गुजरात में शहीदों की संख्या बेशक कम हो लेकिन शून्य नहीं है
punjabkesari.in Sunday, May 14, 2017 - 11:15 PM (IST)

देश के लिए शहीद होने वालों में क्या गुजरात के लोग भी शामिल हैं? यू.पी. के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने यह कहकर कई लोगों को आहत किया कि क्या गुजरात का भी कोई व्यक्ति देश के लिए लड़ा और शहीद हुआ है? उन्होंने यह टिप्पणी वादी कश्मीर में एक कश्मीरी सेना अधिकारी लै. उमर फयाज की आतंकवादियों द्वारा की गई हत्या के बाद की थी।
यादव के प्रश्र का उत्तर है: थोड़े से ही गुजराती देश के लिए लड़े हैं और शहीद भी कोई ज्यादा नहीं हुए। इसका कारण यह है कि गुजराती लोग सेना में भर्ती ही बहुत कम होते हैं। मैंने कुछ वर्ष पूर्व इस विषय में शोध किया था। 2009 में केवल 719 गुजराती ही सेना में भर्ती हुए थे, जबकि हमारी सेना के जवानों की संख्या 10 लाख से भी अधिक है। उल्लेखनीय है कि यह भर्ती संख्या भी एक कीर्तिमान है क्योंकि पहले कभी एक वर्ष में इतनी संख्या में गुजराती सेना में भर्ती नहीं हुए। उस वर्ष खास तौर पर जागरूकता अभियान चलाया गया था जिसके चलते गुजरात में अधिक लोगों ने भर्ती होने में दिलचस्पी दिखाई थी। इससे पहले 2008 और 2007 में गुजराती रंगरूटों की संख्या केवल 230 थी।
गुजरात की आबादी 6 करोड़ से भी अधिक है इसके बावजूद भारतीय सेना में विदेशियों की संख्या भी गुजरातियों की तुलना में अधिक है। नेपाल की आबादी गुजरात से आधी है लेकिन भारत के लिए सैनिक बनकर लडऩे वाले नेपाली गोरखों की संख्या गुजरात से कई गुना अधिक है। सच्चाई तो यह है कि भारतीय सेना की गोरखा रैजीमैंटें दुनिया की बेहतरीन सैनिक इकाइयों में से एक हैं।
इसके विपरीत गुजरात की कोई सैन्य परम्परा नहीं है और इस मामले में गुजरात कोई अनूठा नहीं है। जहां तक सेना में भर्ती का संबंध है भारत और पाक दोनों में समाज के सभी वर्गों में इसका अनुपात एक जैसा नहीं। महाकवि गालिब ने अपने बारे में एक जगह लिखा है: ‘‘100 पुश्त से है पेशा-ए-आबा सिपाहगरी’’ (100 पुश्तों से हमारा खानदान सैनिकों के रूप में लड़ता आया है)। गुजरात का कोई भी समुदाय गर्व से ऐसा दावा नहीं कर सकता, लेकिन पंजाबी, मराठे और गोरखे गर्व से ऐसा कह सकते हैं।
इसका बहादुर होने से कोई संबंध नहीं। मुख्य तौर पर इसका संबंध एक तो अवसर मिलने पर निर्भर करता है और दूसरा परम्परा पर। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपने भाड़े के अधिकतर सैनिकों की भर्ती देश के उन इलाकों से की थी जो उन्होंने स्वयं जीते थे। वैसे इस मामले में कुछ अपवाद भी हैं। 1857 के विद्रोह में चूंकि बंगाल की सेना बड़ी संख्या में शामिल थी इसलिए अंग्रेजों ने नई भर्ती मुख्य तौर पर पंजाबी हिंदुओं, मुस्लिमों और सिखों में से की थी। तीनों ही समुदायों के यह पंजाबी अधिकतर मामलों में जट्ट (यानी जाट) थे। (वैसे कई लोगों द्वारा इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया गया है कि पाकिस्तान सेना के जनरल जिया-उल-हक अराईं समुदाय से संबंधित थे जिसे किसी भी तरह से एक लड़ाकू जाति नहीं माना जाता था)।
