मानवता के मसीहा : गुरुदेव सुदर्शन

Sunday, May 01, 2022 - 06:11 AM (IST)

एक शताब्दी पूर्व 4 अप्रैल, 1923 के दिन विश्व के क्षितिज पर एक अद्भुत-अद्वितीय महापुरुष का अवतरण हुआ था। उन्हें गुरुदेव सुदर्शन लाल महाराज के नाम से सारा उत्तर भारत जानता है। यह वर्ष उनके जन्म शताब्दी वर्ष के रूप मेंं मनाया जा रहा है। उनकी गुणवत्ताओंं का अंकलन कठिन नहीं, असंभव है। उनके उपकारोंं का उल्लेख शब्दोंं की सीमा से बाहर है, वे एक संत थे, संघ के निर्माता व नेता थे। 

वे उच्च कोटि शिष्योंं के गुरु थे, महान गुरु के महान शिष्य थे। वे अनुयायियोंं के भगवान थे, अति मानव थे। उन्होंंने मानवता को सब धर्मों-स प्रदायों, संगठनों, राष्ट्रों, संस्कृतियोंं और धारणाओंं से ऊंचा माना था। वे विशुद्ध वैष्णव परिवार मेंं जन्मे, पर उन्होंंने वैष्णवत्व से ऊपर मानवता को अधिमान दिया। उन्होंंने जैन धर्म मेंं संन्यास दीक्षा ली, पर जैनत्व तथा संन्यास से भी ऊपर उनके लिए मानवता थी।
वे स्थानकवासी पर परा के महामुनि थे पर उनके लिए स्थानक, मंदिर, गुुरुद्वारे, मस्जिदें गौण थीं, मानवता महत्वपूर्ण थी। उन्होंंने विश्व के सभी धर्मग्रंथों का अध्ययन किया, गायन किया, पर उस अध्ययन और प्रचार का केन्द्र उन्होंंने मानवता को रखा। 

उन्होंंने अपने शिष्योंं मेंं संयम-साधना, समाचारी-पालन के प्रति दृढ़निष्ठा भरी। फिर भी उन्होंंने कहा कि इन कठोर से कठोर तपस्याओंं, साधनाओं  की आधारशिला मानवता है। वे याति के शिखरोंं पर आरूढ़ होकर भी मानवता के मर्म को अपने आगोश मेंं संभाले रहे। सन 1923 से 1942 तक वे सामान्य मानव के रूप में रहे, पर मानवता के मानदंडोंं की सुरक्षा मेंं दत्तचित्त रहे। 

सन 1942 से 1963 तक वे सामान्य मुनि की हैसियत से रहे, मगर उस दौरान भी मानवता के मूल्यों का संवर्धन करते रहे। 1963 मेंं जब उनके गुरुदेव व्या यान वाचस्पति श्री मदनलाल जी महाराज ने अपने देवलोक गमन से पूर्व उन्हें मुनि मंडल का मुखिया बनाया, तब से 1999 तक-अपने स्वर्गवास तक मानवता की मशाल अपने हृदय मेंं तथा अपने हाथोंं मेंं संभाले रखी, जिससे समग्र सृष्टि का अंधकार विलीन होता रहा। वे याति की स्पर्धा से बच-बच कर चले, ताकि मानवीय गुणोंं का अवमूल्यन न हो। हां, ये उनकी महानता का प्रभाव था या लोक-श्रद्धाओंं का वार, कि याति उनके चक्कर काटती रही। 

वे गम खा लेते थे और विष पी लेते थे,
और वक्त पे होंठोंं को जबरन सी लेते थे।
मानवता की दूसरी पहचान है प्राकृतिक व सहज विनम्रता। इस मानदंड पर भी वे 100 फीसदी मानव-महामानव थे। अहंभाव उन्हें कभी छू नहीं पाया। लाखोंं भक्तोंं के निॢववाद गुरु होने पर भी उनका सिर सदा झुका रहा। उन्होंंने अपने से बड़ोंं को सिर झुकाया, उनकी आज्ञा/निर्देशोंं को निभाया, उनका गुण कीर्तन किया। अपने हम उम्र लोगोंं को अपने से ज्यादा स मान दिया, उनकी योग्ताओंं को निखारने मेंं सहयोग दिया, उन्हें महिमामंडित किया तथा अपने से लघुतरोंं को कभी छोटा नहींं माना, छोटा साबित करने का तो प्रश्र ही नहीं उठता। उनमेंं निहित क्षमताओंं को उभारने के लिए प्रोत्साहन दिया, अवसर दिए, मंच दिए, प्रशंसाएं दीं। उनका बड़प्पन इसी बात मेंं था कि उनमें कभी बड़प्पन नहींं पनपा और यह विशेषता भी सहज थी। 

मानवता की तीसरी विशेषता है-अनुकंपा भाव-दयालुता। इस बिन्दू पर तो उनकी मानवता प्रगाढ़ता ले चुकी थी। हर दुखी के लिए वे दवा और दुआ बन कर जिए। वे किसी की पीड़ा देख ही नहीं सकते थे। अंदर से सिहर भी जाते थे, समाधान भी कर देते थे। उनकी निगाहोंं मेंं करुणा थी, हाथोंं मेंं पीड़ा हरने वाला जादू था। वाणी मेंं प्यार की बारिश थी तो दिल मेंं दया का दरिया था। उस संत को अनुकंपा देव कहा जाए तो सत्य के साथ न्याय होगा। 

मानवता का चौथा सद्गुण होता है अमात्सर्य अर्थात् ईष्र्या का अभाव। इस धरातल पर उन जैसा दूसरा व्यक्ति विरला ही मिलता है। भर्तृहरि ने ज्ञानवान साधकोंं की कुछ दुर्बलताओंं मेंं से प्रमुख दुर्बलता को बताते हुए लिखा है बौद्धारोंं मत्सर ग्रस्ता-ज्ञानवान लोग ईष्र्या के शिकार होते हैं। श्री सुदर्शन लाल जी महाराज ऐसे संत थे जिन्होंंने इस मान्यता का अपवाद बनकर दिखाया। 

आज के युग मेंं जहां धर्म के क्षेत्र मेंं भी प्रतिस्पर्धा तथा ईष्र्या का बोलबाला है, मानवता के उस मसीहा का जीवन, आशा की किरण बन कर सृष्टि को प्रकृति का संदेश प्रदान कर रहा है। मानवता, मानवता के उद्भव और विकास को जिस संत-संन्यासी ने अपना धर्म माना, अपना ध्येय बनाया, उसका निर्वाण 25 अप्रैल, 1999 के दिन दिल्ली मेंं हुआ। उनके जन्म से हरियाणा, दीक्षा से पंजाब, निर्वाण से दिल्ली को धन्यता मिली, तो उनके समग्र जीवन-दर्शन ने अखिल धरा की कृतार्थता ब शी थी। जरूरत है उनके आचार-विचार के प्रसार की और स्वीकार की।-बहुश्रुत श्री जय मुनि
 

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