कांग्रेस की गिरती ‘साख’ और भाजपा की बढ़ती ‘विश्वसनीयता’

Wednesday, May 25, 2016 - 12:01 AM (IST)

5 विधानसभा चुनावों-असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुड्डुचेरी में ज्यादातर जगहों पर कांग्रेस की पराजय के लिए  बहाने को मेरे पास आंसू नहीं हैं। पार्टी काफी सदमे में होगी औरकारणों को ढूंढ रही होगी लेकिन वह अभी तक इस भ्रम से बाहर नहीं आई है कि इसकी मुख्य ताकत खानदानहै। अपने इस विश्वास को लेकर पार्टी इस कदर जुनून में थी कि चुनाव में लगाए गए पोस्टरों में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा की फोटो लगा ली थी जो हरियाणा में कांग्रेस के शासन के समय में हुए जमीन के सौदों में शामिल पाए गए हैं।

मुझे जिस पहलू को लेकर सबसे ज्यादा परेशानी है वह है भारतीय जनता पार्टी की सफलता। यह आगे बढ़ रही है। वास्तव में, सभी पांचों राज्यों में से जहां भाजपा ने बहुमत हासिल नहीं भी किया है, वहां भी इसका वोट प्रतिशत बढ़ा है। इसका मतलब इसकी विश्वसनीयता बढ़ रही है, घट नहीं रही है। ये संकेत खतरनाक हैं क्योंकि इसका मतलब है कि सैकुलरिज्म के समाप्त होने की घोषणा करने वाले हिन्दुत्व की ताकत बढ़ रही है। अगर भाजपा अपने सहारे होती तो उसकी हालत भी बाकी पार्टियों की तरह होती लेकिन भाजपा की देखरेख वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) कर रहा है जो अनेक पंथों वाले इस देश को हिन्दू राष्ट्र में बदलना चाहता है।

सैकुलरिज्म के मिजाज के खिलाफ जाने वाले इस गुण के बावजूद भाजपा आगे बढ़ रही है। ऐसा नहीं है कि स्वभाव से ही सहिष्णु भारतीय अपना बुनियादी गुण खो रहे हैं। इसका कारण है सरकार की हर गतिविधि में भ्रष्टाचार से लोग तंग आ गए हैं और भाजपा से कोई घोटाला या भ्रष्टाचार निकल कर सामने नहीं आ रहा है। कांग्रेस के पास मनमोहन सिंह सबसे बेहतरीन चेहरा थे। फिर भी उनके शासन में कॉमनवैल्थ गेम्स और कोयला ब्लॉकों जैसे घोटाले हुए। वास्तव में, ऐसा लगता है कि उन्होंने पार्टी को बेलगाम भ्रष्टाचार के लिए सबसे अच्छी आड़ दी। अब इस बात को साबित करने के पर्याप्त सबूत सार्वजनिक जानकारी में हैं कि अपने राजनीतिक सचिव अहमद पटेल की सलाह पर सोनिया गांधी ने पार्टी मशीनरी को चलाने और चुनाव लडऩे के लिए जितना धन जमा कर सकती थीं उतना किया।

सच है कि भाजपा की संकीर्णता के कारण कांग्रेस प्रासंगिक हो रही है लेकिन पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी का वह कद नहीं है जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का है। इसलिए अगले लोकसभा चुनावों में मोदी और राहुल के बीच चुनने का विकल्प लोगों के सामने रखा गया तो मोदी आराम से जीत जाएंगे। लोकसभा चुनाव में अभी भी 3 साल का समय है। भाजपा और गैर-कांग्रेसी दल आपस में एकजुट हो सकते हैं कि उनके वोट नहीं बंटे। उन्हें अपने नेता के बारे में तय करना पड़ेगा क्योंकि भारत के लोग भावी प्रधानमंत्री को वोट देते हैं, इसके बावजूद कि हम राष्ट्रपति शासन प्रणाली नहीं मानते हैं। राष्ट्रपति प्रणाली हमारे लिए ठीक होगी या नहीं, यह एक अलग प्रकार की बहस है।

