मूर्तियां तोड़ने वाले भारत के गौरव को ठेस पहुंचा रहे हैं

Wednesday, Mar 14, 2018 - 03:42 AM (IST)

मूर्तियां तोडऩे वालों को महमूद गजनी, मोहम्मद गौरी, अहमद शाह अब्दाली, तैमूर लंग या बाबर को बुरा कहने का अधिकार नहीं। बाबर ने मंदिर तोड़ मस्जिद बना ली,भारत आज तक उसे माफ नहीं कर रहा। सोमनाथ का मंदिर तोडऩे वाले गजनी-सुल्तान को इतिहास में काले अक्षरों में याद किया जाता है। 2001 में अफगानिस्तान के शहर बमियान में स्टैंडिंग बुद्धा की प्रतिमाएं तोडऩे वाले तालिबानों को विश्व भर के नेताओं ने लानतें भेजी थीं।

यू.पी. में मायावती ने हाथियों की मूर्तियां बना डाली थीं, तब समाजवादी पार्टी ने आसमान सिर पर उठा लिया था। वे मूर्तियां तोड़ें तो बुरे और हम तोड़ें तो देशभक्त। न्याय के दो-दो सूत्र क्यों? यदि बुतशिकन बाबर पापी था तो आज जो मूर्तियां तोड़ रहे हैं उन्हें क्या कहें? आज जो लोग लेनिन, महात्मा गांधी, तमिलनाडु में ई.बी. रामास्वामी (पेरियार), बंगाल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमाओं को तोडऩे में लगे हैं उनमें बाबर की रूह तो नहीं आ गई? चलो, पहले तो मेरे जैसे व्यक्ति को पता ही नहीं था कि त्रिपुरा जैसे राज्य में लेनिन की प्रतिमाएं लगाई गई हैं। 

यकीनन लेनिन भारतीय संस्कृति, सभ्यता का प्रतीक नहीं हो सकता, पर त्रिपुरा में 25 साल तक वामपंथी विचारधारा वालों का राज रहा यानी एक लंबी अवधि तक त्रिपुरा में कम्युनिस्टों का राज रहा। कम्युनिस्टों के आराध्य कार्लमाक्र्स, लेनिन, स्टालिन और माओ त्से तुंग रहे हैं। त्रिपरा में कम्युनिस्टों ने सोचा हमारी तो सत्ता सदैव रहने वाली है, अत: क्यों न अपने आराध्य लेनिन की प्रतिमाएं लगा लें? यहीं वे मात खा गए। कम्युनिस्ट भारत की धरती से जुड़े ही नहीं। यदि वे भारतीय होने में गर्व करते तो भगवान राम, भगवान कृष्ण की प्रतिमाएं लगाते। उनकी निष्ठाएं कहीं और थीं। उन्हें 25 साल त्रिपुरा जैसे राज्य की सत्ता पर रहने का अभिमान हो गया। 

उन्होंने लेनिन की प्रतिमाएं लगा दीं। सही भी है, जिसका राज, उसी की विचारधारा की भी जय। पर मिथक टूट जाते हैं। यकीनन कम्युनिस्टों ने लेनिन की मूर्तियां लगाकर ठीक नहीं किया था पर उससे भी बड़ा पाप उन्होंने किया जिन्होंने तालिबानी सोच पर चल कर लेनिन की मूर्तियों को बुल्डोजर लेकर तोड़ दिया। बात आगे बढ़ी तो तालिबानी सोच ने महात्मा गांधी, पेरियार, बाबा भीमराव अम्बेदकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमाओं को तोडऩे में अपनी शान समझी। गलत, सब कुछ गलत। यह तो देश की बाहुल्यवादी संस्कृति को तोडऩे का षड्यंत्र है। देश को अस्थिर करने की साजिश है। जनभावनाएं भड़काने की तैयारी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कमजोर करने की लहर है, जिसे सख्ती से सरकार को दबा देना चाहिए। मूर्तियां तोडऩे, बनाने, हटाने, लगाने का अधिकार सरकार का है। जनता स्वयं मूर्तियां नहीं तोड़ सकती। इससे तो अराजकता फैल जाएगी। मूर्तियां तोडऩे वाले भारत की एकता-अखंडता को तोड़ रहे हैं। 

