तंत्र में गण की संपूर्ण प्रतिष्ठापना का लक्ष्य बाकी

punjabkesari.in Wednesday, Jan 26, 2022 - 07:56 AM (IST)

भारत इस मायने में अनूठा है, जहां स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस अलग-अलग मनाए जाते हैं। सामान्य शब्दों में गण का अर्थ आमजन तथा तंत्र का व्यवस्था है। इस तरह गणतंत्र का अर्थ हुआ ऐसी व्यवस्था जिसे देश के आम लोग यानी सर्व सामान्य लोगों ने अपने लिए अंगीकार किया। आप संविधान की प्रस्तावना, राज्य के नीति निर्देशक तत्व, मौलिक अधिकारों, मौलिक कत्र्तव्यों आदि का थोड़ी गहराई से अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि इसमें व्यक्ति के साथ प्रकृति के सारे अवयवों को ध्यान में रखा गया है। यह भारतीय सभ्यता का चरित्र है कि यहां हर व्यवस्था का लक्ष्य संपूर्ण ब्रह्मांड का हित रहा है। 

वर्तमान संसदीय प्रणाली आधारित लोकतंत्र की जननी ब्रिटेन को माना गया है और इस कारण उसके संविधान का प्रभाव ज्यादातर देशों के संविधान पर है। बावजूद हर देश का चरित्र कुछ न कुछ उनके संविधान में झलकता है। भारतीय संविधान में भारत का संस्कार बार-बार प्रकट हुआ है। यह बात अलग है कि तंत्र यानी व्यवस्था या शासन के स्तर पर यह उस रूप में मुखर नहीं हो पाया जैसा होना चाहिए था। इसका परिणाम केवल भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व को भुगतना पड़ा है। 

भारत एकमात्र ऐसा देश है जो अपनी आदर्श व्यवस्था से संपूर्ण विश्व के समक्ष मानक बन सकता था। भारत को आज विश्व के सफलतम लोकतंत्रों में से एक माना जाता है। हालांकि लंदन की द इकोनॉमिस्ट इंटैलीजैंस यूनिट द्वारा जारी डैमोक्रेसी इंडैक्स यानी लोकतंत्र सूचकांक में शामिल 167 देशों में भारत को 41 वें स्थान पर रखा गया है।

यह सूचकांक 5 परिमितियों पर आधारित है, जिनमें सरकार की कार्यशैली, राजनीतिक भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति और व्यक्तियों की स्वतंत्रता शामिल है। जिन 55 देशों को दोषपूर्ण लोकतांत्रिक श्रेणी में शामिल किया गया है, उनमें भारत भी है। इसमें भारत की चुनाव प्रणाली और चुनाव आयोग की प्रशंसा है लेकिन देश की संवैधानिक संस्थाओं के बीच परस्पर टकराव को चिंताजनक माना गया है तथा संस्थागत सुधारों पर प्रश्न उठाए गए हैं। इसमें रोजगार, कृषि, किसान आदि बातें भी हैं। 

भारत की अचरज भरी विविधताओं को देखते हुए वर्तमान विश्व की कसौटी पर यह काफी हद तक सही भी है। लेकिन क्या हम स्वयं की कसौटी के ऊपर भी ऐसा ही मान सकते हैं। क्या भारत वाकई श्रेष्ठ गणतंत्र है? यह बात सही है कि पिछले कुछ वर्षों में तंत्र ने भारतीय संस्कारों की मुखर अभिव्यक्ति की है। इससे आमजन यानी गण के साथ तंत्र के अंदर भी सोच में बदलाव आ रहा है। आमजन के एक समूह में अपनी स यता और विरासत के प्रति गर्व का भाव सशक्त हो रहा है तो तंत्र के अंदर भी इसका असर है। किंतु न तो यह संतोषजनक स्तर पर है और न ही हमारे तंत्र में गण का महत्व उस रूप में प्रतिष्ठापित हुआ है जैसा होना चाहिए। 

