अभी राजनीतिक खेल खत्म नहीं हुआ

Tuesday, May 21, 2019 - 01:58 AM (IST)

मतदान समाप्त हो गया है और 2 दिन बाद हमें पता चल जाएगा कि भारत की राजगद्दी पर कौन बैठेगा। इस बार चुनाव तीखा और धुआंधार रहा है इसलिए कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि मोदी की भाजपा और उनके सहयोगी दल जीतेंगे या कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा, तेदेपा, टी.आर.एस. आदि से बनी महामिलावटी टुकड़े-टुकड़े गैंग जीतेगी। राजनीति में खेल कभी खत्म नहीं होता है और जो जीतता है वही सिकन्दर होता है। 

6 सप्ताह तक चले इन थकाऊ चुनावों में एक चीज में बड़ा बदलाव देखने को मिला और वह विकास पुरुष मोदी में महाबदलाव है, जिन्होंने 2014 के चुनाव में लोगों को अच्छे दिन के सपने दिखाए थे और अब वह एक दबंग नेता बन गए हैं, जिन्हें कोई चुनौती देने वाला नहीं है। वह जहां कहीं जाते हैं, चुनाव जीतते हैं और इस बार उन्हें दूसरा कार्यकाल मिलने वाला है। प्रश्न उनकी जीत-हार को लेकर नहीं है, अपितु यह है कि भाजपा कितनी सीटें जीतती है। 

भारत के चुनाव प्रचार में वही मुख्य प्रचारक थे तथा कांग्रेस और अन्य विपक्षी पाॢटयों ने केवल उन्हीं को निशाना बनाया । यह पहला चुनाव है जिसमें आम आदमी पूछ रहा है-यदि मोदी नहीं तो फिर कौन? आप इसे टी.आई.एन.ए. (विकल्पहीनता) कारक भी कह सकते हैं, क्योंकि उनके समक्ष कोई विश्वसनीय चुनौती या विकल्प नहीं है। इसके अलावा विपक्ष के टुकड़े-टुकड़े क्षत्रप केवल अपने क्षेत्रों में प्रभावी हैं और भाजपा व नमो को इस बात का श्रेय जाता है कि वे अपनी पार्टी और क्षेत्रीय नेताओं के इरादों के बारे में जनता को समझाने में सफल रहे। 

मोदी केन्द्रित हुई भाजपा
भाजपा के इतिहास में भी पहली बार यह हुआ है कि पार्टी आज मोदी केन्द्रित हो गई है और वह व्यक्तित्व द्वारा निर्देशित हो रही है जबकि पार्टी को अपने व्यापक नेतृत्व पर गर्व था जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा से जुड़ी हुई है। अमित शाह को भी कोई चुनौती देने वाला नहीं है और यदि कोई ऐसा दुस्साहस करता है तो उसके राजनीतिक जीवन का अंत हो जाएगा। दूसरी ओर हमारी व्यवस्था का दोगलापन सामने आया है। 

मोदी से प्रेम करें, घृणा करें या उन्हें नजरअंदाज करें किन्तु चायवाले से प्रधानमंत्री बने मोदी किसी की परवाह नहीं करते हैं। वह हिसाब पूरा करने में विश्वास रखते हैं और वास्तव में कानून द्वारा शासन, जिसकी लाठी उसकी भैंस और पकड़ सको तो पकड़ो के सिद्धांतों पर चलते हैं। यही नहीं, भाजपा का पूरा चुनावी अभियान इस बात पर आधारित किया गया कि कांग्रेस के राहुल अभी देश का नेतृत्व करने के लिए परिपक्व नहीं हैं और  प्रधानमंत्री पद के लिए ममता,माया, नायडू, राव आदि उपयुक्त नहीं हैं। हालांकि यू.पी.ए. की अध्यक्षा सोनिया गांधी इन लोगों को एकजुट कर एक विकल्प देने का प्रयास कर रही हैं, किन्तु यह इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस और क्षेत्रीय क्षत्रप को कितनी सीटें मिलती हैं। 

हाल के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत से यह लगा था कि उसमें नई जान आ गई है और उसने मोदी को दोबारा सत्ता में आने से रोकने के लिए भरसक प्रयास किए, किन्तु वह अपने जनाधार के बारे में भ्रमित रही और इसलिए उसने चिर-परिचित फार्मूला अपनाया। गाली और भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाया, क्योंकि न्याय से चुनावी लाभ नहीं मिला। राहुल द्वारा बार-बार प्यार की झप्पी की बातें करने से क्या पार्टी की सीटों में वृद्धि होगी। वास्तव में जिन राज्यों में कांग्रेस और भाजपा में सीधी टक्कर है, वहां वह भाजपा को चुनौती देने में सक्षम रहे हैं। कई राज्यों में हिन्दुत्व ब्रिगेड वापसी का प्रयास कर रही है। 

