प्रशासन में नेताओं की दखलंदाजी विकास में बाधक

Friday, Jul 07, 2017 - 10:56 PM (IST)

एक आंखों देखी घटना है कि एक बड़े पुलिस अधिकारी से कार्यवश उनके कार्यालय में मिलना हुआ। बातचीत के दौरान उनके मातहत अधिकारी ने जो कहा वह इस तरह से था, ‘‘एक गंभीर आरोपी को पकड़ कर थाने में बंद कर देने के बाद उसे छुड़ाने के लिए पहले तो स्थानीय नेता आए और जब उन्हें उलटे पांव लौटा दिया गया तो स्वयं विधायक उसकी पैरवी करने आ गए।’’ उन्होंने आगे बताया, ‘‘उनके पास भी उस पार्टी के अधिकारी का फोन आ चुका था लेकिन उन्होंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया।’’ मैंने कौतूहलवश पूछ लिया ‘‘अब आप क्या करेंगे?’’ कहने लगे, ‘‘कुछ न कुछ तो सोचना ही पड़ेगा।’’

इस कुछ न कुछ सोचने की बात से अखबारों और न्यूज चैनलों की सुॢखयां बनती रही हैं। अनेक घटनाएं सामने आ जाती हैं। अब यह उदाहरण देखिए। एक अधिकारी का 22 साल की नौकरी में 46 बार और एक अन्य का 18 साल में 22 बार ट्रांसफर हुआ। उल्लेखनीय यह है कि ये उन अधिकारियों के अयोग्य होने के कारण नहीं, बल्कि ऊपर के बड़े अधिकारियों और राजनीतिज्ञों के अनुसार कार्रवाई करने से मना करने के कारण हुए। अब यहां इस बात का जिक्र करते हैं कि अमरीका की एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संस्था जोकि ‘थिंक टैंक’ कही जाती है, उसकी रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में राजनीतिज्ञों की दखलंदाजी भारत की आॢथक, सामाजिक, प्रगति में जबरदस्त बाधक है और आॢथक विकास के मार्ग में जबरदस्त रोड़ा बन रही है। 

इसी कड़ी में सरकार द्वारा प्रशासनिक, विशेषकर पुलिस सुधारों के लिए गठित अनेक आयोगों की रिपोर्ट भी आंख खोलने वाली है। इनमें पुलिस के बारे में यहां तक कहा गया कि भारतीय पुलिस एक संगठित आपराधिक समूह में बदल चुकी है। इसका सबसे बड़ा कारण सियासी पार्टियों के छुटभैये नेताओं से लेकर पार्टी के विभिन्न पदों पर बैठे व्यक्ति और उसके बाद सरकार में शामिल होने पर उनका निरंकुश व्यवहार है जिसमें वे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से लेकर अपने क्षेत्र में तैनात पुलिसकर्मियों तक से यह अपेक्षा करते हैं  कि जो वे कहें, वही सही है और अगर किसी ने उनकी बात नहीं मानी तो उसका परिणाम भुगतने को तैयार रहे। यह परिणाम अक्सर अधिकारियों की बेवजह ट्रांसफर और प्रमोशन न होने देने के रूप में निकलता है। 

हम आजादी की 70वीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं लेकिन इतने समय बाद एक सामान्य व्यक्ति की नजर में पुलिस का क्रूर, भ्रष्ट, पक्षपाती और रिश्वतखोर चेहरा ही नजर आता है। वास्तविकता यह है कि नागरिक प्रशासन और पुलिस प्रशासन में अपने कत्र्तव्य के प्रति समॢपत और बिना दबाव के कानून और तर्क की कसौटी पर खरे उतरने वाले अधिकारी ही हमारी व्यवस्था में अधिक हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि वे थोड़े से लोग, जो प्रशासनिक सेवाओं में चुने जाने के लिए पढ़ाई-लिखाई और परीक्षा इसीलिए देते हैं ताकि महत्वपूर्ण पद पर बैठकर रुतबे के साथ-साथ अधिक से अधिक धनोपार्जन भी कर सकें, एक मछली की तरह पूरे तालाब को गंदा करने की भूमिका निभाते हैं। 

प्रशासनिक कार्यों में नेताओं की दखलंदाजी का एक और उदाहरण शिक्षा क्षेत्र से है। कुछ समय पहले मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रह्मण्यम के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया गया, जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि शिक्षा क्षेत्र में खराब परिणामों के लिए निश्चित तौर पर राजनीतिक हस्तक्षेप जिम्मेदार है। सुझाव दिया गया कि कुलपतियों की नियुक्तियों को राजनीति से दूर रखा जाए। वैसे कहना गलत न होगा कि संस्थानों के स्थान चयन से लेकर कुलपतियों, प्रधानाचार्यों, शिक्षकों के स्थानांतरण और परीक्षा केन्द्रों की चयन प्रकिया में भी राजनीतिक हस्तक्षेप होता है, सत्ता बदलते ही सरकार सबसे पहले स्कूल-कालेजों का सिलेबस बदलती है जो शिक्षा को प्रभावित तो करता ही है, साथ ही कंफ्यूजन भी पैदा करता है। 

