नेता भूल जाते हैं कि ‘विशेषाधिकार’ केवल उनके पद से जुड़े हैं

punjabkesari.in Tuesday, Jul 09, 2019 - 03:33 AM (IST)

जितनी चीजें बदलती हैं, उतनी वे यथावत रहती हैं। हम हमेशा अपने नेताओं के नाज-नखरे देखते हैं। वे किसी भी नियम का पालन नहीं करते हैं। वे कानून द्वारा शासन करते हैं और अपने आप में कानून हैं। उनका कोई पहचान पत्र नहीं देखता, जांच-पड़ताल नहीं होती तथा उनकी गाड़ी में बंदूकधारी बॉडीगार्ड हमेशा रहते हैं और अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए वे रैड लाइट भी जम्प कर देते हैं और यदि उनसे कोई प्रश्न पूछे तो उन्हें उनके गुस्से का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। उनका कहना है मैं वी.आई.पी. हूं, तुम कौन हो? 

वी.आई.पी. की इस नई जमात में आपका स्वागत है। पिछले सप्ताह हमें इन वी.आई.पी. के दो कारनामे देखने को मिले। भाजपा के दिग्गज नेता और महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे और इंदौर के विधायक आकाश विजयवर्गीय ने नगर पालिका अधिकारी की क्रिकेट बैट से पिटाई की। अधिकारी का दोष यह था कि वह एक असुरक्षित भवन को गिराने के लिए जा रहे थे और आकाश विजयवर्गीय उसका विरोध कर रहा था। उनके समर्थक इसे ‘सेब नेता’ कहते हैं। 

हालांकि मोदी ने ऐसे व्यवहार की निंदा की और अब आकाश को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। दूसरा कारनामा-महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे के बेटे और कांग्रेस विधायक नीतेश राणे ने एक इंजीनियर की पिटाई की, उसे सड़कों पर घुमाया तथा एक पुल के पिलर से बांधकर उस पर कीचड़ डाला। अपने इस कारनामे पर राणे कहते हैं कि उन्होंने तो केवल अधिकारियों द्वारा काम न करने की शिकायत पर कार्रवाई की ताकि आगे से ऐसा न हो। इन दोनों मामलों में दोषी नेताओं में कोई पश्चाताप की भावना नहीं थी और यह उनकी वी.आई.पी. सोच को बताता है कि हम खास हैं। 

शक्ति का प्रदर्शन
ये लोग अपने चमचों, अपनी मुफ्त में मिलने वाली सुविधाओं और विशेषाधिकारों का प्रयोग कर शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। दोनों मामलों में आम आदमी नेताओं से नाराज है, जो पहले ही महंगाई, बेरोजगारी आदि से जूझ रहा है और पूछ रहा है कि क्या हमारा गरीब देश ऐसे नेताओं को वहन कर सकता है, क्या हमारे नेता वास्तव में इस अतिरिक्त महत्व के हकदार हैं? अधिकतर नेता अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी और सम्मानजनक ढंग से ही पूरा करते हैं। क्या हमारे नेता असली भारत की वास्तविकता को जानते हैं, जिसकी सुरक्षा की वे कसमें खाते रहते हैं? क्या वे इसकी परवाह करते हैं? क्या शक्ति के ये प्रतीक संविधान में वर्णित हमारे गणतंत्र की मूल विशेषताओं के विपरीत नहीं हैं? क्या यह जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता के लोकतंत्र के विपरीत नहीं हैं? 

21वीं सदी में हमारे सत्तारूढ़ नए महाराजा, मंत्री, सांसद, विधायक अभी भी 19वीं सदी के शक्ति के प्रतीकों को पकड़े हुए हैं और उनमें अभी भी कुछ लोग अन्य लोगों के अधिक समान होते हैं कि ओरवेलियन डिसआर्डर तथा हमेशा और मांगने के ओलिवर के रोग से ग्रस्त हैं। कुछ लोग इसे ओरवेलियन सिंड्रोम कहकर नकार देंगे किन्तु हमारी वी.आई.पी. संस्कृति औपनिवेशिक और सामंती सोच का परिणाम है और ये वी.आई.पी. सभी जगह उपलब्ध हैं और हमेशा अपने हक के लिए आगे आते रहते हैं। वे हमेशा अपनी शक्ति और संसाधनों का दुरुपयोग करते हैं और उनकी हर कीमत पर रक्षा करते हैं। इन नए महाराजाओं की सूची में मंत्री, सांसद, विधायक, अपराधियों से राजनेता बने नेता और उनके सगे-संबंधी हैं। आज खतरे की संभावना भी शक्ति का प्रतीक बन गया है। कुछ लोगों का मानना है कि राजनीति धारणा पर आधारित होती है और इसीलिए ये प्रतीक निर्वाचित पदों से जुड़े हुए हैं। 

