सफाई कर्मियों के प्रति सरकारों की बेरुखी

Thursday, Aug 17, 2017 - 01:19 AM (IST)

आज हमें और हमारे देश को आजाद हुए 70 साल हो गए हैं। सभी आजादी की खुशियां मनाते हैं, सिवाय हम सबकी गंदगी साफ करने वाले हमारे भाई-बहन कर्मचारियों के। इनकी हालत तो आजादी से पहले भी ऐसी ही थी और आजादी के बाद भी वैसी ही है। इनके पास किसानों की तरह न तो जमीनें हैं और न ही अपने घर। 

कर्ज तले दबे इन सफाई कर्मचारियों का तो कर्ज माफ करने का भी कोई प्रावधान तय नहीं किया गया। क्या सरकारों की बेरुखी ऐसे समाज के साथ ही रहेगी जो हमारी गंदगी साफ करते हैं? कब सरकारों की इस समुदाय के लिए इच्छाशक्ति जागेगी? कब इन पर हो रहे अत्याचार बंद होंगे?  कब ये लोग आजाद देश में आजादी की जिंदगी जी सकेंगे? मैं रोज सुबह आंख खुलते ही जब समाचार पत्र पढ़ता हूं तो कहीं न कहीं शर्मसार करने वाली छपी खबर सामने आ जाती है। कभी पंजाब में, कभी दिल्ली में, कभी इधर तो कभी उधर। खबर एक जैसी ही होती है ‘सीवरेज में गंदगी साफ करने उतरे सफाई कर्मियों की जहरीली गैसों से दम घुटकर मौत।’ सिर्फ मरने वालों की संख्या ही अलग-अलग होती है। 

केन्द्र सरकार का सबसे बड़ा अभियान स्वच्छता का है। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि सीवरेज की सफाई करते वक्त देश भर से आने वाली सफाई कर्मियों की मौतों को लेकर कोई हलचल नहीं है। आजकल हम सैनीटेशन का मतलब सिर्फ शौचालय ही समझते हैं। मगर,इसका बड़ा हिस्सा है शहरों की सफाई और सीवरेज का ट्रीटमैंट करना। स्वच्छता के ज्यादातर विज्ञापन शौचालय को लेकर ही बने हैं, कचरा फैंकने को लेकर बने हैं, मगर सफाई कर्मियों की सुरक्षा, उनके लिए जरूरी उपकरणों का जिक्र कहीं नजर नहीं आता। ऐसा क्यों कर रही हैं सरकारें? क्यों नजरअंदाज हो रहे हैं गरीब दलित लोग जो एक समय की रोटी के लिए उस गंदगी में उतर जाते हैं जहां बीमारी तो तय ही है लेकिन मौत कब दस्तक दे दे, किसी को पता नहीं। 

क्या आपको पता है कि देश की किसी भी राज्य सरकार ने हाथ से मैला साफ करने की प्रथा से जुड़े आंकड़े इकट्ठा करने का कोई बीड़ा नहीं उठाया है। वे ये दिखाना चाहते हैं कि ऐसी कोई प्रथा है ही नहीं। इस काम के खिलाफ कोई मुकद्दमा दर्ज नहीं होता। ऐसे लोगों को अधिकतर मुआवजा नहीं मिलता, जबकि 2013 के कानून में हाथ से मैला साफ करने वालों को 10 लाख रुपए मुआवजा देने का प्रावधान है। नैशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो राज्यवार सीवर की सफाई करने के दौरान दुर्घटना में हुई मौतों का आंकड़ा इकट्ठा करता है  लेकिन सैप्टिक टैंक और सीवरेज में घुसने के दौरान हुई मौतों का कोई राष्ट्रीय आंकड़ा इकट्ठा नहीं होता। आखिर क्यों? क्या इस काम को करने वाले लोग इंसान नहीं हैं? हम देश भर में शौचालयों, टैलीविजन और स्कूटरों का आंकड़ा इकट्ठा कर सकते हैं तो हाथ से मैला साफ करने वालों के बारे में कोई आंकड़ा क्यों नहीं इकट्ठा कर सकते। 

प्रधानमंत्री की ‘स्वच्छ भारत योजना’ के तहत 2 करोड़ शौचालय बनाए जाएंगे। सभी ड्राई लैट्रीन होंगे। मेरा सवाल यह है कि क्या इस तरह की स्कीम के जरिए हम मैला ढोने की प्रथा की वजह से होने वाली मौतों को और नहीं बढ़ा रहे? देश में शहरी और उप शहरी क्षेत्र में भी अंडरग्राऊंड ड्रेनेज सिस्टम की मुकम्मल व्यवस्था नहीं है, गांवों और कस्बों की बात तो छोड़ ही दीजिए। साफ है कि इन इलाकों में बने शौचालयों के सैप्टिक टैंक में जमा मल-मूत्र की सफाई हाथ से मैला साफ करने वाला समुदाय ही करेगा। इस अमानवीय और अपमानजनक प्रथा को समाप्त करने की बजाय किसी न किसी ढंग में इसे बढ़ावा मिल रहा है। मोदी सरकार की उक्त योजना इस समुदाय को इस दलदल से निकलने में और अड़चन पैदा करेगी। 

