ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा भी अब वर्षों तक हमारे साथ रहेगा

Monday, May 23, 2022 - 04:31 AM (IST)

ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा अब जीवंत बन गया है और संभावना है कि यदि दशकों तक नहीं तो वर्षों के लिए हमारे साथ रहेगा, जैसे कि अयोध्या के मामले में हुआ था। हमें इसे लेकर क्या अनुमान लगाना चाहिए। पत्रकार बरखा दत्त के साथ एक साक्षात्कार में हैदराबाद नैशनल यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति फैजान मुस्तफा ने इससे संबंधित कानूनी मुद्दों बारे बात की। 

केंद्रीय मान्यता यह है कि बाबरी अभियान की गर्माहट के दौरान संसद द्वारा पारित पूजा स्थलों संबंधी कानून काशी में मस्जिद का बचाव करेगा। मुस्तफा का कहना है कि आवश्यक तौर पर ऐसा नहीं है। पहला, सुप्रीमकोर्ट इस कानून को खारिज कर सकती है क्योंकि यह न्यायिक समीक्षा की इजाजत नहीं देता अर्थात जजों पर ऐसे किसी भी विवाद पर निर्णय देने पर रोक है कि किसी पूजा स्थल की वर्तमान में जो स्थिति है उसकी बजाय वास्तव में क्या वह एक मस्जिद या मंदिर अथवा गुरुद्वारा या गिरजाघर था। न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाना उस चीज के खिलाफ जाता है जिसे ‘आधारभूत ढांचा’ सिद्धांत कहा जाता है, तथा उस आधार पर प्रार्थना स्थल कानून को खारिज किया जा सकता है। और वहां से काशी विवाद ठीक उस ओर चला जाएगा जैसा कि अयोध्या के मामले में हुआ था।

दूसरा, संसद के पास प्रार्थना स्थल कानून वापस लेने का अधिकार है और वास्तव में भाजपा में कुछ लोगों ने ऐसा करने के लिए कहना शुरू कर दिया है। संसद में वर्तमान संख्या को देखते हुए यह पूरी तरह से संभव है। मुस्तफा ने फिर कहा कि मुसलमानों के लिए कोई वास्तविक कानूनी आवरण नहीं है और उन्हें इसकी बजाय हिंदुओं के साथ सुलह का प्रयास करना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि उन्हें अपने तौर पर कुछ मस्जिदें छोड़ देनी चाहिएं ताकि यह मुद्दा हमेशा के लिए समाप्त हो जाए। 

कुछ इसी तरह का, हालांकि एक अलग विषय पर पत्रकार सईद नकवी ने सुझाव दिया था, जिनके साथ कुछ दिन पहले मैंने बेंगलुरू इंटरनैशनल सैंटर में चर्चा की थी। नकवी महसूस करते हैं कि हिंदू परेशान हैं क्योंकि जहां पाकिस्तान को एक इस्लामिक राष्ट्र मिला, भारत धर्मनिरपेक्ष बना रह गया। यदि भारत को औपचारिक रूप से एक ङ्क्षहदू राष्ट्र बनाना था तो हिंदुओं में पश्चाताप की वह भावना समाप्त हो जाती। उनका कहना था कि यह भारत के लिए और भी बेहतर होता और उन्होंने ब्रिटेन का हवाला दिया जो अंग्रेज शासक के साथ एक राजशाही है लेकिन भारत के विपरीत वहां ऋषि सुनाक तथा साजिद जाविद जैसे व्यक्ति ऊंचे पदों की आकांक्षा कर सकते हैं। 

मुस्तफा तथा नकवी दोनों ही जानकार तथा अनुभवी हैं। जो वे कह रहे हैं उसे खारिज करना उचित नहीं होगा तथा हम उनके शब्दों पर मनन करके अच्छा करेंगे। मैं यहां एक अन्य पहलू पर नजर डालना चाहता हूं। क्या यह मान्यता सही है कि हिंदू अपने खुद के संविधान के खिलाफ शिकायत महसूस करते हैं? और दूसरे, काशी में जो कुछ हो रहा है तथा अयोध्या में जो हुआ है उसके पीछे की शिकायत में कोई ऐतिहासिक भावना है? 

