‘राष्ट्र की आत्मा’ को खंडित करना चाहता है संघ परिवार

Thursday, Oct 04, 2018 - 05:04 AM (IST)

‘आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मुस्लिम विरोधी कहें तो समझ आता है लेकिन इसे राष्ट्र विरोधी कैसे कह सकते हैं? आप लोग नाहक ही संघ से घृणा करते हैं।’ मुझे समझ आ गया। जरूर अंकल ने कल रात मुझे टी.वी. पर देखा होगा, जब मैं संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत जी के विज्ञान भवन के भाषणों पर टिप्पणी कर रहा था। 

‘‘अंकल आपने मेरी बात ठीक समझी लेकिन उसके पीछे कोई घृणा या गलतफहमी नहीं है। मैंने संघ को बहुत नजदीक से देखा है। संघ के प्रचारक आमतौर पर सज्जन और ईमानदार लोग होते हैं। संघ के कार्यकत्र्ता के बारे में मेरी यही राय है जो कम्युनिस्टों और पुराने जमाने के समाजवादियों के बारे में है, यानी कि किसी सामान्य राजनीतिक कार्यकत्र्ता की तुलना में ये लोग ज्यादा ईमानदार और आदर्शवादी होते हैं। अपनी समझ के हिसाब से वे अक्सर राष्ट्रहित के लिए समर्पित भी होते हैं। मैं जानता हूं कि संघ के स्वयंसेवकों ने कई बार प्राकृतिक आपदा या राष्ट्रीय संकट में सकारात्मक भूमिका निभाई।’’ बुजुर्ग कुछ आश्वस्त हुए। ‘मुझे लगा था कि आप सही बात को सही कहेंगे। तो फिर आप संघ को राष्ट्र विरोधी क्यों कहते हैं?’ 

‘क्योंकि राष्ट्र का हित या अहित सिर्फ किसी व्यक्ति की अपनी समझ पर निर्भर नहीं करता। आमतौर पर नक्सली लोग भी आदर्शवादी होते हैं और सोचते हैं कि वे गरीबों का कल्याण कर रहे हैं। लेकिन वास्तव में वे जिस तरह की ङ्क्षहसा करते हैं उससे गरीबों का ही सबसे ज्यादा नुक्सान होता है। इसी तरह से संघ के लोग सोचते होंगे कि वे राष्ट्र का हित कर रहे हैं लेकिन उनके विचार और कर्म से दरअसल राष्ट्र का अहित हुआ है।’ अंकल बोले ‘‘यह बात मैं पहली बार सुन रहा हूं। जिस संगठन का अतीत राष्ट्र भक्ति से भरा हो...।’’ 

उनकी बात पूरी होने से पहले ही मैंने टोका: ‘‘अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अतीत की बात मत कीजिए अंकल। संघ की स्थापना 1925 में हुई थी लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन में इस संगठन ने उंगली भर भी योगदान किया हो तो मुझे बताइए। आप दिखाइए संघ के कितने स्वयंसेवक देश की आजादी के लिए शहीद हुए, कितने संघ के आह्वान पर जेल गए? अगर आप ‘वीर’ सावरकर की सोच रहे हैं तो आपको पता है कि वह काले पानी की सजा से वायसराय से दया की भिक्षा मांग कर बाहर निकले थे? बाहर आने के बाद अंग्रेजों की शर्तों के अनुसार और उनके वजीफे पर गुजारा करते थे। आप जानते हैं कि जब सारा देश सन् बयालीस के ‘‘करो या मरो’’ के संघर्ष में जुटा था, उस वक्त श्यामा प्रसाद मुखर्जी अंग्रेज सरकार का सहयोग कर रहे थे। इतना तो आपको पता ही होगा कि नाथूराम गोडसे एक समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक रहा था और गांधी जी की हत्या के समय इसी विचार से जुड़े संगठनों से उसका संबंध था। तभी गांधी हत्या के बाद सरदार पटेल ने संघ पर पाबंदी लगाई थी।’’ 

