‘हिंदू विकास दर’ का सच

Friday, Mar 10, 2023 - 06:21 AM (IST)

आखिर ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’ का सच क्या है? क्या यह जुमला है, अतिशयोक्ति है या इसके पीछे कोई गहरा षड्यंत्र है? हाल ही में राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय ने तीसरी तिमाही में वृद्धि दर का आंकड़ा प्रस्तुत किया, जोकि 4.4 प्रतिशत है। इसपर गत दिनों भारतीय केंद्रीय बैंक- आर.बी.आई. के पूर्व गवर्नर और अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने कहा, ‘‘भारतीय अर्थव्यवस्था खतरनाक ढंग से ‘हिंदू विकास दर’ के निकट पहुंच गई है।’’ यहां उनका कहने का आशय यह है कि हिंदुओं की सनातन मान्यताओं-परंपराओं के कारण भारतीय आर्थिकी में सुस्ती आई है। क्या वाकई ऐसा है? भारत की तुलना में शेष विश्व की स्थिति क्या है?

अकाट्य सत्य है कि 2020-21 के भयावह कोरोना कालखंड के बाद बीते एक वर्ष से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध और उस पर अमरीका के साथ पश्चिमी देशों की ओर से रूस पर थोपे गए दर्जनों प्रतिबंधों ने वैश्विक आपूर्ति शृंखला और आयात-निर्यात को प्रभावित कर दिया है। इन सब पर ‘अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष’  (आई.एम.एफ.) और ‘विश्व बैंक’ आदि वैश्विक संस्थाओं ने दुनिया में मंदी  आने और महंगाई बढऩे की आशंका व्यक्त की है। इस वर्ष जनवरी में संपन्न ‘विश्व आॢथक मंच’ (डब्ल्यू.ई.एफ.) सम्मेलन में ‘चीफ इकोनॉमिस्ट्स आऊटलुक: जनवरी 2023’ नाम से निष्कर्ष जारी किया गया था।

उसके अनुसार, ‘‘वैश्विक अर्थव्यवस्था भू-राजनीतिक तनाव के कारण बुरी तरह प्रभावित हो रही है। एक ‘मजबूत आम सहमति’ है कि 2023 में विश्व में- विशेषकर यूरोप और अमरीका में आॢथक विकास की संभावनाएं धूमिल हैं।’’  बढ़ती महंगाई पर डब्ल्यू.ई.एफ. ने यूरोप के लिए 57 प्रतिशत तक मूल्य वृद्धि का अनुमान जताया है। इस पृष्ठभूमि में रघुराम राजन, जोकि आर.बी.आई. गवर्नर (2013-16) और भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार (2012-13) से पहले आई.एम.एफ. सहित कई वैश्विक संस्थाओं के शीर्ष पदों पर रह चुके हैं- क्या अमरीका और यूरोपीय देशों में प्रतिकूल आर्थिक स्थिति के लिए ‘क्रिश्चियन रेट ऑफ ग्रोथ’ को जिम्मेदार ठहराएंगे, क्योंकि इन भू-क्षेत्रों में बहुसंख्यक ईसाई और शासकीय व्यवस्था में चर्च का गहरा प्रभाव है?

वामपंथियों द्वारा शासित चीन ने 5 मार्च को वित्तवर्ष 2023-24 के लिए 5 प्रतिशत आॢथक विकास का लक्ष्य निर्धारित किया है। इससे पहले चीन की आर्थिक वृद्धि केवल 3 प्रतिशत थी, तब उसने 5.5 प्रतिशत का लक्ष्य रखा था। सच तो यह है कि चीनी अर्थव्यवस्था को उसकी विफल कोरोना नीति ने झकझोर कर रख दिया है। क्या रघुराम राजन या उनके जैसे अन्य मानसबंधु, चीन में इस स्थिति को ‘कम्युनिस्ट रेट ऑफ ग्रोथ’ से जोड़ेंगे?

सच तो यह है कि वैश्विक उथलपुथल में भारत अपवाद नहीं हो सकता। फिर भी आई.एम.एफ. रूपी कई वैश्विक संस्थाओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर सकारात्मक पूर्वेक्षण प्रस्तुत किया है। आईएमएफ की प्रबंधक निदेशक क्रिस्टालिना जॉर्जीवा के अनुसार, ‘‘प्रतिकूल स्थिति के बाद भी वर्ष 2023 की वैश्विक आॢथकी में भारत की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत होगी।’’ यह ठीक है कि वैश्विक घटनाओं से भारत भी प्रभावित है और बढ़ती महंगाई ङ्क्षचता का विषय बनी हुई है। किंतु सतत प्रयासों और नीतिगत उपायों से तुलनात्मक रूप से भारत की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है।