संभवत: ऐसा है तथा घटनाक्रमों को समझने के प्रयास के उद्देश्य से हम मान लेते हैं कि ऐसा ही मामला है। यहां से आगे क्या होगा हमें यह देखना होगा कि हमारे आसपास और क्या कुछ हो रहा है तथा इसे अदालत में ताजा विवाद के साथ जोड़ें। 2014 के बाद से लेकिन विशेष तौर पर 2019 के बाद से हमने भाजपा की ओर से राज्य में कई कार्रवाइयां देखी हैं जो मुसलमानों से संबंधित हैं। 

मुस्लिम तलाक का अपराधीकरण, कश्मीर के लोकतंत्र तथा स्वायत्तता को समाप्त करना, बीफ रखने को अपराध ठहराना, हिजाब पर प्रतिबंध, निॢदष्ट स्थानों पर  नमाज पर प्रतिबंध, मंदिरों के नजदीक मुसलमानों के सामान बेचने पर रोक, कोविड फैलाने के लिए मुसलमानों को दोष देना, अधिकांश मुस्लिम घरों तथा दुकानों के खिलाफ बुलडोजरों का इस्तेमाल। ये वे चीजें हैं जिन्होंने इस देश को व्यस्त रखा है तथा गत 36 महीनों में समाचारों की सुर्खियां बनाई हैं। 

हमारे लिए, जो कुछ मुस्तफा तथा नकवी कह रहे हैं, में शामिल होकर हमें यह मान लेना चाहिए कि उपरोक्त सभी हिंदू आक्रोश के भी उत्पाद हैं जो एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के साथ टकराव में तथा मुगलों के खिलाफ उनकी ऐतिहासिक शिकायतों के परिणामस्वरूप है। क्या यही मामला है? मैं यहां इसका उत्तर नहीं देना चाहता लेकिन हमारे लिए खुद अपने से यह पूछना रुचिकर होगा कि केंद्रीय मुद्दा क्या है, यदि कोई है भी तो। खुद से पूछने वाली एक अन्य चीज है कि क्या हम आधिकारिक तौर पर अपने देश का नाम बदल कर एक हिंदू राष्ट्र बनना चाहते हैं, यदि मुसलमानों से व्यवहार तथा उनके राजनीतिक शक्ति में प्रवेश में बदलाव आता है। 

हम स्वीकार करते हैं कि इस समय भारत में कोई भी मुसलमान भारत का प्रधानमंत्री बनने की आकांक्षा नहीं कर सकता जैसा कि सुनाक या जाविद ब्रिटेन में कर सकते हैं। क्या देश का नाम बदलना इस बहिष्करण की वास्तविकता को भी बदल देगा? एक बार फिर यह सोचने की बात है। निश्चित तौर पर हर किसी को उसकी धार्मिक पहचान तक सीमित करने तथा समाज को हिंदुओं तथा मुसलमानों के तौर पर देखने की भी समस्या है। सांझी पहचान प्राचीन समाजों का चिन्ह है।

लोकतंत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई व्यक्ति है, जिसके अधिकार हैं जिनका देश को अवश्य सम्मान करना चाहिए। एक व्यक्ति को किसी समूह से अलग एकल मानव के तौर पर परिभाषित किया जाता है। मूलभूत अधिकार व्यक्तियों को लेकर है। हमारे संविधान में ‘किसी भी व्यक्ति को’ समानता से वंचित नहीं किया जा सकता (अनुच्छेद 14), देश ‘किसी भी नागरिक’ के खिलाफ भेदभाव नहीं कर सकता (अनुच्छेद 15)। 

कई मुद्दे हमारे सामने हैं। हमने दो अर्थपूर्ण व्यक्तियों की बातें सामने रखी हैं, जो वे सोचते हैं कि उस पर मैत्रीपूर्ण तरीके से कार्य किया जाना चाहिए। यह भाजपा के लिए अच्छा होगा, क्योंकि यह सरकार में है तथा यहां उल्लेखित अभियानों तथा कानूनों और नीतियों सभी में आगे है ताकि जो यह चाहे उसे  स्पष्ट तौर पर व्यक्त कर सके। यह क्या है जो शत्रुता, नाराजगी तथा ङ्क्षहसा पर रोक लगा देगा? यह जानना अच्छा होगा।-आकार पटेल

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