एक टी.वी. चैनल के मुताबिक हैदराबाद में एक अनाथालय है, जहां एच.आई.वी. पीड़ित 200 अनाथ बच्चियां रहती हैं, इनसे मैनहोल साफ करवाया जा रहा था। अप्रैल महीने में जब यह रिपोर्ट सामने आई तो अनाथालय के सुपरवाइजर और वार्डन को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन सोचिए हम सफाई के काम को इतना हल्का समझते हैं कि किसी को भी उतार दिया गया। यह जानते हुए भी कि इसमें प्रदूषित तत्व हैं, इन लड़कियों को संक्रमण हो सकता है। मगर, दूसरों की जान की किसी को परवाह ही नहीं है। सीवरेज सफाई कर्मियों को मार रहा है, बीमार कर रहा है। यही नहीं, पूरे शहर को बीमार कर रहा है क्योंकि इसके कारण शहर के भीतर और आसपास पानी का जो प्राकृतिक सिस्टम है, वह लगातार प्रदूषित हो रहा है। सीवरेज का ट्रीटमैंट करना, इसे लगाना और इसका रखरखाव करना कोई सस्ता और आसान नहीं है। यह एक खर्चीला माध्यम है। 14 जुलाई को दिल्ली के घिटोरनी में 4 लोगों की सीवर साफ करते हुए मौत हो गई। 

1 जनवरी, 2014 से 20 मार्च, 2017 के बीच तमिलनाडु में सिर पर मैला ढोने के कारण 30 सफाई कर्मियों की मौत हो चुकी है। इन मौतों को तभी रोका जा सकता है जब लोग सीवर और सैप्टिक टैंकों में जाना बंद कर दें। आखिर गटर, सीवर या मैनहोल साफ करने के लिए अस्थायी कर्मचारियों को ही क्यों रखा जाता है? क्या सिस्टम को यह पता है कि इस काम में कभी न कभी मौत तय है! इसलिए अगर पक्की नौकरी होगी तो उसकी जगह पर परिवार के किसी सदस्य को रखना पड़ेगा। रिसर्च के दौरान ये बात सामने आई कि किसी भी नगरपालिका में सीवर या गटर साफ करते वक्त दम घुटने से होने वाली मौत का सही-सही आंकड़ा नहीं रखा जाता है। 

जनवरी, 2015 में बृहन मुम्बई नगरपालिका ने बताया था कि पिछले 6 साल में यानी 2009 से 2015 के बीच 1386 सफाई कर्मियों की मौत हो गई है और यह संख्या बढ़ती ही जा रही है। मुम्बई में 35,000 सफाई कर्मचारी हैं, जिनमें से ज्यादातर ठेके पर रखे जाते हैं। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि नालियों की सफाई के दौरान मारे गए कर्मचारियों के परिवार वालों को दस लाख रुपए दिए जाएंगे। मगर कई रिपोर्टों में इस बात का जिक्र मिला कि मरने वाले सफाई कर्मियों के परिजनों को मुआवजा नहीं मिलता है। 12 जुलाई, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक आदेश दिया, जिसमें सिर पर मैला ढोने वाले मजदूरों और सीवरेज कामगारों की दुर्दशा को रेखांकित किया गया। कोर्ट ने उनके कल्याण और सुरक्षा को लेकर सरकार की संवेदनहीनता की भी कड़ी आलोचना की। 

सुप्रीम कोर्ट ने मारे गए लोगों के परिवारों को ज्यादा मुआवजा देने का आदेश तो दिया ही, साथ ही शहरी निकायों को तुरंत दिल्ली हाईकोर्ट के उस आदेश का पालन करने का निर्देश दिया जिसमें सीवरेज में काम करने वालों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात कही गई थी। 2015 में सरकार के जारी आंकड़ों से पता चलता है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 62,000 मिलियन लीटर सीवरेज पैदा होता है। मात्र 23,277 मिलियन लीटर प्रतिदिन ही ट्रीट होता है। भारत में 816 म्यूनीसिपल सीवरेज ट्रीटमैंट प्लांट हैं, जिनमें से 522 ही काम करते हैं। इसकी वजह से नदियां, तालाब और प्राकृतिक जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। मैं उन लोगों को सलाम करता हूं, जो हमारी गंदगी को साफ करने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं करते और उनको श्रद्धांजलि देता हूं जिन्होंने हमारी गंदगी साफ करने की खातिर अपनी जान गंवा दी।


 

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