मौजूदा माहौल को बनाने के लिए जिम्मेदार ‘लोग’

Saturday, Dec 21, 2019 - 02:18 AM (IST)

ब्रिटिश साम्राज्य की ‘डिवाइड एंड रूल’ की नीति का मुख्य मंतव्य हिन्दू-मुस्लिम शत्रुता का प्रसार करना था। इस शत्रुता को उन्होंने इसलिए फलता-फूलता देखना चाहा ताकि वे लम्बे समय तक हिन्दुस्तान पर राज कर सकें। इसका दुखद अंत 1947 में विभाजन के बाद हुआ। 

1857 में ब्रिटिश यह देख कर दंग रह गए कि कैसे हिन्दुओं तथा मुसलमानों ने कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध प्रथम स्वतंत्रता संग्राम लड़ा। उन्होंने इसके बाद यह मन में ठान ली और यकीनी बनाया कि इसको फिर से न दोहराया जाएगा। उन्होंने फूट डालो और राज करो (डिवाइड एंड रूल) की नीति अपनाई। दोनों समुदायों में कलह डालने के लिए उन्होंने हरसंभव यत्न किया ताकि हिन्दू-मुस्लिम अलग-अलग रहें। जब भारत का ब्रिटिशर्स ने सीमित विशेषाधिकार पा लिया तब उन्होंने जानबूझ कर साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्र बना डाला। 

सर सैयद अहमद खान की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद अहमद खान की शुरूआती दौर में भारत के बारे में धर्मनिरपेक्ष विचारधारा थी। 1883 में पटना में उन्होंने कहा, ‘‘मेरे दोस्तो! यह भारतवर्ष हमारा है जिसमें दो प्रख्यात समुदाय हिन्दू तथा मुसलमान रहते हैं जैसे मानवीय शरीर में दिल और दिमाग का एक ही रिश्ता है, वैसे ही हिन्दू-मुसलमानों का भी वही रिश्ता है।’’ 1884 में गुरदासपुर में उन्होंने दोहराया ‘‘हिन्दुओ और मुसलमानो! क्या तुम लोग भारत के सिवाय किसी दूसरे देश से संबंध रखते हो? क्या आप दोनों इस मिट्टी पर नहीं रहते तथा इसके नीचे ही दफन न होंगे या फिर इसके घाटों पर आपका संस्कार नहीं होगा? यदि आप दोनों यहीं पर जन्म लेते हो और मरते भी हो तब एक बात अपने दिमाग में रखो कि सभी हिन्दू, मुसलमान और ईसाई जो इस देश में रहते हैं वे एक राष्ट्र हैं।’’ 

सैयद की बदल गई विचारधारा
हालांकि 1888 में फूट डालो और राज करो की ब्रिटिश नीति का उन पर प्रभाव पड़ा। मेरठ में उन्होंने कहा, ‘‘सबसे पहली बात यह है कि किसके हाथों में भारत का साम्राज्य तथा प्रशासन होगा। मान लें सभी अंग्रेज तथा उनकी अंग्रेजी सेना भारत छोड़ देती है और अपनी सारी तोपें तथा शानदार हथियार इत्यादि ले जाती है तब भारत पर किसका राज होगा। यकीनन ऐसे हालातों में दो राष्ट्र मुसलमान और हिन्दू एक ही सिंहासन पर बैठेंगे और बराबर की सत्ता पाएंगे। यकीनन ऐसा नहीं होगा। इसलिए यह जरूरी है कि कोई एक-दूसरे पर जीत हासिल करे तथा उसको नीचे गिराए।’’ 

हिन्दू महासभा का क्या था कहना
दूसरी ओर भाजपा की पूर्वज हिन्दू महासभा का ऐसा ही मानना था। इसके नेता भाई परमानंद जिनका जन्म जेहलम (अब पाकिस्तान में) में हुआ था, ने 1909 तक साम्प्रदायिक विभाजन का समर्थन किया था। उन्होंने कहा, ‘‘सिंध से परे के क्षेत्र को अफगानिस्तान में मिला देना चाहिए तथा नार्थ-वैस्ट फ्रंटियर प्रोविंस को विशाल मुस्लिम साम्राज्य में मिला दिया जाए। हिन्दुओं को अपने ही क्षेत्र में रखा जाए।’’ 

उनके विचारों का हिन्दू महासभा के महान देशभक्त तथा शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय ने समर्थन किया। 1924 में ट्रिब्यून समाचारपत्र में उन्होंने कहा कि मेरी स्कीम के अंतर्गत मुसलमानों के पास 4 मुस्लिम राज्य हों। 1. पठान प्रोविंस तथा नार्थ वैस्ट फ्रंटियर, 2. पश्चिमी पंजाब, 3. सिंध, 4. पूर्वी बंगाल। यदि सुगठित मुस्लिम समुदाय के पास भारत के किसी अन्य क्षेत्र में कोई जगह हो या फिर वे कोई प्रांत बनाना चाहें तब वे किसी प्रकार इसका गठन कर सकते हैं मगर यह समझ लेना चाहिए कि यह  संयुक्त भारत नहीं है। इसका मतलब है कि भारत का विभाजन मुस्लिम इंडिया तथा गैर मुस्लिम इंडिया में हो। 