ऐसे कई संकेत हैं, जो अपने भीतर उत्साह बढ़ाने वाले पहलुओं को समेटे हुए हैं। वर्ष 2022-23 में कुल निवेश का आंकड़ा, जी.डी.पी. के 34 प्रतिशत के बराबर पहुंच गया है, जो विगत एक दशक में सबसे उच्च है। शुद्ध राष्ट्रीय आय और शुद्ध कर संग्रह सतत बढ़ रहा है। मोदी सरकार पूंजीगत खर्च बढ़ाकर आधारभूत ढांचे को विकसित करने में जुटी है, जो आर्थिक गतिविधियों को गति देने के लिए मुख्य स्रोत की भूमिका निभा रहा है। डिजिटलीकरण भी अर्थव्यवस्था और सामाजिक दिनचर्या को व्यापक रूप से लाभान्वित कर रहा है, जिसका दूसरे देश भी अनुसरण करने की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं।

भारतीय डिजिटल भुगतान व्यवस्था ‘यू.पी.आई.’ को सिंगापुर द्वारा अंगीकार करना-इसका उदाहरण है। भारतीय कंपनियों के बहीखातों में पहले से अधिक सुधार हुआ है। आज भारतीय आर्थिकी किस प्रकार सुदृढ़ है, यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि अमरीकी शॉर्ट-सैलर ङ्क्षहडनबर्ग रिसर्च की विकृत रिपोर्ट ने अडाणी समूह और उसके निवेशकों को भारी क्षति अवश्य पहुंचाई हो, किंतु वह समूचे भारतीय बाजार को वैसा आघात पहुंचाने में विफल रहा है, जैसा वर्ष 2000 में अमरीकी डॉटकॉम बुलबुला फूटने से भारतीय बाजार दो सप्ताह में लगभग 5 प्रतिशत, तो 2001 में केतन पारेख प्रकरण से एक पखवाड़े में 13 प्रतिशत तक गिर गया था।

यह इसलिए संभव हुआ है, क्योंकि आज भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद, कई सुधारों के बल पर पहले से अधिक मजबूत है। वास्तव में, ‘हिंदू विकास दर’ शब्दावली भारत-हिंदू विरोधी मानसिकता से जनित है। जब 1947 में ब्रितानी उपनिवेशवादियों ने भारत छोड़ा, तो उन्होंने हमें जिहादियों और वामपंथियों के सहयोग से खंडित भौगोलिक अवस्था में राक्षसी गरीबी, कुपोषण, भुखमरी और संसाधनों के भीषण अभाव के बीच छोड़ दिया। रही सही कसर को पं.नेहरू की वामपंथ प्रेरित समाजवादी नीति ने पूरी कर दिया।

इससे भारत 1970-80 के दशक में गरीबी में धंसता चला गया और निम्न विकास दर से जूझता रहा। तब वर्ष 1978 में वामपंथी अर्थशास्त्री प्रोफैसर राजकृष्ण ने इसके लिए देश की सनातन संस्कृति को जिम्मेदार ठहराते हुए ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’  शब्द का सृजन किया। तत्कालीन भारतीय दुर्दशा-जहां टैलीफोन, सीमेंट, इस्पात, कार-स्कूटर से लेकर दूध, वनस्पति तेल आदि खाद्य वस्तुओं की घोर कालाबाजारी और उसके लिए लोगों की लंबी-लंबी पंक्तियां दिखती थी-उसके लिए प्रो.राजकृष्ण ने वाम-समाजवाद का आकलन करने के बजाय यह स्थापित करना चाहा कि हिंदुओं की सनातन मान्यताओं, परंपराओं और आबादी के कारण भारत आर्थक तंगी और गरीबी से अभिशप्त है।

किंतु एंगस-बैरॉच के अंतर्राष्ट्रीय आर्थक अध्ययनों ने वामपंथ के प्रणेता कार्ल माक्र्स और उनके प्रो.राजकृष्ण जैसे मानसपुत्रों के साथ मैक्स वेबर आदि के विचारों को पूरी तरह निरस्त करते हुए यह स्थापित कर दिया कि भारतीय संस्कृति और उसकी मूल जीवन पद्धति विश्वस्तरीय, शक्तिशाली और महान आॢथक-मॉडल का निर्माण कर सकती है। दुर्भाग्य से रघुराम राजन भी प्रो.राजकृष्ण की भांति भारत-हिंदू विरोधी घृणा प्रेरित दर्शन से ग्रस्त हैं। -बलबीर पुंज

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