निराश्रित बच्चों का भविष्य सुरक्षित होना चाहिए
punjabkesari.in Saturday, Jul 29, 2017 - 12:34 AM (IST)

अक्सर हमारा सामना ऐसे बच्चों से होता ही रहता है जो भीख मांगते हों, बाल मजदूरी करते हों, गलियों, सड़कों पर बिना किसी उद्देश्य के घूमते रहते हों और जिनके सामने कच्ची उम्र से ही नशा करने या कोई बुरी लत लगने की अपार संभावनाएं हों। इसके अलावा कुछ बच्चे ऐसे भी देखने को मिल सकते हैं, जो किसी बाल आश्रम, सुधारगृह, अनाथालय में रहते हों और किसी तरह बचपन में ही उखड़ गई जिन्दगी की पटरी को फिर से जमाने की कोशिश कर रहे हों। इसी के समानान्तर कुछ ऐेसे बच्चे भी हैं, जो किसी व्यक्ति, नि:संतान दम्पति द्वारा गोद ले लिए गए हों और सुरक्षित वातावरण में पल-बढ़ रहे हों।
जहां तक निराश्रित बच्चों की सही परवरिश के लिए गोद लिए जाने की बात है तो हालत यह है कि 2015 और 2016 में कुल साढ़े 5 हजार बच्चे गोद लिए गए, जिनमें से अकेली महिलाओं द्वारा गोद लिए गए केवल पौने 200 बच्चे थे और गोद लेने वाले अकेले पुरुष तो सिर्फ 12 थे। उल्लेखनीय है कि हमारे देश में 7 करोड़ से ज्यादा महिलाएं हैं, जो अकेली रहती हैं, विवाह नहीं करना चाहतीं लेकिन वे बच्चे गोद लेना चाहती हैं ताकि उनके अंदर जो वात्सल्य, प्रेम और मातृवत् भावनाएं हैं उन्हें प्रकट करने का अवसर मिल सके।
बाल शोषण: आखिर इसका क्या कारण है कि एक ओर बेसहारा, अनाथ बाल मजदूरों की इतनी बड़ी संख्या है तथा दूसरी ओर एक विशाल आबादी ऐसी है जो इन बच्चों के सम्मानपूर्वक जीवन के लिए इन्हें अपनाना चाहती है। इसी के साथ ऐसे बच्चों की भी संख्या कम नहीं है जो चोरी-छिपे नॄसग होम, अस्पतालों से गायब करवा दिए जाते हैं। इनमें विदेशियों की संख्या भी कम नहीं है। बाल तस्करी का घिनौना रास्ता भी यहीं से निकलता है। कौन नहीं जानता कि हमारे जैसे विकासशील और अविकसित देशों से बच्चों की तस्करी उन देशों में की जाती है जिनके लिए बच्चे मौज-मस्ती से लेकर अमानवीय खेलों तक में इस्तेमाल किए जाते हैं।
गोद लेने की चाहत: कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करने के बाद गोद लेने की इच्छा रखने वाले माता-पिता ही 15 हजार से अधिक हैं, जबकि संस्थाओं द्वारा गोद दिए जा सकने वाले बच्चे 2 हजार से भी कम हैं। सन् 2016-17 में केवल अढ़ाई हजार के आसपास बच्चों को गोद दिए जाने की कार्रवाई संपन्न हो सकी, जबकि माता-पिता बनने के इच्छुक नागरिकों और बचपन के लौटने का इंतजार कर रहे बच्चे लाखों में हैं।
यहां यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि कानून को इतना कड़ा बना दीजिए कि बच्चों के साथ कोई व्यक्ति अमानवीय हरकत न कर सके बल्कि जरूरी यह है कि अधिक से अधिक इन निराश्रित और एक तरह से अभागे बच्चों को सही हाथों में देने का काम इस तरह से किया जाए कि न तो कानून का उल्लंघन हो और न ही बच्चों के साथ दुव्र्यवहार हो तथा माता-पिता बनने के इच्छुक नागरिकों के अधिकार और बच्चों का बचपन सुरक्षित हो। हमारे यहां बच्चा गोद लेने में 3-4 वर्ष निकल जाते हैं, जबकि इस पूरी प्रकिया को अमलीजामा पहनाने में 3-4 महीने से ज्यादा समय नहीं लगना चाहिए।
