भागवत के संदेश में है मंदिर-मस्जिद विवाद का हल

punjabkesari.in Saturday, Jun 04, 2022 - 06:03 AM (IST)

राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) प्रमुख मोहन भागवत का हालिया बयान देश के समक्ष मौजूद चुनौतियों में मार्गदर्शक है और सही मायनों में भारतीय जीवन दर्शन के अनुरूप सर्वधर्म समभाव व धार्मिक सहनशीलता को समृद्ध करता है। नागपुर में संघ के एक कार्यक्रम में उन्होंने धार्मिक स्थलों के विवादों को और तूल न देने की बात कही तथा कहा कि हर धर्म को अपनी आस्था के अनुरूप व्यवहार करने की सलाह दी है। 

भागवत ने साथ ही कहा है कि हर मस्जिद में शिवलिंग की तलाश न करें। इतिहास के दुखद अध्याय अपनी जगह हैं और हम इतिहास को बदल नहीं सकते। यह भी कि रोज नए विवाद का मुद्दा न लाया जाए और ज्ञानवापी मुद्दे पर कोर्ट के फैसले का सम्मान करें। मौजूदा वक्त में जब राजनीति हिंदू-मुस्लिम विवाद को हवा देने की कुत्सित चालें चल रही है तो हिंदू समाज के प्रतिनिधि संगठन के प्रमुख का बयान एक प्रगतिशील सोच का वाहक है। 

दरअसल अयोध्या में 500 वर्ष पुराने रामजन्म भूमि विवाद के निपटने के बाद आज काशी व मथुरा यानी कृष्ण जन्म भूमि के साथ-साथ कुतुबमीनार, ताजमहल, भोजसाला, अजमेर शरीफ सहित अन्य धार्मिक स्थलों के मुद्दे गर्मा गए हैं। आज सबसे बड़ा ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा उठा हुआ है। 

जब रामजन्म भूमि का मुद्दा गर्म था तो पी.वी. नरसिम्हाराव की सरकार ने 1991 में एक कानून पास करके सारे विवादों को खत्म करने का प्रयास किया जिसके अनुसार 15 अगस्त 1947 को धार्मिक स्थलों की जो स्थिति थी, उसे यथास्थिति में रखा जाए। आज देश में साम्प्रदायिकता उफान पर है। विवाद के ये मुद्दे स्थिति को और जटिल बना देंगे। 

क्या हम 1992 के दशक के उथल-पुथल वाले दौर में प्रवेश कर रहे हैं? उस समय खाई इतनी चौड़ी नहीं थी व साम्प्रदायिक नफरत भी कम थी। इसमें कोई दोराय नहीं कि मुस्लिम शासकों द्वारा हिंदुओं के मुख्य तीन धार्मिक स्थलों के अलावा हजारों मंदिरों को तोड़ कर हिंदू समाज का मनोबल गिराने के लिए मस्जिदें बना दी गईं। 

कुछ लोगों का दावा है कि लगभग 40,000 मंदिरों को तोड़ कर मस्जिदें बना दी गई थीं। इसकी वजह से देश के हिंदू समुदाय में सदियों से गम व गुस्से का संचार रहा है। यह रामजन्म भूमि पर फैसले के बाद और भी मुखर हो गया। 21वीं सदी में यदि अफगानिस्तान में तालिबानियों द्वारा बुद्ध की मूर्ति को तोडऩे से इस बात को बल मिलता है कि मध्य युग में भी मंदिर को तोड़ा गया होगा। आज भी पाकिस्तान में व कुछ हद तक बंगलादेश में मंदिरों को तोड़ा जा रहा है और मूर्तियों को खंडित किया जा रहा है। पाकिस्तान के कस्बों व गांवों में कोई भी मंदिर सुरक्षित नहीं है। यहां तक कि कश्मीर में भी यही स्थिति है। 

राम मंदिर आंदोलन के समय लाल कृष्ण अडवानी व अशोक सिंघल ने सुझाया था कि अगर मुस्लिम समाज राम मंदिर के साथ-साथ मथुरा व काशी में स्थित मस्जिदों को दे दे तो आगे इस तरह की मांग नहीं करेंगे। वैसे तो मुस्लिम समाज इस बात को मानेगा नहीं और अगर मान भी जाए तो भारत में सह-अस्तित्व की नई शुरूआत हो सकती है। इस समस्या का पहला समाधान है कि 1991 में जो कानून पारित किया गया था उसको निष्ठा से लागू किया जाए। साथ ही जो धर्म स्थान जिस रूप में 1947 में थे उनमें किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ न की जाए। यदि ऐसा करना संभव न हो तो सुप्रीमकोर्ट की बड़ी पीठ इस कानून की समीक्षा करे। आज की परिस्थिति में पहले की स्थिति की संभावना नहीं है। वहीं दूसरी ओर आज भी अदालत पर आम जन का विश्वास है व यही एक सही रास्ता दिखता है। 

क्या राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं सरकार सहन कर पाएगी? वहां भी प्रतिक्रिया होगी जहां हिंदू अल्पसंख्या में हैं। पाकिस्तान व बंगलादेश में मुस्लिमों द्वारा जो प्रतिक्रिया होगी उसके दुष्परिणाम का क्या सरकार को आभास नहीं है। अगर हमने सौहार्दपूर्वक इस समस्या का हल नहीं किया तो इसका दुष्परिणाम आने वाली पीढिय़ों को भुगतना पड़ेगा व दोनों समुदायों के बीच की खाई और चौड़ी हो जाएगी। 

नि:संदेह इतिहास का इस्तेमाल राजनीतिक दलों द्वारा अपने स्वार्थ के लिए नहीं करना चाहिए। विडम्बना यह है कि भाजपा के विरोध में विपक्षी पार्टियां लामबंद होकर भाजपा का विरोध करते-करते ङ्क्षहदुओं का भी विरोध करने लगती हैं। चाहे हिंदू पक्ष ठीक ही क्यों न हो। आज राम मंदिर बन रहा है कोई भी दल विरोध नहीं कर रहा। परन्तु पहले भाजपा को छोड़ कर हर दल राम मंदिर के मुद्दे पर ङ्क्षहदुओं की भावनाओं के साथ नहीं खड़ा था। 

आर.एस.एस. राष्ट्रीय निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है। उसका प्रभाव व्यापक रूप से हिंदू समाज व वर्तमान शासक दल पर भी है। उसे व्यापक राष्ट्रहित में समाधान खोजना चाहिए। विभिन्न राजनीतिक दल व मुस्लिम संगठन, जिनका प्रभाव मुस्लिम समाज पर है, वे भी अपने प्रभाव का प्रयोग करते हुए इस समस्या का समाधान खोजे। तत्कालीन कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव द्वारा विपक्ष के नेता वाजपेयी जी को राष्ट्रहित में पक्ष रखने के लिए भेजना व वाजपेयी जी द्वारा राष्ट्रहित की बात रखना सभी राष्ट्रीय दलों के लिए एक उदाहरण है।-अनिल गुप्ता ‘तरावड़ी’
 


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