संसदीय सचिव का पद संविधान की मूल भावना का ‘उपहास’

Monday, Aug 15, 2016 - 01:05 AM (IST)

(शांता कुमार): हाल ही में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा पंजाब में 18 संसदीय सचिवों की नियुक्ति रद्द कर दी गई। इससे पूर्व दिल्ली सरकार द्वारा संसदीय सचिवों का मामला राजनीतिक बहस का विषय बना रहा। चुनाव आयोग ने दिल्ली सरकार को इस संबंध में अपनी स्थिति स्पष्ट करने को कहा है। बहस यह हो रही है कि संसदीय सचिवों का पद लाभ के पदों की परिभाषा में आता है या नहीं आता है। 

 
यह भी चर्चा का विषय है कि दिल्ली की ‘आप’ सरकार  ने संसदीय सचिवों  की नियुक्ति पहले कर दी और उन्हें लाभ के पद से छूट देने का कानून बाद में बनाया। उस कानून को राष्ट्रपति महोदय ने रद्द कर दिया इसलिए उन सभी विधायकों पर योग्यता की तलवार लटक रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का आरोप है कि देश के अन्य 13 प्रदेशों में भी संसदीय सचिव नियुक्त किए गए हैं। ऐसी स्थिति में केवल दिल्ली सरकार पर ही कार्रवाई क्यों?
 
मुझे दुख है कि इस प्रश्न के मूल मुद्दे पर चर्चा नहीं हो रही। प्रश्न यह नहीं है कि कानूनी रूप से यह लाभ के पद हैं या नहीं। प्रश्न यह भी नहीं है कि कोई भी प्रदेश सरकार यदि कानून बना कर लाभ के पदको कानून से छूट प्राप्त कर ले तो संसदीय सचिव कीनियुक्ति वैध हो जाती है। मूल प्रश्न यह है कि मंत्रिमंडल को सीमित करने के संविधान के संशोधन का पालन होरहा है या चोर दरवाजे से उसकी धज्जियां उड़ाई जा रही हैं।
 
अटल जी के प्रधानमंत्री काल में तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने मंत्रिमंडल  में आर्थिक परिस्थितियों पर ङ्क्षचता से भरा एक विषय रखा था। उन्होंने कहा था सब प्रकार के विकास के लिए अधिक धन की आवश्यकता है परन्तु उसके मुकाबले आर्थिक संसाधन बहुत कम हैं। नए आर्थिक साधन जुटाने के लिए  मंत्रिमंडल के विशेष कार्यक्रम बनाने चाहिएं। इस पर लम्बी चर्चा हुई थी। खाद्य मंत्री के रूप में तब मैं अंत्योदय अन्न योजना शुरू करवाना चाहता था तो वित्त मंत्रालय द्वारा आर्थिक कठिनाई का कारण बता कर इस योजना को कई महीने रोका गया था।
 
उन्हीं दिनों दिनेश गोस्वामी कमेटी की रिपोर्ट तथा लॉ कमिशन की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि मंत्रिमंडल की सीमा तय की जाए ताकि मंत्री बनने के लालच में दल-बदल को रोका जाए। इसी प्रकार का एक सुझाव संविधान समीक्षा समिति की ओर से भी आया था। इन सबके साथ पूरे प्रशासन में बचत करने की आवश्यकता को सामने रख कर संविधान में संशोधन द्वारा  मंत्रिमंडल की सीमा पहले 10 प्रतिशत और बाद में 15 प्रतिशत तय की गई थी। पूरे देश में इसका स्वागत हुआ था। प्रशासन में बचत के और भी बहुत से उपाय किए गए थे। 
 
अटल जी की सरकार चली गई और इस संशोधन की मूल भावना को समाप्त करने के लिए बहुत से प्रदेशों ने संसदीय सचिव बनाने का चोरदरवाजा तलाश लिया। आज बहस होनी चाहिए कि संविधान संशोधन की मूल भावना को बनाए रखने के लिए  इस चोर दरवाजे को  पूरी तरह से कैसे बंद किया जाए।
 
भारत के आर्थिक विकास में एक दुर्भाग्यपूर्ण  विरोधाभास उभर कर आया है। वृद्धि दर बढ़ रही है परन्तु  विश्व के 82 करोड़ भूखे लोगों में से 27 करोड़ भारत में रहते हैं। 30 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे रहते हैं। केन्द्र सरकार के आर्थिक और सामाजिक सर्वेक्षण के अनुसार 60 करोड़ लोग केवल 1000 रुपए पर गुजारा करते हैं। हजारों जजों के पद खाली हैं और करोड़ों मुकद्दमे लंबित पड़े हैं। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को इसी प्रश्न पर प्रधानमंत्री के सामने आंसू बहाने पड़े। देश में 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 
 
बेरोजगारी  से युवा शक्ति निराश और हताश हो रही है। विधायक और सांसद जब चाहें अपना वेतन बढ़ा लेते हैं। सरकारी अफसरों और कर्मचारियों को वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार वेतन वृद्धि मिल जाती है। छोटे-बड़े उद्योगपति आराम का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अभी 7वें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हो गई हैं। एक करोड़ कर्मचारियों को लगभग एक लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त लाभ  मिलेगा। क्या देश का खजाना नेताओं, सरकारी कर्मचारियों और उद्योगपतियों के लिए ही है।
 
आवश्यकता इस बात की है कि पूरे प्रशासन में ऊपर से लेकर नीचे तक  सख्ती के साथ सादगी लाई जाए। व्यर्थ के खर्चों पर अंकुश लगाया जाए। मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि ऐसा कड़ा वित्तीय अनुशासन लागू करने पर गैर-योजना व्यय में 10 प्रतिशत की बचत अवश्य हो सकती है। इस प्रकार कई लाख करोड़ रुपए आवश्यक खर्च के लिए उपलब्ध हो सकते हैं। मैं 1977 में हिमाचल का मुख्यमंत्री था। मेरे साथ कुल 8 मंत्री थे। आज हिमाचल में 20 मंत्री हैं। छोटे से हिमाचल ने  एक साल में प्रशासन व्यय में 50 करोड़ की  बचत कर के दिखाई थी।
 
संसदीय सचिव के पद का संविधान  में कोई प्रावधान नहीं है। वह किसी सरकारी फाइल पर कोई आदेश नहीं कर सकते परन्तु मंत्री पद की सारी सुविधाएं प्राप्त होती हैं। यह चोर दरवाजा संविधान संशोधन की मूल भावना के विपरीत तो है ही परन्तु भारत की आर्थिक परिस्थितियों का भी एक उपहास है अत: इस पद को तुरंत समाप्त कर देना चाहिए।
 
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