बंटाधार विपक्ष ही मोदी विजय की गारंटी होगा

Saturday, Feb 10, 2018 - 02:57 AM (IST)

विपक्ष को जैसे ही यह बू आने लगी कि नरेन्द्र मोदी की जिस लहर पर सवार होकर भाजपा 4 वर्ष पूर्व सत्ता में आई थी वह लहर समाप्त हो गई है, उसने अपनी कमर कसनी शुरू कर दी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को पराजित करने तथा 2018 में कुछ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के भवसागर से पार उतरने की कार्ययोजना का खाका तैयार करने हेतु यू.पी.ए. की चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने गत सप्ताह 19 विपक्षी दलों के नेताओं की मीटिंग बुलाई

राजस्थान में हुए उपचुनावों में जहां कांग्रेस ने 2 लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर जीत हासिल की है, उससे उसको यह विश्वास हो गया है कि ज्वारभाटे का रुख बदल रहा है। फिर भी कुंजीवत समस्या तो यह है कि विपक्ष बंटाधार है। चुनावी विशेषज्ञ अपने विश£ेषण विपक्षी एकता के सूचकांक (आई.ओ.यू.) पर फोकस करते हैं। 2019 में विपक्षी एकता की बजाय इसकी अंतर्कलह का सूचकांक (आई.ओ.डी.) ही मोदी के दोबारा जीतने की सबसे बढिय़ा गारंटी होगा। 

इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कि भाजपा का विजय रथ अपना वेग और शक्ति खो चुका है। राजग के सहयोगियों की शिकायत है कि उनकी अनदेखी की जा रही है। गठबंधन की बैठकें कभी-कभार ही होती हैं। शिवसेना खुले विद्रोह पर उतर आई है। तेलगूदेशम पार्टी भी आंध्र प्रदेश को 2018-19 के केन्द्रीय बजटीय आबंटन में सौतेले व्यवहार की शिकायत कर रही है। उधर बिहार में लोजपा नेता राम विलास पासवान को यह शिकायत है कि यू.पी. में उन्हें कोई भाव नहीं दिया जा रहा। पंजाब में पराजित होने के बाद अकालियों की राजग में कोई खास वुक्कत नहीं रह गई जबकि नीतीश कुमार का जनता दल (यू) दोगली भाषा बोलता है। पार्टी के मुख्य महासचिव के.सी. त्यागी हर मौके पर भाजपा का समर्थन करते हैं जबकि राष्ट्रीय महासचिव पवन वर्मा भाजपा का विरोध करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते। 

पूर्वोत्तर में राजग समर्थक नार्थ ईस्ट डैमोक्रेटिक एलायंस (नेडा) के अनेक सदस्य नागालैंड, मेघालय और मणिपुर में अगले कुछ सप्ताह में होने वाले विधानसभा चुनावों में किसी न किसी हद तक स्वतंत्र रूप में लड़ रहे हैं। चुनाव के बाद ही पता चलेगा कि वहां किस तरह के गठबंधन बनेंगे। इन बातों में से कोई भी शुभ शगुन नहीं है और इस स्थिति के लिए यह सिवाय खुद के, अन्य किसी को दोष नहीं दे सकती। सत्ता मद या लापरवाही के कारण राजग सहयोगियों के साथ संबंधों को कमजोर करके भाजपा ने विपक्ष को पैर जमाने का बहाना उपलब्ध करवाया है। इसी बीच कांग्रेस अध्यक्ष  राहुल गांधी ने अपने पत्ते बहुत मुस्तैदी से खेले हैं। 

उन्होंने दिसम्बर 2017 के विधानसभा चुनावों में गुजरात में भाजपा को कड़ी टक्कर देने के लिए ओ.बी.सी. और पटेल समुदाय का जाति आधारित गठबंधन खड़ा कर दिया और खुद को एक बहुत संजीदा चुनावी प्रचारक के रूप में स्थापित कर लिया। उन्होंने विदेशी नेताओं और एन.आर.आइज के साथ आदान-प्रदान बढ़ाकर अपनी ग्लोबल प्रोफाइल को चार चांद लगा दिए। उन्होंने प्रधानमंत्री को चिढ़ाने के लिए एक युवा और तेजतर्रार मीडिया हस्ती की सेवाएं हासिल कर ली हैं। बेशक कभी-कभी मोदी को चिढ़ाने का काम गलत ढंग से भी होता है परंतु अक्सर इसका प्रभाव अच्छा ही होता है। राहुल का सबसे महत्वपूर्ण हथकंडा था मंदिरों के दर्शन करके खुद को श्रद्धावान हिंदू के रूप में प्रोजैक्ट करना। वह अनुवांशिक अर्थों में कई नस्लों का सुमेल हैं जो कि आज के ग्लोबलीकृत संसार में बहुत लाभ की बात है लेकिन राहुल के लिए हितकर बातों की सूची यहीं समाप्त हो जाती है। 