वास्तव में मजबूत नेता समर्पित कार्यकत्र्ताओं और उपयुक्त जातीय समीकरणों के साथ क्षेत्रीय पाॢटयां उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में भाजपा को कड़ी टक्कर दे रही हैं, वे अपने-अपने क्षेत्र में जीत दर्ज करेंगे और कांग्रेस विशेषकर उत्तर प्रदेश में केवल वोट कटुआ की भूमिका निभा रही है। इसके अलावा उन पाॢटयों की पहचान आसानी से की जा सकती है जो किसी भी सूरत में भाजपा के  साथ नहीं जा सकती हैं। 

कांग्रेस, वामपंथी दल, तृणमूल, राजद और द्रमुक के अलावा शायद अखिलेश की सपा यू.पी.ए. के मुख्य घटक होंगे जबकि टी.आर.एस. के राव, वाई.एस.आर. कांग्रेस के जगन और बीजद के पटनायक मोदी के साथ जा सकते हैं। बसपा की मायावती, राकांपा के पवार, तेदेपा के नायडू और जद (एस) के गौड़ा अच्छा ऑफर मिलने पर भगवा संघ के साथ जा सकते हैं। इन चुनावों में मोदी बनाम शेष के बीच उत्तर-दक्षिण का विभाजन भी देखने को मिला है। दक्षिण के क्षेत्रीय क्षत्रप के अपने वोट बैंक पर मोदी के व्यक्तित्व का वैसा प्रभाव नहीं पड़ा जैसा कि उत्तर भारत में पड़ा है। भाजपा कर्नाटक को छोड़कर तमिलनाडु, केरल, आंध्र और तेलंगाना में पांव नहीं जमा पाई है और यदि इन राज्यों में उसे कुछ सीटें मिलती हैं तो हम उसे सौभाग्यशाली समझेंगे। 

यह पहला चुनाव है जिसमें धर्मनिरपेक्ष-साम्प्रदायिक शब्द सुनने को नहीं मिले। हिन्दू ब्रिगेड ने अपना चुनावी मुद्दा जय श्रीराम के इर्द-गिर्द रखा तो कांग्रेस के नेता भाई-बहन से लेकर हर नेता अपने हिन्दू मूल को प्रमाणित करने में व्यस्त रहे। राहुल अपने को पक्का जनेऊधारी कहते हैं तो प्रियंका कई मंदिरों में पूजा में व्यस्त रहीं। 

अहम मुद्दे गौण हो गए
आज भाजपा आत्मविश्वास से ओत-प्रोत है और केवल एक ही मुद्दा बहस का मुद्दा बन सकता है-भाजपा राजग के सहयोगियों को कितना स्थान देती है और यदि पार्टी 200-250 के बीच सीटें जीतती है तो कौन-से अन्य दल उसका समर्थन करते हैं। 2019 के चुनाव ध्रुवीकरण के मामले में अपवाद नहीं रहे हैं। 

मोदी समर्थकों और उनके विरोधियों ने एक-दूसरे के विरुद्ध खूब अपशब्दों का प्रयोग किया है और राजनीतिक चर्चा इतनी नीच कभी नहीं रही है, जिसके चलते बेरोजगारी, कृषि संकट, खाद्यान्न, महंगाई आदि जैसे ज्वलंत मुद्दे गौण बन गए। इसको देखते हुए मतदाता हैरान हैं कि क्या राजनीतिक दलों को चुनाव लडऩे के लिए नए नियम बनाने होंगे, जिनमें वे केवल मतदाताओं से जुड़ी नीतियों और समस्याओं की बात करें। क्या एक गरीब देश के लिए चुनाव पर 50 हजार करोड़ रुपए खर्च करना उचित होगा। समय आ गया है कि हम चुनाव प्रक्रिया में आमूल-चूल बदलाव करने पर विचार करें। 

क्या हमारे देश में अच्छे राजनेताओं का अकाल पड़ गया है जो लोकतंत्र के आदर्शों को स्वीकार करें तथा चुनावी प्रक्रिया की गरिमा बनाए रखें तथा अपशब्दों के मामले में एक लक्ष्मण रेखा खींचें और उसे पार न करें। हमारे नेताओं को समझना होगा कि प्रधानमंत्री तो आते-जाते रहेंगे किन्तु उनके शब्द बने रहेंगे जो युवा मन को प्रभावित करेंगे। यह सोचना गलत होगा कि चुनाव समाप्त होने के बाद इस स्थिति में बदलाव आ जाएगा क्योंकि ये नेता और चुनाव हमारी राजनीति और समाज को विभाजित व भयभीत कर सकते हैं और इससे भी नुक्सान की भरपाई करने के लिए समय, प्रयास तथा कुशल नेतृत्व की आवश्यकता होगी और इसकी शुरूआत नए प्रधानमंत्री को करनी होगी।-पूनम आई. कौशिश

Advertising