इकबाल ने भी अलग ही सुर अलापा था
1904 में ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा’ के लेखक अलामा इकबाल ने भी 1930 में अलग ही सुर अलापा। मुस्लिम लीग के 25वें सत्र को अध्यक्ष के तौर पर अपने संबोधन दौरान  उन्होंने घोषणा की, ‘‘मैं पंजाब को, नार्थ  वैस्ट फ्रंटियर प्रोविंस, सिंध तथा बलूचिस्तान को एक राज्य में सम्मिलित होता देखना पसंद करूंगा। मैं चाहूंगा कि ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर या फिर इसके बिना ही सैल्फ गवर्नमैंट बने। मुसलमानों  की किस्मत नार्थ वैस्ट इंडियन मुस्लिम स्टेट के गठन से ही बनेगी। कम से कम नार्थ वैस्टर्न इंडिया।’’

अहमदाबाद में 1937 में हिन्दू महासभा के 19वें सत्र को संबोधित करने के दौरान विनायक दामोदर सावरकर ने कहा, ‘‘भारत में एक साथ दो शत्रुता वाले राष्ट्र रह रहे हैं। कुछ बचकाना राजनेताओं ने यह सोच कर गंभीर गलती कर ली कि भारत पहले से ही एक लयबद्ध राष्ट्र है। भारत को आज एकजुट तथा समजातीय  राष्ट्र नहीं समझा जाना चाहिए। इसके विपरीत भारत की मुख्य धारा में दो राष्ट्र हैं : हिन्दू तथा मुसलमान।’’ 

वहीं पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना ने 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर सत्र को संबोधित करने के दौरान कहा, ‘‘यह एक सपने जैसा ही होगा कि हिन्दू तथा मुसलमान शायद कभी भी एक आम राष्ट्रीयता विकसित कर सकें। हिन्दू तथा मुसलमान दो विभिन्न विचारधाराओं, सामाजिक रीति-रिवाज तथा साहित्यिक परम्पराओं से संबंध रखते हैं। वे आपस में कभी शादी नहीं करते और न ही इकट्ठे बैठ कर खाते हैं। दोनों ही अलग-अलग सभ्यताओं से संबंध रखते हैं जो मुख्य तौर पर परस्पर विरोधी विचारों पर आधारित है।’’ सावरकर ने 1943 में जिन्ना  की फिलॉस्फी पर मोहर लगाई। उन्होंने कहा कि मेरा जिन्ना की दो राष्ट्रों की थ्योरी से कोई झगड़ा नहीं है। हम हिन्दू लोग अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू तथा मुसलमान दो राष्ट्र हैं। 

3 सितम्बर 1939 को तत्कालीन भारतीय वायसराय लिनथिनगो ने भारत की ओर से धुरी शक्तियों के खिलाफ भारतीय राय जाने बिना युद्ध छेड़ दिया। इसके विरोध में कांग्रेस ने सभी प्रांतीय सरकारों से इस्तीफा दे दिया जिसको कि उसने फरवरी 1937 में जीता था। कांग्रेस की मुस्लिम लीग तथा हिन्दू महासभा गठबंधन सरकारों ने जगह ली। 1942 में सिंध में हिन्दू महासभा के सदस्य गुलाम हुसैन हिदायतुल्ला की मुस्लिम लीग सरकार में शामिल हो गए। सावरकर ने हर्ष के साथ घोषणा की, ‘‘तथ्यों को देखते हुए हाल ही में सिंध में सिंध-हिन्दू सभा ने आमंत्रण पर लीग के साथ हाथ मिलाने की जिम्मेदारी संभाली।’’ 

बंगाल में इसी तरह 1943 में हुआ जब जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जिन्ना द्वारा विभाजित लाहौर रैजोल्यूशन (1940) को प्रस्तुत करने के लिए निजी तौर पर चुने गए  फजलुर्रहक के मंत्रालय में वित्त मंत्री बने। इसी तरह 1943 में नार्थ वैस्ट फ्रंटियर प्रोविंस में भी दोहराया गया जब हिन्दू महासभा के नेता मेहरचंद खन्ना सरदार औरंगजेब खान के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग सरकार में वित्त मंत्री बने। इस तरह यह स्पष्ट है कि कांग्रेस नहीं, मुस्लिम लीग तथा हिन्दू महासभा व अन्य तत्व थे जो ऐसे वातावरण को बनाने के लिए जिम्मेदार थे जिसके चलते 1947 में भारत का विभाजन हुआ। अब इन्हीं के वंशज चाहते हैं कि धार्मिक बंटवारा हो ताकि एक तर्कसंगत निष्कर्ष निकल सके।  72 वर्षों के बाद वे अपना सपना नागरिक कानून तथा नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं।-मनीष तिवारी

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