मेरे इस तीखे जवाब से अंकल चौंक गए। फिर संभलते हुए बोले ‘आपकी बातें सुनकर मैं हैरान हूं। अगर और कोई बोलता तो मुझे विश्वास नहीं होता लेकिन आप अक्सर तथ्यों की जांच के बाद ही बोलते हैं, इसलिए मान लेता हूं। लेकिन यह सब तो आजादी से पहले की बात है न। अब वेे गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ें?’ ‘चलिए हम आजादी के बाद की बात करते हैं। जो संगठन राष्ट्रीय एकता के पवित्र प्रतीकों में विश्वास न करे उसे आप क्या कहेंगे? आजादी के बाद भी संघ ने तिरंगे झंडे को नहीं माना। अपनी शाखा और अपने मुख्यालय पर तिरंगे को नहीं फहराया। सिर्फ भगवे ध्वज की जिद की। संघ ने ‘‘जन गण मन’’ की अवमानना की, इसे अंग्रेजी सत्ता का प्रतीक बताया। यही नहीं, संघ के प्रमुख और विचारकों ने बार-बार भारतीय संविधान की खिल्ली उड़ाई, उसे विदेशी आयात बताया। संविधान के मूल आदर्शों जैसे समाजवाद, संघीय ढांचा, सैक्युलरवाद और लोकतंत्र से संघ की असहमति रही है।’’ 

यहां अंकल को रोकने का मौका मिला। बोले, ‘‘आपने नहीं पढ़ा कि मोहन भागवत जी ने कहा है कि वे संविधान में विश्वास करते हैं?’’ अब मेरी बारी थी:  ‘आप भी क्या बात करते हैं अंकल!  जिस संगठन के प्रमुख को आजादी के 70 साल बाद भी यह स्पष्ट करना पड़े कि उसकी संविधान में आस्था है, उसके राष्ट्रवाद के बारे में आप क्या कहेंगे? आजादी के बाद से भारत राष्ट्र निर्माण के बहुत कठिन दौर से गुजरा। विभाजन की विभीषिका से गुजरे इस देश की चुनौती थी कि स्वतंत्र भारत को इस आग से कैसे बचाया जाए? उस दौर में संघ परिवार ने आग बुझाने की बजाय आग में घी डालने का काम किया। क्या यह राष्ट्रवाद के लक्षण हैं या देशद्रोह के? आज हमारी राष्ट्रीय एकता को अनेक चुनौतियां हैं। 

तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच व पंजाब और हरियाणा के बीच नदी पानी का विवाद है। मुंबई और बेंगलुरू में प्रवासियों के विरुद्ध घृणा फैलाई जाती है।  कई इलाकों में भाषायी और जातीय तनाव है। आप ही सोचिए किसी राष्ट्रवादी की प्राथमिकता इन सवालों को सुलझाना नहीं होनी चाहिए? संघ इन सवालों पर मौन क्यों रहता है? सिर्फ तभी क्यों बोलता है जब हिंदू-मुसलमान का सवाल आता है?’ उनके जवाब का इंतजार किए बिना मैं आगे बढ़ता गया: ‘अंकल, असली दिक्कत संघ परिवार की राष्ट्र की अवधारणा में है। ये लोग बाकी सब को विदेशी बताते रहते हैं। सच तो यह है कि संघ की विचारधारा पूरी तरह विदेशी है, भारतवर्ष के लिए अनुपयुक्त है। एक राष्ट्र में सांस्कृतिक एकरूपता हो, यह भारतीय विचार नहीं है।  यह विचार तो जर्मनी से उधार लिया गया है। 

यूरोप की इस राष्ट्रवाद की समझ के चलते यूरोप में न जाने कितना खून-खराबा हुआ। भारतीय राष्ट्रवाद ने कहा कि हमें एक राष्ट्र होने के लिए एक रूप होने की जरूरत नहीं है। भाषा, नस्ल और धर्म की विविधता में ही हम राष्ट्रीय एकता का निर्माण करेंगे। शुरू में यूरोप के लोग भारतीय राष्ट्रवाद के इस विचार की खिल्ली उड़ाते थे  लेकिन आज भारत ने दिखा दिया है कि विविधता के संग एक राष्ट्र बनाया जा सकता है। आज पूरी दुनिया भारत के राष्ट्रवाद के मॉडल से सीखना चाहती है, संघ वाले सावरकर की  ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ की रट नहीं छोड़ते। बेचारे यूरोप के घिसे-पिटे विचारों से आज भी चिपके हुए हैं।’ ‘इसलिए संघ के विचारों को मैं भारतीय राष्ट्र के लिए सबसे खतरनाक मानता हूं। पृथकतावादी देश के शरीर को खंडित करना चाहते हैं। वामपंथी उग्रवादी देश की शक्ति को खंडित करना चाहते हैं लेकिन संघ परिवार तो राष्ट्र की आत्मा को खंडित करना चाहता है। संघ का विचार तो भारत के स्वधर्म पर हमला है।’-योगेन्द्र यादव
 

Pardeep

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