सीखने की प्रक्रिया अनुभव और चिंतन के जरिए होती है
punjabkesari.in Friday, Aug 02, 2024 - 06:34 AM (IST)
एलिजाबेथ मेहता एक अंग्रेज महिला हैं, जिनकी शादी मेरे अच्छे दोस्त सुनील मेहता से हुई है, जो एक पूर्व कपड़ा मिल मालिक परिवार के वंशज हैं, जो पैरागॉन टैक्सटाइल्स चलाते थे, जिसे ‘एलपर फैब्रिक्स’ के नाम से जाना जाता है। उन दोनों की मुलाकात इंगलैंड में हुई थी, जहां सुनील को उनके पिता ने औपचारिक शिक्षा पूरी करने के लिए भेजा था। एलिजाबेथ या ‘लिज’ जैसा कि उनके पति और उनके दोस्त उन्हें बुलाते थे, पेशे से एक शिक्षाविद् थीं। सुनील के साथ भारत में बिताए वर्षों में, वह इस दृढ़ निष्कर्ष पर पहुंची थीं कि ‘शिक्षा का बड़ा उद्देश्य स्वस्थ, रचनात्मक, सहयोगी समस्या-समाधानकत्र्ताओं की आबादी बनाना है, जो मानवता की परवाह करते हैं और इसकी विविध संस्कृतियों का सम्मान करते हैं।’’
उन्होंने एक सपना देखा था, जो वर्तमान में उड़ान भर रहा है। जब तत्कालीन श्रमिक नेता डा. दत्ता सामंत द्वारा बुलाई गई लंबी उद्योग-वार हड़ताल के परिणामस्वरूप मुंबई में कपड़ा उद्योग ठप्प हो गया, तो लगभग सभी मिल-मालिकों ने अपनी फैक्टरियां बंद कर दीं और या तो अपनी जमीन बेच दी जिस पर मिलें बनी थीं या उस जगह का इस्तेमाल दूसरे विविध व्यवसायों के लिए किया। मेरे मित्र सुनील हमेशा एक बड़े ‘सामाजिक’ विवेक का प्रदर्शन करते थे। मैं उनसे हमारे शहर के एक प्रसिद्ध एन.जी.ओ. की बोर्ड मीटिंग में मिला था, जिसका नाम था ‘द हैप्पी होम एंड स्कूल फॉर द ब्लाइंड’, जहां के.जी. से लेकर कक्षा 10 तक के 200 गरीब नेत्रहीन छात्रों को रहने, खाने और ब्रेल के माध्यम से पढऩा-लिखना सिखाया जाता था।
सरकार द्वारा पट्टे पर ली गई ज़मीन पर बने इस आवासीय विद्यालय को चलाने के लिए आवश्यक धन में सुनील का बड़ा योगदान था। लिज का शिक्षा के प्रति जुनून, बदकिस्मत लोगों को गरीबी और अभाव से उबारने में सुनील की रुचि के लिए एकदम सही था। सुनील ने अपने कार्यालय के कुछ कमरे लिज को सौंप दिए ताकि वे शिक्षा के माध्यम से अपने पति की पूर्व मिल के आस-पास रहने वाले झुग्गी-झोंपडिय़ों के लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने की योजना बना सकें और उसका खाका तैयार कर सकें।
सुनील ने लिज के नए संयुक्त उद्यम के ‘व्यावसायिक’ हिस्से को अपने हाथ में लेकर उद्यम में योगदान दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उद्यम के वित्तपोषण का काम भी उन्हीं के जिम्मे छोड़ दिया गया। उद्यम की कल्पना करने और उसे क्रियान्वित करने के बाद, दोनों ने मिलकर काम शुरू किया। मार्च 2003 में, ‘मुक्तांगन’, जैसा कि उद्यम का नाम दिया गया था, ने अपना पहला प्री-स्कूल शुरू किया और शिक्षा के मामले में वंचित समुदायों की 7 महिलाओं को शिक्षकों के रूप में भर्ती किया। ये महिलाएं न तो बहुत योग्य थीं और न ही उनके पास आवश्यक शिक्षण अनुभव था, लेकिन लिज और उनके समॢपत शिक्षकों के समूह ने उन्हें बदलाव लाने के लिए प्रेरित किया।
उनमें सीखने के लिए एक जुनून पैदा हुआ जिसने पूरी पहल को पंख दे दिए। लिज ने नए मॉडल का नाम ‘समुदाय के लिए शिक्षा, समुदाय द्वारा’ रखा। टीम, जिसमें अब प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे 7 नव-नियुक्त शिक्षक भी शामिल थे, ने मुक्तांगन द्वारा अपनी अनूठी शिक्षा पद्धति के साथ एक नगरपालिका स्कूल की स्थापना और संचालन के लिए पैरवी की, जो इस विश्वास पर आधारित थी कि शैक्षिक रूप से वंचित समुदायों में छात्रों और उनके शिक्षकों दोनों के लिए एक आनंदमय शिक्षण वातावरण बनाना संभव था।
समुदाय और शहर के नगर निगम आयुक्त के सहयोग से ‘सार्वजनिक-निजी भागीदारी’ मॉडल पर नगरपालिका से पहला स्कूल लिया गया था। माता-पिता और उनके बच्चों के उत्साह से परिभाषित इस पहले स्कूल की शानदार सफलता ने मुंबई नगरपालिका को मुक्तांगन से आस-पास के 6 और नगरपालिका स्कूलों को अपने अधीन करने के लिए कहा। लिज ने मुझे बताया कि मुक्तांगन मॉडल का मुख्य घटक ‘एकीकृत स्कूल और शिक्षक-शिक्षा कार्यक्रम’ है। वह कहती हैं कि सीखना एक ऐसी प्रक्रिया है जो अनुभव और ङ्क्षचतन के माध्यम से होती है। उन्होंने आगे कहा कि बच्चे सूचना के निष्क्रिय प्राप्तकर्ता नहीं हैं, बल्कि कक्षा में सक्रिय योगदानकत्र्ता भी हैं।
मुक्तांगन के पहले स्कूल में 2003 में के.जी. कक्षा में शामिल होने वाले बच्चे 11 साल बाद उत्तीर्ण हुए। शहर के किसी भी नगरपालिका स्कूल ने एस.एस.सी. परीक्षा में मुक्तांगन द्वारा दी गई सफलता के स्तर को हासिल नहीं किया था। तब से हर साल यह स्तर कायम है। मुझे मुक्तांगन के साथ इसकी शुरूआत से ही जुडऩे का सम्मान मिला। मेरे मित्र सुनील ने मुझे इसके बोर्ड में सेवा करने के लिए फोन किया और मैंने तुरंत स्वीकार कर लिया।
यहीं पर मेरी मुलाकात भारतीय प्रशासनिक सेवा के यू.पी. कैडर के अनिल स्वरूप से हुई, जब वे सेवानिवृत्त हुए। अनिल भारत सरकार के शिक्षा विभाग में सचिव रह चुके थे। लोगों की सच्ची सेवा करने वाले एक व्यक्ति के रूप में, वे हमेशा उन पुरुषों और महिलाओं से सीखने के लिए तैयार रहते थे जो जरूरतमंदों और वंचितों की नि:स्वार्थ सेवा कर रहे थे। -जूलियो रिबैरो (पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)