और कभी अन्नाद्रमुक की पीठ पर सवार होकर सत्ता सुख लेती रही है। 

केरल में बदल-बदल कर वामपंथियों के नेतृत्व वाले एल.डी.एफ. और कांग्रेस नीत यू.डी.एफ. की सरकारें बनती रही हैं। अविभाजित आंध्र प्रदेश कांग्रेस का मजबूत गढ़ हुआ करता था लेकिन तेलगूदेशम और तेलंगाना राष्ट्र समिति के अभ्युदय ने कांग्रेस को और भी कमजोर कर दिया। परिणाम यह हुआ कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में अब कांग्रेस कहीं दिखाई ही नहीं देती।-कल्याणी शंकर

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