मोदी सरकार के लिए ‘गले की फांस’ बन गया है दलितों का मुद्दा

Thursday, Apr 05, 2018 - 04:53 AM (IST)

किसी भी सभ्य समाज में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। इस लिहाज से देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के खिलाफ सड़कों पर उतरे सभी दलितों को देश की जनता से माफी मांगनी चाहिए। एक दर्जन से ज्यादा की जानें गईं, सरकारी और गैर-सरकारी सम्पत्ति को नुक्सान पहुंचाया गया और जाम में फंसने के कारण एक बच्चा एम्बुलैंस में पैदा होते ही मर गया। इस सबके लिए आंदोलनकारियों को जिम्मेदारी लेनी ही होगी। अगर वे कहते हैं कि उनके भारत बंद की आड़ में गुंडातत्वों ने हिंसा फैलाई और आगजनी की तो पुलिस जांच में सहयोग कर ऐसे गुंडातत्वों की गिरफ्तारी में सहयोग करना चाहिए, लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती है। 

सवाल उठता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भारत सरकार ने अगर सक्रियता दिखाई होती तो शायद दलितों को इस तरह सड़कों पर नहीं उतरना पड़ता और एक दर्जन जानें बच जातीं। सवाल उठता है कि दलित नेताओं ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए ही बयान दिए और कानून की काट कानून के जरिए तलाशने की कोशिश नहीं की। सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट ने भारत की जाति व्यवस्था की सच्चाई को अनदेखा कर अपना फैसला सुनाया। जिस दिन हिंसा हुई उसी दिन मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका लगाकर अपने संजीदा होने का परिचय दिया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 

कुल मिलाकर कहानी यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने 1989 के एस.सी./ एस.टी. अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत तुरंत गिरफ्तारी पर कुछ शर्तों के साथ रोक लगा दी है। कोर्ट का कहना है कि जांच होने और उसमें गलती होने के प्रारम्भिक सबूत मिलने तक गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने फैसला देने से पहले देखा कि किस तरह अन्य कानूनों की तरह इस कानून का भी दुरुपयोग हो रहा है। वैसे दलित नेता भी स्वीकार करेंगे कि इस कानून का दुरुपयोग हुआ है। (वैसे सच तो यह है कि इस देश में ऐसा कौन-सा कानून है जिसका दुरुपयोग नहीं हुआ हो। रेप से जुड़े कानून का भी दुरुपयोग होने की बात सामने आती रही है लेकिन इसके बावजूद इस कानून को निर्भया रेप केस के बाद और ज्यादा सख्त बनाया गया है)। 

इस बात को केन्द्रीय मंत्री और दलित नेता रामविलास पासवान भी मानते हैं लेकिन उनका तर्क है कि कानून की धारा कमजोर होने से अब दलितों पर अत्याचार बढ़ेंगे क्योंकि अब सवर्णों में गिरफ्तारी का डर नहीं रहेगा। इस तरह पासवान यह कहना चाह रहे हैं कि दुरुपयोग के बाद भी सवर्णों में डर की भावना थी जो अब जाती रहेगी। यह तर्क अपनी जगह ठीक हो सकता है और कुछ-कुछ दहेज विरोधी कानून की धारा 498ए की याद दिलाता है। इस कानून का भी दुरुपयोग होने की शिकायतें आती रही थीं। करीब 15 साल पहले राजस्थान के चुरू शहर में वहां के पुलिस अधीक्षक ने 498ए से जूझ रहे जोड़ों के गिले-शिकवे दूर करने के लिए पुलिस थानों में काऊंसलर बैठाए थे। 