मूर्तियां तोडऩे वालो मूर्तियां युग पुरुषों, युग प्रवत्र्तकों, आदर्श मानवों की लगाई जाती हैं ताकि भावी पीढिय़ां उनसे प्रेरणा ग्रहण कर सकें। भले ही लेनिन ने हजारों-लाखों लोगों का साम्यवाद के नाम पर संहार किया, पर जो काम लेनिन ने 1917 की रूसी क्रांति के समय गरीब किसानों के हित में किया, वहां का किसान उनका ऋणी है। रूस में लेनिन ने सदियों से प्रताडि़त नारी को पुरुष के बराबर लाकर खड़ा कर दिया। महात्मा गांधी जैसा महापुरुष तो हजारों सालों में पैदा होता है। उन्होंने दुनिया को अहिंसा, सत्य और सत्याग्रह जैसे शस्त्र अन्याय के विरुद्ध लडऩे के लिए दिए। तमिलनाडु में ई.बी. रामास्वामी, पेरियार ने समाज के दबे-कुचले, सदियों से प्रताडि़त दलितों की आवाज को बुलंद किया। यद्यपि मैं निजी तौर पर पेरियार की उच्च वर्ग के प्रति फैलाई घृणा का समर्थक नहीं। 

बाबा साहिब भीमराव अम्बेदकर की देन तो हम भुला न पाएंगे। उन्होंने संविधान निर्माता की भूमिका निभाई। दलितों के उद्धार को अपना ध्येय बनाया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो इस देश की एकता-अखंडता के लिए शहीद हो गए। उन्होंने तो एक नया नारा ही लोगों को दे दिया। एक देश में ‘दो विधान-दो निशान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे’। श्रीनगर की जेल में शहीद हो गए। मूर्तियां तोडऩे वाले इन महान व्यक्तियों की मूर्तियां भले ही तोड़ लेंगे, पर ऐसे महान विचारकों की विचारधाराओं को इतिहास से मिटा नहीं सकेंगे। मुझे शक है कि ये मूर्ति भंजक कल कहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री, जवाहर लाल नेहरू या अन्य आदर्श मानवों की मूर्तियां तोडऩे न दौड़ पड़ें। अत: नरेंद्र मोदी से प्रार्थना है, ऐसे तत्वों को सख्ती से कुचल दें। मूर्ति तोडऩे वाले भारतीय जनता पार्टी के हितैषी नहीं, भले ऐसे तत्व भारत माता की जय के नारे लगाते जाएं। 

उन्हें भारत माता की विशालता और उदारता का ज्ञान ही नहीं। भारत माता ग्रामवासिनी, इसके खेतों में फैला है श्यामलु। इसकी मिट्टी से बनी प्रतिमा सुहासिनी। इसके आंचल में कम्युनिस्ट भी पनाह लिए हैं, संघ का कार्यकत्र्ता भी इस भारत माता की शान है। कांग्रेस भी इस भारत मां पर सांझा अधिकार रखती है। मुसलमान भी भारत मां का अंग हैं और हिंदू भी। इसी भारत माता की छाती पर सभी राजनीतिक पार्टियां फल-फूल रही हैं। यह भारत माता विभिन्न संस्कृतियों, सभ्यताओं, भाषाओं, पहरावों, प्रांतों की जननी है। बाहुल्यता इसका शृंगार है। सबने मिलकर इसको संवारा है। 

फिर इसमें बुतशिकनी, बुतपरस्ती कोई अर्थ नहीं रखती। लड़ाई बुत तोडऩे के लिए न हो, विचारधारा से लडऩे की हो। नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा है कि हमारी यह लड़ाई विचारधारा की लड़ाई है, बुत तोडऩे या बनाने की नहीं। जिस विचारधारा में दम होगा, टिकी रहेगी। जिस दीए में तेल नहीं होगा, बुझ जाएगा। बुतों को तोडऩे से विचारधारा का विकास नहीं होगा। दिखावे के लिए ‘भारत माता की जय’ न हो। हम अपने कार्यों और अच्छी सोच से भारत माता की जय करें। सभी राजनीतिक दल अपने-अपने कार्यकत्र्ताओं की लगामें कसें कि मूर्तियां तोड़ कर तालिबानी न बनें। अपने देश की अस्मिता का एक बिंदु यह भी है कि हम सहनशील बनें। अपने विरोधी को भी सम्मान दें। प्रतिमाएं तोडऩे में क्या बहादुरी?

देश की रक्षा करते-करते शहीद होने वाले सैनिकों के बुतों का सम्मान-राष्ट्र सम्मान है। हमारे बुल्डोजर गरीबी, भुखमरी, अनपढ़ता और अंधविश्वासों पर चलें। हमारी कुदाल खेतों में अन्न पैदा करने में चले। तारकोल सड़कों की मुरम्मत पर बिछे न कि महान पुरुषों के बुतों के मुंह पर फैंक दिया जाए। बुत भंजको रुको, हथौड़े का रुख आतंकवाद की ओर मोड़ो। क्यों बाबर बन रहे हो? क्यों तालिबानों के कुकृत्यों को जायज ठहरा रहे हो? मूर्तियां तोडऩे वाले अपने-अपने हाथ नीचे करें। हमारी संस्कृति सबको ग्रहण करने की है। सबको सहने की संस्कृति है। रुको और देश को आगे लेकर चलो। वातावरण कलुषित न करो। ईश्वर हमें सद्बुद्धि दे।-मा. मोहन लाल 

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