गुंडों के राज का संविधान में इलाज

punjabkesari.in Wednesday, Apr 07, 2021 - 01:36 AM (IST)

60 साल पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस मुल्ला ने एक फैसले में कहा था कि पुलिस अपराधियों का सबसे बड़ा संगठित गिरोह है। बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले और कई अन्य घटनाक्रमों से लगता है कि चीजें बद से बदत्तर हुई हैं। एक निरपराध व्यक्ति विष्णु तिवारी को बगैर अपराध के 20 साल तक जेल में रहना पड़ता है। जबकि कुख्यात अपराधी और बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी को बचाने के लिए पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बड़े-बड़े वकील खड़े कर दिए।

30 साल पहले उत्तर प्रदेश में एक बस कंडक्टर ने 78 बस यात्रियों से टिकट के 1638 रुपए वसूलने के बाद उन्हें सरकारी खजाने में जमा नहीं किया। सन 2016 में अपने फैसले से सुप्रीमकोर्ट ने इसे भारी भ्रष्टाचार का मामला बताते हुए,सरकारी नौकरी से कंडक्टर की बर्खास्तगी पर मोहर लगा दी। महाराष्ट्र में अब सौ करोड़ के हफ्ता वसूली के संगठित तंत्र उजागर होने के बावजूद, पिछले 2 महीनों से पुलिस में एफ.आई.आर. भी दर्ज नहीं हो पाई। बॉम्बे हाईकोर्ट ने 52 पेज के विस्तृत फैसले में कहा कि जजों ने इस तरह का मामला पहले कभी नहीं देखा और न ही सुना।

कोर्ट ने सी.बी.आई. से मामले की प्राथमिक जांच करने को कहा है। एक तरफ से देश में मास्क नहीं पहनने पर लोगों को तुरंत जेल भेजा जा रहा है, दूसरी तरफ इस मामले के अधिकांश आरोपियों को सबूत नष्ट करने का समय दिया जा रहा है। सियासी दलों के विरोधाभास और देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने अम्बानी की सुरक्षा में चूक की वजह से यह मामला मीडिया की सुर्खियों में है। लेकिन संविधान के साथ छल और देश के साथ द्रोह करने वाले आरोपियों को कब, कैसे और कितनी सजा मिलेगी इस पर आम जनता में उहापोह और अविश्वास की स्थिति बनी हुई है।

अदालती आदेशों का घनचक्कर : पहले राऊंड में जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आया तो जजों ने पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह को काफी फटकार लगाई। बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी परमबीर सिंह के आचरण पर कई सारे सवालिया निशान खड़े किए। उन्होंने ट्रांसफर होने तक चुप्पी क्यों साधे रखी? राजनीतिक दबाव के बावजूद वाजे की बहाली क्यों हुई और उसे मुंबई पुलिस का किंग क्यों बनाया गया? रश्मि शुक्ला की एक साल पुरानी रिपोर्ट और ट्रांसफर रैकेट के भ्रष्ट तंत्र पर परमबीर ने पहले आवाज क्यों नहीं उठाई? अपराध की पूरी जानकारी होने के बावजूद उन्होंने एफ.आई.आर. क्यों नहीं लिखवाया? इन सारे सवालों की हाईकोर्ट के फैसले में विस्तार से चर्चा है।

इससे यह भी जाहिर है कि परमबीर सिंह दूध के धुले नहीं हैं और न ही वह व्हीसलब्लोअर हैं? क्या वह खुद को बचाने के लिए अब दूसरों को फंसाने का औजार बन गए हैं। इन सारी बातों पर फैसला देने की बजाय हाईकोर्ट ने उनकी याचिका को शुरूआती दौर पर ही डिस्पोज कर दिया। हाईकोर्ट ने जिस वकील की याचिका पर सी.बी.आई. की प्रारंभिक जांच के आदेश दिए हैं, उस मामले में मालाबार हिल थाने से पुलिस डायरी अदालत में मंगाई गई। ललिता कुमारी मामले में सुप्रीमकोर्ट के फैसले के अनुसार गंभीर अपराध के मामलों में एफ.आई.आर. दर्ज करना जरूरी है। तो फिर इस मामले में ढिलाई के लिए अदालत ने दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई क्यों नहीं की?