वहां एक ग्रामीण महिला ने बताया था कि किस तरह पति से झगड़ा होने पर उसने वकील साहब के कहने पर 498 लगा दी थी। मैंने 498 का मतलब पूछा तो उसने कहा कि उसे कुछ पता नहीं। वकील साहब और घरवालों ने जो अर्जी बनाई उस पर अंगूठा लगा दिया। ऐसा ही अन्य महिलाओं ने भी कहा था। वैसे आपको जानकर हैरानी होगी कि सुप्रीम कोर्ट की इसी बैंच ने इस धारा को भी शिथिल किया था। फैसला दिया था कि 498ए के हर मामले में वर पक्ष के लोगों की गिरफ्तारी होनी जरूरी नहीं है और एस.एस.पी. स्तर के पुलिस अधिकारी इस पर अपने विवेक से फैसला करेंगे। 

बिहार में तो दलितों की राजनीति नीतीश कुमार से लेकर लालू यादव तक करते रहे हैं और अपने-अपने हिसाब से सोशल इंजीनियरिंग भी। यही हाल यू.पी. का है जहां मायावती की पूरी राजनीति ही दलित (खासतौर से जाटव) आधारित है। मायावती ने तो राज्यसभा से इस्तीफा भी इस कारण दे दिया था कि उन्हें वहां दलितों के मुद्दों को उठाने का मौका नहीं दिया जा रहा था। 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने दलित वोट बैंक में सेंध लगाई थी। वैसे, संघ यू.पी. और अन्य राज्यों में दलितों को अपने पक्ष में करने का काम सालों से करता रहा है। यू.पी. में दलितों को जाटव और गैर-जाटव में बांट कर वोटबंदी की कोशिश की गई लेकिन फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा सीटों के उप-चुनाव में भाजपा के पिटने से मायावती और अखिलेश खुश नजर आते हैं। मायावती की कोशिश अपने दलित वोट बैंक को फिर से अपने पास लाने की है इसलिए भी दलितों के मुद्दे को जोर से उठाया जा रहा है।

कांग्रेस को मोदी सरकार पर हमला करने का मौका मिला है। कर्नाटक में अगले महीने विधानसभा चुनाव हैं, वहीं एस.सी./ एस.टी. आबादी 20 प्रतिशत से ज्यादा है। चुनावों से पहले दलितों का मुद्दा राहुल गांधी के हाथ लगा है और उसका सियासी फायदा उठाने की कोशिश करने का उन्हें पूरा हक है। ऐसा ही हक मोदी सरकार को भी था और उसने पिछले एक साल में इसका फायदा भी उठाया है। अम्बेदकर के स्मारक बनाने से लेकर उनका संग्रहालय बनाने का काम प्रधानमंत्री मोदी ने किया है। बाबा साहब भीमराव अम्बेदकर के जन्मदिन पर विशेष पखवाड़ा मनाना उनका ही फैसला था। इसी तरह मोदी सरकार ने ही पिछले साल एस.सी./एस.टी. कानून में बदलाव किया था जिससे दलितों पर अत्याचार करने वालों के खिलाफ जांच का काम तेजी से हो सके, इसमें होने वाली देरी को रोका जा सके। यह अपने आप में बड़ा फैसला था। 

बिहार चुनावों के समय संघ प्रमुख के आरक्षण की व्याख्या करने के बयान पर मोदी को बार-बार सफाई देनी पड़ी थी कि उनकी सरकार का इरादा अम्बेदकर की तरफ से दिए गए अधिकारों में कटौती करने का कतई नहीं है। एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी दलितों से रिश्ता जोडऩे में लगे रहे तो वहीं भाजपा को कुछ घटनाओं से झटका भी लगा है। हैदराबाद में छात्र रोहित वेमुला की मौत का मामला हो या फिर गुजरात में उना कांड, दोनों घटनाओं ने भाजपा के प्रति दलितों की सोच को प्रभावित किया है। रोहित वेमुला मामले में मोदी ने उनकी मां को याद किया था और कहा था कि एक मां का दर्द सिर्फ वही समझ सकते हैं तो वहीं भाजपा के स्थानीय नेता ही वेमुला के दलित होने या नहीं होने पर सवाल उठाते रहे। कुल मिलाकर चुनावी साल में दलितों का यह मुद्दा मोदी सरकार के गले की फांस बन गया है।-विजय विद्रोही

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