शिक्षा, रोजगार पाने की पहली सीढ़ी है। आज स्थिति यह है कि हमारे पास आयाम बहुत हैं लेकिन नौकरियां नहीं। उच्च शिक्षा की डिग्री लिए विद्यार्थी भी चपरासी और क्लर्क की नौकरी करने को विवश हैं... शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून, प्रशासन आदि सभी का प्रबंधन राजनीति के अंतर्गत होता है और राजनीतिज्ञ अपने फायदे के लिए अधिकारों की परिभाषा ही बदल देते हैं। पूर्व गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने भी पुलिस के साथ सहानुभूति जताते हुए कहा था कि पुलिसकर्मी दुव्र्यवहार का सबसे ज्यादा शिकार होता है जो सबसे अधिक धमकाया जाने वाला कर्मचारी भी है। अब सवाल यह उठता है कि जब राजनेता पुलिस कर्मियों अथवा अन्य अधिकारियों की समस्या को समझते हैं तो कोई कदम क्यों नहीं उठाते? 

असल में प्रशासनिक विभागों का हमारे राजनेता अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं। हमारे देश में ज्यादातर सी.बी.आई. रेड, एस.टी.एफ. की कार्रवाई राजनेताओं के इशारों पर होती है... किसे जेल में डालना है और किसके खिलाफ  कौन से कानून का इस्तेमाल करना है, इसका निर्णय भी राजनीति से प्रेरित होता है। हमारे देश की प्रशासनिक व्यवस्था कुछ इस तरह की है कि यहां बहुत से पद केवल इसलिए नहीं भरे जाते क्योंकि उनके लिए राजनीतिज्ञों की पसंद का व्यक्ति नहीं मिलता। पुलिस, सामान्य प्रशासन के लिए न्यायिक व्यवस्था तक में नियुक्तियों का इंतजार कर रहे हजारों नहीं बल्कि लाखों की संख्या में पद खाली पड़े हैं।

अब जरा दूसरे देशों की बात कर लें कि उनकी प्रगति में राजनीतिक दखलंदाजी का कितना हाथ है। भारत के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी चीन में रहने या वहां व्यापार करने वाले भारतीयों का कहना है कि यहां राज का कानून नहीं है, बल्कि कानून का राज है... लोगों में कानून का डर है, साफ-सफाई, यातायात नियम और अपराध पर पूरी तरह से कानून का नियंत्रण है। सिंगापुर आज विकसित देश इसलिए है क्योंकि वहां प्रधानमंत्री भी कानून के दायरे में आता है। उनका मानना है कि जिस देश में कानून को गंभीरता से लिया जाएगा विकास दर उतनी ही बढ़ेगी। यहां कई ऐसी कानूनी धाराएं हैं जिनसे अदालत भी छुटकारा नहीं दिला सकती। इसके विपरीत हमारे देश में 1000-500 रुपए देकर सड़क दुर्घटना जैसे अपराध से भी बच सकते हैं। 

भारत में राजनीति प्रत्येक क्षेत्र में हावी रहती है। उदाहरण के लिए खेलों ने हमारे देश को कई मैडल और तमगे दिए हैं... लेकिन यह बात किसी से छिपी नहीं है कि क्रिकेट सहित सभी खेलों में राजनीतिज्ञ हावी रहते हैं। खेलों में बढ़ते राजनीतिक दखल का नतीजा ही था कि ओलिम्पिक में हमारे हाथ कुछ ज्यादा नहीं लगा। नेता प्रतिभावान खिलाडिय़ों को आगे लाने की बजाय भेदभावपूर्ण रवैया अपनाते हैं, परिणामस्वरूप खेलों को किसी न किसी रूप में राजनीति की छत्र-छाया में ही बढऩा होता है। इसका अर्थ यह निकलता है कि राजनीतिज्ञ तो प्रत्येक क्षेत्र में हस्तक्षेप कर सकते हैं लेकिन कोई उनकी राजनीति में दखलंदाजी करे यह कतई बर्दाश्त नहीं होगा। इसमें चाहे कानून ही क्यों न हो और उसे भी धत्ता ही क्यों न बताना पड़े। 

कहा जाता है कि कानून सबके लिए समान है तो फिर सरकारें अपनी पार्टी के दागदार छवि वाले नेताओं को सजा क्यों नहीं देतीं? केवल दूसरी पार्टी के नेताओं में ही क्यों उन्हें भ्रष्टाचार दिखाई देता है? और पार्टी बदलने पर वही भ्रष्टाचारी साफ छवि का कैसे हो जाता है? अब प्रश्न सत्ता में बैठे उन हुक्मरानों से कि क्या कानून और प्रशासन का रौब सिर्फ  जनता के लिए है? सिर्फ जनता को डराने-धमकाने के लिए ही इनका निर्माण हुआ है? अगर ऐसा नहीं है तो हर बड़े घोटाले मेें किसी न किसी नेता या उसके रिश्तेदार का नाम आते ही अधिकारियों का तबादला क्यों हो जाता है? 

कानून के हाथ बहुत लम्बे होने की बात अक्सर कही जाती है लेकिन शायद, कानून के हाथ इतने लम्बे भी नहीं होते कि वे सत्ता में काबिज किसी राजनीतिज्ञ तक पहुंच सकें। हां, अगर आप विपक्षी हैं तो हो सकता है कि आप तक कानून के हाथ पहुंच जाएं क्योंकि कानून को तब सत्ताधारी दल का हुक्म मानने के लिए विवश कर दिया जाता है।
 

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