नागरिकों की समानता सर्वोपरि
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नेताओं को विशेषाधिकार मिलने चाहिएं किन्तु ये नेता भूल जाते हैं कि ये विशेषाधिकार उनके पद के साथ जुड़े हुए हैं न कि उनके व्यक्तिगत लाभ के लिए। दुनिया भर के देशों में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्री, अध्यक्ष आदि को संरक्षण मिला हुआ है। किन्तु साथ ही लोकतांत्रिक सरकार में कानून के समक्ष नागरिकों की समानता भी सर्वोपरि है अैर इसमें ङ्क्षलग, आयु, जाति, धर्म, राजनीति, आॢथक स्थिति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता है। औपनिवेशिक, सामंती व निरंकुश शासनों के विपरीत लोकतंत्र में सभी नागरिकों पर कानून समान रूप से लागू होते हैं तथा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित कोई भी जनसेवक कानून से ऊपर नहीं होता है। किन्तु लगता है आज हम ऐसे भारत में रह रहे हैं जहां पर वी.आई.पी. महत्वपूर्ण हैं और ये लोग एक पतली-सी आधिकारिक पट्टी पर रहते हैं। यहां पर आम आदमी और खास आदमी के बीच गहरी खाई है जिसके चलते शासकों के प्रति लोगों में हताशा बढ़ रही है और लोग उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं। 

हमारे नए महाराजाओं के लिए उनकी वी.आई.पी. सुविधाओं में कटौती को वे अलोकतांत्रिक मानते हैं, जबकि वी.आई.पी. का यह विचार समानता के सिद्धांत के विपरीत है। जब ब्लैक कैट कमांडो और पुलिस संरक्षण प्रतिष्ठा के प्रतीक बन जाते हैं और जब ये सुविधाएं आम नागरिक की गरिमा की कीमत पर दी जाती हैं तो फिर इनको चुनौती देना स्वाभाविक है। लोकतंत्र में ‘क्या आप जानते हैं मैं वी.आई.पी. हूं’ जैसे वाक्यांश अप्रचलित होने चाहिएं और एक अरब से अधिक जनता को अन्नदाता का आज्ञाकारी नहीं माना जाना चाहिए। विडम्बना देखिए। जिन नेताओं को जनता की सेवा के लिए चुना जाता है वही नेता जनता को अपने तक पहुंचने नहीं देते हैं। इसके विपरीत विकसित लोकतंत्रों में लोक सेवकों पर कानून के समक्ष समानता का सिद्धांत लागू होता है। 

अमरीका में वर्तमान राष्ट्रपति के अलावा अन्य सभी लोगों की सुरक्षा जांच होती है। लोक सेवक स्वयं अपनी कार चलाते हैं, लोगों से मिलते हैं, रैस्टोरैंट जाते हैं और आम आदमी से घुल-मिल जाते हैं। ब्रिटेन में मंत्री, सांसद तथा अन्य वी.आई.पी. आम आदमी की तरह रेलगाड़ी में यात्रा करते हैं और कोई भी उन्हें सीट देने की परवाह नहीं करता है, जबकि भारत में एक मुख्यमंत्री 35 कारों के काफिले में सफर करता है। स्वीडन में कानूनों का सख्ती से पालन किया जाता है और वहां पर पदानुक्रम को महत्व नहीं दिया जाता है। वहां पर हर किसी को समान माना जाता है। राजा को छोड़कर कम्पनी के मुख्य अधिकारी से लेकर सफाईकर्मी सब बराबर माने जाते हैं। न्यूजीलैंड में हाल ही में प्रधानमंत्री के ड्राइवर को ओवर स्पीडिंग के लिए पकड़ा गया और उस पर कानूनी कार्रवाई की गई। 

वी.आई.पी. तमगे का प्रदर्शन
स्पष्ट है कि हमारे नेताओं को ‘जो हुक्म सरकार’ की संस्कृति और अपने विशेषाधिकारों व वित्तीय सुविधाओं को छोड़ देना होगा। इससे उन्हें मेरे भारत महान की वास्तविक स्थिति का पता चलेगा और वे यह समझ पाएंगे कि जब वी.आई.पी. नियमों को तोड़ते हैं, उड़ानों और रेलगाडिय़ों में सीटों पर कब्जा करते हैं तो आम आदमी को कितनी परेशानी होती है। हमारे नेतागणों को यह भी समझना होगा कि वे अपने वी.आई.पी. के तमगे का प्रदर्शन नहीं कर सकते हैं। आज नई पीढ़ी सजग है। 

लोकतंत्र सभी के लिए स्वतंत्रता के बुनियादी सिद्धांत पर आधारित है और अब वे दिन लद गए जब नेताओं का सम्मान किया जाता था। आज तो उन्हें भारत की हर समस्या का कारण माना जाता है। इस स्थिति में सरलता और किफायत एक दिवास्वप्न की तरह है। इसलिए समय आ गया है कि हमारे शक्तिशाली और प्रभावशाली नेता इस वास्तविकता को समझें। यदि वे नहीं बदले तो अप्रासंगिक बन जाएंगे। कुल मिलाकर उन्हें अपने औपनिवेशिक हैंग ओवर से बाहर आना होगा। हमें केवल दिखावा नहीं चाहिए। अब देखना यह है कि क्या हमारे नेता अपनी महाराजा की जीवन शैली जारी रखते हैं और केवल प्रतीक के लिए ‘हम तो जनता के सेवक हैं’ अपनाते हैं।-पूनम आई. कौशिश


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