देश विभाजन पर म्यूजियम तो चाहिए लेकिन ब्रिटेन की हिस्सेदारी के बिना

Wednesday, Dec 16, 2015 - 12:01 AM (IST)

(कुलदीप नैयर)देश के विभाजन पर म्यूजियम बनाने का विचार मुझे पसंद आया। इसके लिए बहुत उत्साह था, लेकिन मैं यह देखकर डर गया कि यह ब्रिटिश म्यूजियम का हिस्सा होगा और वह इसकी देख-रेख करेगा। म्यूजियम बनाने के पीछे का सारा उद्देश्य ही इससे बेकार हो जाता है क्योंकि अंग्रेज ही विभाजन के जिम्मेदार हैं जिसमें 10 लाख लोगों की जानें गईं और इससे 3 गुना लोग उजड़ गए। 

 
बंटवारा देश छोड़ते समय जमाई गई अंग्रेजों की लताड़ थी। उन्होंने धर्म के आधार पर बांटने वाली रेखा खींच दी जिसने इस्लामिक पाकिस्तान और एक ऐसे भारत जिसका सैकुलरिज्म पूरी तरह निश्चित नहीं था, को एक संस्थागत रूप दे दिया। सच है कि भारत ने एक सैकुलर संविधान को अपनाया और इसकी प्रस्तावना  में सैकुलरिज्म शब्द है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई और 1984 में हजारों सिख मारे गए। सैकुलरिज्म झूठा लगने लगा। सैकुलर भारत इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान से 2 युद्ध और कारगिल की दुस्साहसिक घटना को टाल नहीं पाया। इससे भी बड़ी बात यह है कि दोनों के पास न्यूक्लियर हथियार हैं जो एक-दूसरे को लडऩे से रोकते हैं लेकिन दोनों तरफ के कट्टरपंथी तत्व इनका इस्तेमाल एक-दूसरे को धमकाने के लिए करते हैं।
वैसे भी कोई भी म्यूजियम लोगों के सामने सच्ची घटनाओं को नहीं रख सकता है अगर वह उस कहर को नहीं दिखा सकता जिससे लोगों को गुजरना पड़ा। कोई भी तस्वीर या पेंटिंग उस समय के घाव को फिर से ताजा कर सकती है। 
महत्व की बात यह है कि दोनों देशों के हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अच्छे संबंध नहीं हैं। अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश में दोनों समुदाय एक-दूसरे को जोडऩे वाली बातों के बदले वही बात करते हैं जो उन्हें अलग करती है। 
 
आखिरकार अंग्रेजों की ओर से अलग चुनाव क्षेत्र बनाने से पहले वे सदियों तक एक साथ रहे। हिन्दुओं ने सिर्फ हिन्दू उम्मीदवार और मुसलमानों ने सिर्फ मुस्लिम उम्मीदवारों, अपने धर्म वालों को वोट दिया। हालांकि आजादी के बाद अलग चुनाव क्षेत्र तो खत्म कर दिए गए लेकिन वोट बैंक की राजनीति ने उसकी जगह ले ली जिससे सिर्फ थोड़ा ही फर्क आया। 
 
संविधान लिखते समय गृह मंत्री सरदार पटेल ने मुसलमानों को आरक्षण देने का आफर किया था, लेकिन तत्कालीन नेताओं ने कहा कि धर्म के आधार पर आरक्षण से देश का बंटवारा हो गया इसलिए ऐसा कोई भी कदम जो हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अलगाव पैदा करता है, फिर विभाजन का कोई और रूप ले सकता है। 
 
आज समुदाय के लोग आरक्षण की मांग कर रहे हैं क्योंकि सच्चर कमेटी ने इसे उजागर किया है कि मुसलमानों की हालत दलितों से भी खराब है और सरकार को कोई सकारात्मक कदम उठाने के लिए कहा है, जैसा अमरीका ने काले लोगों को नौकरी और बड़े शिक्षण संस्थानों में दाखिला दिलाने के लिए किया।
 
किसी भी तरह से देखिए-हिन्दुओं और मुसलमानों के सामने एक-दूसरे में घुल-मिल जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। अल्पसंख्यक होने के आधार पर मिलने वाली कोई सुविधा बहुसंख्यकों की आंखों में चुभती है। पिछले वर्षों में दोनों समुदायों के बीच सामाजिक संपर्क रुक गया है। वे व्यापारी, कारोबारी या उद्योगपति के रूप में मिलते हैं लेकिन कभी भी पड़ोसी या सामान्य इंसान की तरह नहीं। उनका आपस का सम्पर्क सिर्फ व्यापार तक सीमित है और उनके संबंधों में कभी-कभार ही दिखाई देता है। 
 