भारत में विपक्षी एकता का इतिहास कभी भी खुशियों भरा नहीं रहा। 1996-98 दौरान देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व वाली दोनों संयुक्त मोर्चा सरकारें कांग्रेस द्वारा ही गिराई गई थीं। हालांकि प्रारम्भ में इसने दोनों को ही बाहर से समर्थन दिया था। सोनिया गांधी द्वारा 10 जनपथ में बुलाई गई 19 पाॢटयों की मीटिंग में से मायावती की अनुपस्थिति बहुत गहरे अर्थ रखती है। वैसे तो ममता बनर्जी ने भी इस मीटिंग में हिस्सा नहीं लिया था लेकिन विपक्ष के साथ एकजुटता दिखाने के लिए उन्होंने कम से कम डैरेक ओ ब्रायन जैसे बातूनी को तो भेज ही दिया था। ओ ब्रायन ने सोनिया गांधी का मूड खराब करने का कोई मौका नहीं जाने दिया और कह दिया कि राहुल की बजाय ममता बनर्जी ही विपक्ष का चेहरा होनी चाहिएं। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा : ‘‘यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि 2019 के चुनावी अभियान का नेतृत्व किसी अनुभवी और किसी परखे हुए नेता के हाथ में होना चाहिए जोकि मुख्यमंत्री या केन्द्रीय मंत्री रह चुका हो।’’ राहुल इन दोनों ही खूबियों से खाली हैं। 

संख्या-बल का खेल 
ममता की तृणमूल कांग्रेस और मायावती की बसपा के बिना विपक्ष 2019 में सत्ता में नहीं आ सकता क्योंकि इन दोनों के बिना किसी भी तरह का गणित उन्हें जीत नहीं दिला सकता। 2019 में भाजपा को उत्तर प्रदेश में पहले जैसी जीत हासिल करने से रोकने का सबसे बेहतरीन दाव यही है कि बसपा, सपा और कांग्रेस तीनों मिलकर महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ें। यदि तीनों पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ती हैं तो भाजपा यू.पी. में लोकसभा की 60 सीटें आसानी से जीत सकती है लेकिन यदि भाजपा को गठबंधन का मुकाबला करना पड़ा तो वह 38-40 सीटों तक सिमट सकती है और केन्द्र में अगली सरकार बनाने के उसके प्रयास खटाई में पड़ जाएंगे। इसे भाजपा का सौभाग्य ही माना जाना चाहिए कि मुलायम और मायावती के बीच सीटों पर समझौता लगभग असम्भव दिखाई देता है। मायावती की तरह ममता भी अपनी मनमर्जी की मालिक हैं। 2019 में उनकी पार्टी लोकसभा की 30 से अधिक सीटें जीत सकती है। केन्द्र में किसी भी कांग्रेस नीत गठबंधन को सरकार गठित करने के लिए लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस के इन तीन सांसदों की जरूरत हर हालत में होगी। 

दो समस्याएं 
ऐसे में कांग्रेस को दो समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। अपने बूते पर यह लोकसभा की 80-90 सीटें जीत सकती है। इतनी कम संख्या के बूते लोकसभा में कोई भी जोड़-तोड़ करके 272 सांसद जुटाना उसके लिए व्यावहारिक रूप में असम्भव होगा। यदि राजग के वर्तमान सहयोगियों में से दलबदली करवा कर इस संख्या का जुगाड़ कर भी लिया जाए तो भी शायद राहुल को प्रधानमंत्री की कुर्सी ममता के हवाले करनी पड़ेगी। मोदी के चुनावी अभियान में यदि इस अकेली सम्भावना को जोर-शोर से प्रचारित कर दिया गया तो भाजपा के डावांडोल मतदाता फिर से मोदी के खेमे में आ जाएंगे। 

मोदी ने दावपेंच की दृष्टि से अनेक गलतियां की हैं। जब से उन्होंने पदभार सम्भाला है तब से नियमित रूप में संवाददाता सम्मेलन नहीं किए जा रहे जोकि किसी लोकतंत्र में अभूतपूर्व बात है। भाजपा के लोकसभा सांसदों में से बहुत भारी संख्या ऐसी है जो अपने हलकों के साथ-साथ संसद में भी प्रभावी सिद्ध नहीं हो पाए। मुठ्ठी भर मंत्रियों को छोड़कर मोदी के मंत्रिमंडल में प्रतिभा का अकाल पड़ा हुआ है। गुजरात में बेशक नौकरशाहों पर अधिक निर्भरता बहुत बढिय़ा सिद्ध हुई हो लेकिन केन्द्र में यह दाव उलटा पड़ा है। मोदी की दो सबसे बड़ी शक्तियां हैं चुनावी अभियान एवं नीतियों का कार्यान्वयन। मोदी की ढेर सारी सरकारी स्कीमें एकदम नवोन्मेषी हैं लेकिन इनका निष्पादन मोदी के लिए भी बहुत कठिन सिद्ध हुआ है। चुनावी अभियान चलाने के मामले में तो मोदी बेजोड़ हैं लेकिन शायद यह अकेली खूबी अब पर्याप्त नहीं होगी। देश आगे बढ़ चुका है। अब इसे भाषण की जादूगरी की बजाय कुछ ठोस चाहिए। शब्दों की जादूगरी और जुमलेबाजी के दिन अब पीछे रह गए हैं।-मिन्हाज मर्चैंट

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