सचमुच में एक चीज की व्यवस्था भाजपा ने कर ली कि असम में इसने अपनी जगह बना ली लेकिन मुख्य तौर पर सीमा पार से लोगों के आने को कांग्रेस की ओर से बढ़ावा दिए जाने के कारण यह हुआ है। तत्कालीन कांग्रेस नेता फखरूद्दीन अली अहमद खुले तौर पर कहते थे कि वे ‘‘अली’’ और ‘‘कुली’’ के वोट से चुनाव जीते हैं। वे मुसलमानों को अली और बिहार से आए मजदूरों को कुली बताते थे। अगर असम ‘‘बाहरी’’ लोगों का सवाल फिर से उठाता है तो ‘‘हजारों लोग इस श्रेणी में’’ आएंगे। हमने इस मामले पर पहले भी विचार किया है और बहुत लोगों को इस आधार पर बाहर भेजा। जब सिर्फ मुसलमानों को बाहर निकाला जाता है और किसी हिन्दू से सवाल भी नहीं किया जाता, तो समस्या एक साम्प्रदायिक मोड़ ले लेती। क्या भारत, जो अनेकतावादी और लोकतांत्रिक देश होने का दावा करता है, को ऐसा करना चाहिए? अगर वह ऐसा करता है तो क्या समाज को सैकुलर होने का दावा करना चाहिए?

कांग्रेस ज्यादा गिनती में नहीं है, कम से कम इस समय, तो कौन-सी पार्टी साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष का नेतृत्व कर सकती है। यह समाज  के सामने सवाल है। इसमें कोई शक नहीं है कि वामपंथी ताकतें इस बिन्दु पर बहुत प्रतिबद्ध हैं लेकिन लोग उन्हें स्वीकार नहीं कर रहे हैं। 65 साल से ज्यादा हो गए जब कम्युनिस्ट विचारक  ई.एम.एस. नंबूदरीपाद ने केरल में पहली कम्युनिस्ट सरकार बनाई थी, फिरभी पार्टी आगे नहीं बढ़ पाई। उस समय इसे चीन कायेनान शहर (चीन में कम्युनिस्ट  क्रांति का मुख्य केन्द्र) माना गया था, अब एक लम्बा सपना रह गया है। यह सच है कि नरेन्द्र मोदी का जादू पहले से कम हुआ है लेकिन यह अभी भी असर करता है। उनका भविष्य इस पर निर्भर करता है कि वह रोजगार देते हैं और किस हद तक लोगों का जीवन स्तर सुधारते हैं। सही है कि आर्थिक बेहतरी कट्टरपंथियों को आड़ देती है लेकिन वास्तविक विकास होना चाहिए, सिर्फ नारा नहीं, जो अभी की स्थिति है। यहां तक कि कट्टरपंथ में भी कमी लानी पड़ेगी। मोदी इसे समझते हैं और इसीलिए उन्होंने कोई ऐसा नीतिगत फैसला नहीं लिया है जिससे संकेत मिले कि देश ने सैकुलरिज्म के रास्ते को छोड़ दिया है।

जिस तरह वोट पड़े हैं और जिन जगहों पर भाजपा जीती है, वह निश्चित रूप से यह सिखाता है कि भाजपा ने गहरी जमी कांग्रेस की जड़ें उखाड़ दी हैं। इसका मतलब भाजपा की सफलता नहीं, बल्किकांग्रेस के भ्रष्टाचार से लोगों की नाराजगी है। अगर मोदी, उनसे भी ज्यादा, आर.एस.एस., इससे सबक लेते हैं तो वे समय गुजरने के साथ ज्यादा से ज्यादा प्रासंगिक हो जाएंगे।      
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