मुझे याद आता है कि जब पुरानी दिल्ली के किशनगंज मोहल्ले में दंगे हुए तो मैं उनकी दिक्कतों और उनके संदेहों का अनुभव करने के लिए उनके बीच रहा। मैंने पाया कि वे अपनी ही दुनिया में रहते हैं और उन्होंने ऐसे भय पैदा कर लिए हैं जिन्हें दूर करना बहुत मुश्किल है। मैंने उस समय की सरकार से बात की और काफी जमीन लेने में कामयाब हो गया जहां उन्हें बसाया जा सके। उनका जोर मस्जिद पर था। सरकार उस पर राजी हो गई।  
 
फिर भी अंत में किशनगंज के बाशिंदों ने यह सोचा कि किसी और जगह के बदले वे अपने मोहल्ले के लोहे के गेट के अंदर ज्यादा सुरक्षित हैं। मैंने उन्हें राजी करने की नाकाम कोशिश की कि गेट को आसानी से तोड़ा जा सकता है लेकिन मेरी दलीलों का उन पर कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने उस खुली जगह के बदले गंदी बस्तियों जैसी हालत वाली जगह को चुना। आज वहां हालत और भी बुरी हो गई है क्योंकि उस जगह मुस्लिम आबादी बढ़ गई है।
 
 समुदाय मिली-जुली आबादी में रहने से डरता है कि कहीं उसे अलग न कर दिया जाए, जैसे मुम्बई के दंगों के दौरान हुआ। यह भी सच्चाई है कि हिन्दुओं में यह बात बढ़ रही है कि मुसलमानों से दूरी रखी जाए। पाकिस्तान के साथ तनाव के समय हर मुसलमान संदेह के घेरे में आ जाता है। 
 
इन बातों को ध्यान में रखने पर यह सवाल आता है कि प्रस्तावित म्यूजियम बंटवारे को कैसे दिखाएगा। पाकिस्तान ने अच्छा किया है कि म्यूजियम बनाने से पहले पंजाबी सांस्कृतिक केन्द्र बना दिया है। इस केन्द्र की कल्पना असल में प्रगतिशील कवि फैज अहमद फैज की थी। उन्होंने पुराने लोकगीतों को जमा किया जो शादी और मौत के वक्त गाए जाते थे।  इस्लामाबाद के नजदीक बने इस केन्द्र में हजारों लोग जाते हैं, खासकर नौजवान ताकि अपनी जड़ों से खुद को जोड़ सकें। 
बंटवारे पर म्यूजियम के समर्थक उसी विचार पर आगे बढ़ सकते हैं जो पाकिस्तान में हुआ। वे उस पुरानी संस्कृति को फिर से बना सकते हैं जिसमें हिन्दू और मुसलमान इंसानों की तरह रहते थे और अपना व्यापार, कारोबार तथा उद्योग करते थे। आज भी भारत और पाकिस्तान के बीच सद्भावना लाने के लिए यही हल है कि संयुक्त उपक्रम और एक-दूसरे देश में निवेश हो ताकि आपस में विश्वास पैदा हो। 
 
अगर ऐसा होता है तो दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच पैरिस में संयोग से हुई मुलाकात दोनों देशों के बीच नियमित संपर्क का रूप ले लेती। दोनों तरफ से लोग कभी भी टैलीफोन उठा सकेंगे और आपस में बातचीत कर सकेंगे तथा अपनी समस्याओं व अंदेशों को बांट सकेंगे। बैंकाक में दोनों देशों के सुरक्षा सलाहकारों के बीच की हाल की बैठक असाधारण नहीं दिखाई दी, इसके बावजूद कि वह 4 घंटे तक चली। 
 
प्रस्तावित म्यूजियम का आकार जो भी हो, हमें अंग्रेजों को इसमें किसी तरह का हिस्सा लेने से अलग रखना चाहिए। उनका शासन कोई उदार शासन नहीं था बल्कि क्रूर था। भारत ने आजाद होने के एक साल के भीतर उससे ज्यादा स्कूल खोले जितने 150 साल के साम्राज्यवादी शासन में खोले गए थे। म्यूजियम का विचार तो स्वागत के काबिल है लेकिन अंग्रेजों की किसी भी तरह की भागीदारी का नहीं।  
 
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