अदालत के फैसले में ऐसे अनेक विरोधाभासों के आधार पर पूर्व गृहमंत्री अनिल देशमुख सुप्रीमकोर्ट से राहत लेने की कोशिश करेंगे। इसके लिए महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की है। इन सब बातों से ऐसा लगता है कि लम्बी अदालती लड़ाई और तर्कों के दांव-पेच के बीच संविधान और देश के द्रोही, कानून के शिकंजे से बच निकलने का रास्ता निकाल ही लेंगे।

कई तरह की जांचों से बच निकलेंगे आरोपी : हाईकोर्ट के फैसले से साफ है कि एक वकील की शिकायत के बावजूद मुंबई पुलिस ने इस मामले में न ही कोई प्रारंभिक जांच की और न कोई कार्रवाई की। सुप्रीम कोर्ट में मामला आने के एक दिन पहले 30 मार्च को महाराष्ट्र सरकार ने पूर्व जज की अध्यक्षता में एक न्यायिक जांच समिति बना दी। अदालती फैसले के पैरा 12 से साफ है कि इस समिति का  जांच आयोग कानून 1952 के तहत गठन नहीं हुआ, इसलिए इसकी रिपोर्ट सार्वजनिक होना जरूरी नहीं होगा। इस समिति का कार्यकाल 6 महीने का है जबकि हाईकोर्ट ने सी.बी.आई. को 15 दिन के भीतर अपनी प्रारंभिक जांच रिपोर्ट देने के लिए कहा है।

न्यायिक जांच समिति और सी.बी.आई. के अलावा इस मामले में केंद्र्र सरकार की एन.आई.ए. और ई.डी. भी जांच कर रही है। इसके अलावा महाराष्ट्र सरकार की ए.टी.एस. जांच एजैंसी भी अपराध के विभिन्न पहलुओं पर जांच कर रही है। पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह ने पत्र लिखकर आरोप लगाया था कि तत्कालीन गृहमंत्री देशमुख सबूतों को नष्ट कर सकते हैं। इतनी सारी जांच एजैंसियों के रेलम-पेल में सबूत और गवाह सबसे पहले शहीद होंगे। सभी एजैंसियों की रिपोर्ट और कार्रवाई में विरोधाभास का फायदा आरोपियों को मिलेगा, जैसा कि देश के अधिकांश बड़े मुकद्दमों के हश्र से जाहिर है।

संविधान की रक्षा के लिए आरोपियों का नार्को टैस्ट हो : बॉम्बे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने कहा कि एक आला पुलिस अफसर ने खुले तौर पर एक मंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं। ऐसी हालत में अदालत मूकदर्शक नहीं बनी रह सकती। अदालत ने कहा कि संविधान ने कानून के शासन की परिकल्पना की है न कि राजनेताओं द्वारा समर्थित गुंडों के राज की। अदालत ने यह भी कहा कि इन आरोपों से पुलिस पर नागरिकों का भरोसा डगमगा गया है।

अदालत ने कहा कि संविधान पर जनता का भरोसा बरकरार रखने और नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए आरोपों पर स्वतंत्र जांच जरूरी है। पूर्व पुलिस कमिश्नर ने सबूतों को नष्ट करने का अंदेशा जताया है। संविधान के अनुसार मंत्रियों के विभागों के बारे में मुख्यमंत्री द्वारा फैसला लिया जाता है। लेकिन महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार में गृहमंत्री का फैसला एन.सी.पी. कोटे से शरद पवार द्वारा लिया जाता है। पवार ने अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि कोई भी कार्रवाई, सबूतों के आधार पर ही होगी। इस मामले में अफसरशाही और सरकार से जुड़े बड़े लोगों द्वारा लिखित आरोप लगाए गए हैं। उन्हें प्राथमिक  सबूत मानते हुए सभी आरोपियों का नार्को टैस्ट होना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट और अनुच्छेद 25 के तहत सुप्रीम कोर्ट को जनता के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए ऐसा आदेश पारित करने का अधिकार है।

राज्य सरकारों और केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के 15 साल पुराने प्रकाश सिंह के फैसले पर अभी तक अमल नहीं किया है। महाराष्ट्र मामले में अदालतों द्वारा आरोपियों के नार्को टैस्ट के लिए आदेश दिया जाए तो देश में पुलिस सुधारों का रास्ता साफ होगा।-विराग गुप्ता(एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट)

 


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