वैसे अंग्रेजों ने जो नई भर्ती की थी वह 1857 के विद्रोह से काफी पहले ही अंजाम दी जा चुकी थी। बेंगलूर में मेरे घर के आसपास का इलाका सैन्य क्षेत्र में आता है। यहां की मद्रास सैपर्स रैजीमैंट 1780 में अपने गठन से लगातार भारतीय सेना में सेवाएं दे रही है। जब इतनी लम्बी परम्परा स्थापित हो चुकी हो तो पिता के बाद बेटा और उसके बाद उसका बेटा उसके शस्त्र पहनता जाता है। ऐसा उन इलाकों में सम्भव नहीं हो सकता जहां भर्ती प्रक्रिया का कोई इतिहास नहीं। वैसे गुजरात में कुछ ‘जंगजू’ समुदाय हैं और इन्हीं में से लोग सेना में भर्ती होते हैं। इन समुदायों में जडेजा तथा सोलंकी बिरादरियों के लोग शामिल हैं जिन्हें दरबारी समुदाय या राजपूत कहा जाता है। ऐसे में हम कह सकते हैं कि गुजरात में शहीद सैनिकों की संख्या कम तो हो सकती है लेकिन यह सिफर नहीं है।
गुजरात में से कम लोगों के सेना में जाने का एक कारण यह भी है कि इस राज्य को पंजाब या राजस्थान की तरह अधिक युद्धों का सामना नहीं करना पड़ा। गुजरात को 1297 में जीतकर अलाऊद्दीन खिलजी ने अपने राज्य में मिला लिया था। इसके बाद गुजरात में बेशक छोटे-मोटे युद्ध होते रहे लेकिन इनमें गुजरातियों की संलिप्तता बहुत कम थी। उत्तरी गुजरात के मुस्लिम तब तक आपस में लड़ते रहे जब तक अकबर ने अहमदाबाद को नहीं जीत लिया। उसके बाद गुजरात पर मुगलों का शासन स्थापित हो गया। मुगल सत्ता से टक्कर लेते-लेते मराठों ने गुजरात के काफी इलाके पर कब्जा कर लिया। आज भी बड़ौदा में मराठों का प्रभाव देखा जा सकता है। मराठों के बाद गुजरात पर अंग्रेजों का शासन स्थापित हुआ और इसकी शुरूआत वहां के सूरत शहर से हुई थी। यहां पर जितने भी युद्ध हुए उनमें गुजरात के ङ्क्षहदुुओं, मुस्लिमों और पारसियों की संलिप्तता बहुत ही कम थी।
सेना में गुजरातियों की कम संख्या होने का एक कारण यह है कि यहां सौदागरी की बहुत सशक्त संस्कृति है। यह व्यापारी मानसिकता व्यावहारिक बातों को महत्व देती है और योद्धाओं वाली शानो-शौकत तथा गरिमा की ज्यादा परवाह नहीं करती। बहुत से ‘जंगजू’ समुदाय इस तरह की जीवनशैली का मजाक उड़ाएंगे, लेकिन इस संस्कृति के कारण ही गुजरात में देश के महानतम व्यापारी और व्यवसायी पैदा हुए हैं। अपनी बात पर अड़ जाने और लड़ मरने की बजाय समझौता करने की काबिलियत के कारण ही गुजरात ने बहुत से महान राजनेता पैदा किए हैं। स्वतंत्रता से पहले हमारे तीन सबसे प्रमुख राजनीतिज्ञ गांधी, जिन्ना और पटेल गुजराती ही थे।
आजकल गुजरात की संस्कृति जिन दिलचस्प रूपों में खुद को व्यक्त कर रही है उसकी एक उदाहरण मेरी अपनी पाटीदार जाति में मिलती है। हरियाणा के जाटों की तरह हमारे समुदाय में भी लिंगानुपात बहुत कम है और अक्सर कन्या भ्रूण का पता चलने पर गर्भपात करवा दिया जाता है या फिर अबोध बच्चियों को गला घोट कर मार दिया जाता है। यह बहुत ही शर्म की बात है। पाटीदारों को अवश्य ही इस घटिया परम्परा को समाप्त करना होगा। वैसे जाटों की तरह पाटीदार लोग झूठी शानो-शौकत के लिए उन औरतों की हत्या नहीं करते जो अपने प्रेमियों के साथ शादी कर लेती हैं। इसका कारण भी यही है कि व्यापारी मानसिकता झूठी शानो-शौकत या दिलेरी को अधिक महत्व नहीं देती।
अखिलेश यादव के बयान पर लोगों का आहत होना बुरी बात नहीं, लेकिन उन्होंने जो कुछ कहा है वह वास्तविकता और तथ्यों पर आधारित है। जंगजू परम्परा की कमी होने पर गुजरातियों को शॄमदगी महसूस करने की जरूरत नहीं क्योंकि वह अन्य कई ढंगों से देश के लिए योगदान करते हैं। वैसे गुजराती लोग यह दावा कर सकते हैं कि उन्होंने बेशक बहुत से शहीद पैदा न किए हों लेकिन सबसे महान ‘गांधी’ उन्हीं में से एक हैं।