वास्तव में बहुत कुछ ऐसा है जो गणतंत्र के रूप में हमें किसी स्तर पर संतुष्ट नहीं करता। अनेक मायनों में तो हम लक्ष्यों से विलग ही हो गए हैं। इसमें दो-राय नहीं कि सर्वसामान्य परिवारों से निकलने वाले देश और राज्यों का नेतृत्व संभाल रहे हैं। इस उपलब्धि पर हम गर्व कर सकते हैं। किंतु व्यापक संदर्भों में यहां आम नागरिक को व्यवहार में समान अधिकार या प्रतिष्ठा प्राप्त है तो इतनी ही कि 18 वर्ष पूरा करने के बाद सभी मतदान कर सकते हैं। अनेक स्तरों पर तंत्र का व्यवहार आम और विशिष्ट के साथ भेदभावपूर्ण है। 

किसी सरकारी कार्यालय, थाना, अस्पताल आदि में एक आम जन के साथ हो रहे व्यवहार तथा विशिष्ट के साथ होने वाले व्यवहार में अंतर बताता है कि तंत्र के लिए आज भी उसके गण यानी आमजन समान नहीं हुए हैं। जब तक यह स्थिति प्राप्त नहीं होती हम स्वयं को सफल गणतंत्र नहीं कह सकते। यह स्थिति भी नहीं होनी चाहिए कि 1 प्रतिशत लोगों का 73 प्रतिशत धन पर कब्जा हो। 

आजादी के बाद देश की अखंडता अवश्य बनी हुई है लेकिन एकता नहीं। पिछले कुछ वर्षों में तो एकता ऐसे हुई है कि हम चीन और पाकिस्तान जैसे भारत विरोधी देशों के व्यवहार और उनसे निपटने के मामले में भी विभाजित हैं। किसी गणतंत्र के लिए इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति और क्या हो सकती है कि हमारी आपसी फूट को विरोधी देशों के मीडिया उछाल कर देश के रूप में हमें ही कटघरे में खड़ा करते हैं। जिस राजनीति को एकता की स्थिति पैदा करनी थी, वही आज इसके विभाजन का ही कारण नहीं बन रही, बल्कि उस पर गर्व करने लगी है।

जब राजनीति इतनी भयावह विकृति का शिकार हो जाए तो फिर एकता ही नहीं तंत्र में गण की उपयुक्त प्रतिष्ठापना का पूरा लक्ष्य दुष्प्रभावित होता ही है। भारत के लिए उम्मीद इस कारण पैदा हो रही है कि जनता का बड़ा समूह कई रूपों में इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। किंतु उसे भी संगठित, सकारात्मक और सही दिशा दिए जाने का अभाव दिखता है। 

दरअसल भारतीय गणतंत्र को उसके मूल लक्ष्य यानी तंत्र में गण की महत्ता को प्रतिस्थापित करने के लिए जिस दिशा की आवश्यकता थी उसमें कतिपय कारणों से भटकाव आया है। हमने अपनी सोच और व्यवहार में कई प्रकार की विकृतियां पाल लीं।  उदाहरण के लिए, गांधी जी ने कहा कि धर्म राज्य की आत्मा है और धर्मविहीन राज्य उसी प्रकार है जैसे आत्मा विहीन प्राणी। धर्म से उनका आशय किसी प्रकार का कर्मकांड, पूजा-पाठ या किसी विशेष ईश्वर, गॉड आदि को मानना नहीं था। भारतीय संस्कृति में धर्म का अर्थ व्यापक है। 

धर्म हमें हर क्षण मनुष्य के रूप में अपने लक्ष्य और दायित्व के प्रति सचेत करता रहता है। भारतीय संदर्भ में सैकुलरवाद का अर्थ राज्य का अधार्मिक होना कतई नहीं। इसका अर्थ इतना ही है कि राज्य मजहब या पंथ के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। यह धन संचय के साथ पद और प्रभाव की लिप्सा को भी संयमित करता है। इस तरह के और भी दूसरे पहलू हैं जो बताते हैं कि हमसे चूकें हुई हैं। इसे समझ कर इसके अनुरूप नीति निर्धारण, भूमिका और दिशानिर्देशों में तंत्र की सोच और व्यवहार को बदलें तो गणतंत्र का वास्तविक लक्ष्य हासिल हो सकता है।-अवधेश कुमार


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