सरकारी उदासीनता: भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधीन ‘कारा’ नामक विभाग का काम यही है कि वह इस तरह की व्यवस्था बनाए कि न तो गोद लेने वालों और न ही गोद जाने वाले बच्चों को बहुत अधिक समय तक प्रतीक्षा करनी पड़े। जहां तक बच्चों की परवरिश की बात है तो वह तो उनके जन्म लेते ही शुरू हो जाती है। दुधमुंहे बच्चे का किसी भी मजबूरीवश त्याग करने वाला तो एक जीवन को नष्ट करने के लिए अपराधी है ही लेकिन इसके साथ ही हमारा पूरा समाज भी अपराधी बन जाता है, जब ऐसा बच्चा सही देखभाल के अभाव में मर जाता है या फिर जैसे-तैसे बड़ा हो जाता है, शिक्षा और उचित पालन-पोषण के अभाव में चोरी-चकारी, बाल मजदूरी या भीख मांग कर पेट भरने को विवश हो जाता है। कहना न होगा कि इन बच्चों की संख्या हजारों में नहीं बल्कि प्रत्येक राज्य में लाखों से लेकर करोड़ों में है।
हमारे देश में बहुत-सी संस्थाएं हैं जो इस दिशा में कार्य कर रही हैं और ऐसे बच्चों को सम्मानपूर्वक जिंदगी व्यतीत करने का अवसर प्रदान करने की कोशिश कर रही हैं लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। मिसाल के तौर पर ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’, ‘एस.ओ.एस. विलेपेज आफ इंडिया’, ‘मिशन आफ चैरिटी’ जैसी संस्थाएं देश में बहुत कम हैं उन्हें इन बच्चों के लिए पैसे, स्थान और आवश्यक सुविधाएं जुटाने में ही इतनी मशक्कत करनी पड़ती है कि उनमें से बहुत-सी संस्थाएं अपनी मिशनरी भावना का त्याग करने के लिए मजबूर हो जाती हैं। एक उदाहरण देना काफी होगा।
नोबेल पुस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी अपने संस्थान का खर्च स्वयं अपने बलबूते पर चलाने की व्यवस्था करते हैं। इसके विपरीत हजारों संस्थाएं ऐसी हैं जो सरकारी अनुदान और बड़े-बड़े सार्वजनिक और निजी प्रतिष्ठानों से बच्चों के नाम पर करोड़ों रुपए की राशि लेती हैं। यदि ये संस्थाएं उस राशि का सही उपयोग करें तो अनाथ, बेसहारा और भिखारी के रूप में एक भी बच्चा पूरे देश में दिखाई नहीं पड़ेगा लेकिन जो हकीकत है वह सब जानते हैं, बस सरकार या समाज उदासीन बने रहते हैं।
नई व्यवस्था: इस वर्ष के आरम्भ में बच्चों को गोद लेने के नियमों में कुछ बदलाव किए गए हैं। उनकी प्रासंगिकता को लेकर कोई टिप्पणी किए बिना कुछ सुझाव हैं, जिन पर यदि समाज और सरकार गंभीरता से विचार कर सके तो बेहतर होगा। सबसे पहले तो यह कि जिस तरह कोई भी परिवार विवाह बंधन में बंधने से पहले एक-दूसरे के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने को उत्सुक रहता है और सब कुछ जान लेने के बाद ही रिश्ता तय करता है, उसी प्रकार गोद लेने के इच्छुक व्यक्ति या दम्पति के लिए हफ्ता-दस दिन उस संस्था में गुजारने की व्यवस्था हो जहां से वह बच्चा गोद लेना चाहता है। उन्हें पूरा अवसर मिले कि बच्चों के साथ बातचीत करें, उनके बारे में अपनी राय बनाएं तथा अपनी और बच्चों की प्रकृति व आदतों का मिलान करें और उसके बाद ही निर्णय करें कि उनके लिए किस बच्चे को गोद लेना उचित है।
यही बात बच्चे के संदर्भ में भी आंकी जाए कि वह बच्चा उन्हें गोद दिया जा सकता है। जब यह निश्चय हो जाए तब उनकी आर्थिक स्थिति, पारिवारिक संबंधों और अन्य जरूरी बातों के प्रति आश्वस्त हुआ जाए और कानूनी प्रक्रिया इस तरह से पूरी हो कि न तो इच्छुक माता-पिता और न ही बड़े होकर उस बच्चे को कोई परेशानी हो। अभी तो हमारे यहां एक वस्तु की तरह बच्चे को इच्छुक माता-पिता के सामने पेश कर दिया जाता है कि या तो वही बच्चा गोद लें या खाली हाथ चले जाएं। हमारे सरकारी कर्णधार इतना ही समझ लें कि बच्चा निराश्रित या अनाथ अवश्य है लेकिन एक इंसान है और उसमें भी उन सभी भावनाओं का समावेश है जो किसी सामान्य परिस्थिति में जन्म लेने और पालन-पोषण किए जाने वाले बच्चे में होती हैं।