‘दल बदलू नेताओं से लोकतंत्र की नींव कमजोर पड़ जाएगी’

Friday, Mar 19, 2021 - 04:32 AM (IST)

मंगलवार को मनोनीत सांसद स्वप्न दास गुप्ता ने अपना कार्यकाल पूरा होने से एक वर्ष पहले राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए तारकेश्वर निर्वाचन क्षेत्र के लिए दास गुप्ता को भाजपा ने अपने उम्मीदवार के रूप में उन्हें मैदान में उतारने के बाद तृणमूल कांग्रेस के सांसद महूआ मोईत्रा ने राज्यसभा से उनकी अयोग्यता का मुद्दा उठाया था। दल-बदल विरोधी कानून क्या है जिसके कारण दास गुप्ता को चुनावी उम्मीदवार के तौर पर चुने जाने के बाद इस्तीफा देना पड़ा? 

संविधान के निर्माण के दौरान संविधान सभा के सदस्यों को लगा कि राज्यसभा के सदस्य ऐसे होने चाहिएं कि जो चुनाव नहीं जीत सकते हैं लेकिन उच्च सदन में चर्चा के लिए ज्ञान और विशेषज्ञता लाएंगे। एन. गोपालस्वामी अयंगर ने कहा कि राज्यसभा के लिए मनोनीत सदस्यों के लिए एक मौका है। 

शायद उन अनुभवी लोगों को जो राजनीतिक मैदान में नहीं हैं लेकिन जो सीखने और महत्व की राशि के साथ बहस में भाग लेने के लिए तैयार हो सकते हैं जिसके साथ सदन के लोगों का संबंध नहीं है। इसके कारण राज्यसभा में विभिन्न क्षेत्रों से 12 नामित सदस्य थे। उनके नामांकन के लिए व्यापक मानदंड ये हैं कि उन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवा जैसे क्षेत्रों में खुद को प्रतिष्ठित करना चाहिए। राष्ट्रपति ऐसे लोगों को केंद्र द्वारा अनुशंसित नामांकित करते हैं। नामित सदस्यों के पास निर्वाचित सदस्यों के समान अधिकार और विशेषाधिकार हैं जिनमें एक उल्लेखनीय अंतर यह है कि वे राष्ट्रपति के चुनाव में वोट नहीं दे सकते। 

दल-बदल विरोधी कानून 
1985 में 10वीं अनुसूची के तौर पर जाने जाते दल-बदल विरोधी कानून को संविधान में जोड़ा गया लेकिन 1967 के आम चुनावों के बाद राजनीतिक अस्थिरता के कारण इसको अधिनियमित किया जाना चाहिए था। यह वह समय था जब विधायकों द्वारा अपनी राजनीतिक निष्ठाओं को बदलने के बाद कई राज्य सरकारें गिर गईं। 1985 में संविधान संशोधन का मंतव्य सांसदों और विधायकों को अपने राजनीतिक दलों को बदलने से रोकना था जिसके लिए उन्होंने चुनाव लड़ा था ताकि सरकार को स्थिरता प्रदान की जा सके। राजनीतिक वफादारी को बदलने के लिए दंड संसदीय सदस्यता खत्म होने के साथ-साथ उनके मंत्री बनने पर रोक लगाना था। 

कानून उन परिस्थितियों को निर्दिष्ट करता है जिनके तहत सांसदों द्वारा राजनीतिक दलों को बदलना कानून के तहत कार्रवाई को आमंत्रित करता है। यह कानून सांसदों को लेकर तीन किस्म के परिदृश्य को कवर करता है। ऐसे सांसद जो पाॢटयां बदलते हैं। पहला वह है जब किसी राजनीतिक दल के टिकट पर चुने गए सदस्य स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता लेते हैं या सदन में वोट पार्टी की इच्छाओं से देते हैं। दूसरी संभावना यह है कि एक सांसद जिसने एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में अपनी सीट जीती हो और चुनाव के बाद एक पार्टी में शामिल हो गया हो। दोनों परिस्थितियों में सांसद पार्टी को बदलने या उसमें शामिल होने के तौर पर सांसद ने सदन में सीट खो दी हो। 

तीसरा परिदृश्य नामित सांसदों से संबंधित है। उनके मामले में कानून निर्दिष्ट करता है कि सदन में नामांकित होने के 6 महीने के भीतर, वे एक राजनीतिक पार्टी में शामिल होने का विकल्प चुन सकते हैं। समय इस प्रकार दिया जाता है कि यदि कोई नामित सांसद किसी राजनीतिक दल का सदस्य नहीं है तो वह यदि चाहे तो इसमें शामिल होने का निर्णय ले सकते हैं लेकिन अगर वे अपने कार्यकाल के पहले 6 महीने के दौरान एक राजनीतिक पार्टी में शामिल नहीं होते हैं, और उसके बाद एक पार्टी में शामिल होते हैं, तो वे संसद में अपनी सीट खो देते हैं।

दासगुप्ता के मामले में यही हुआ। 2016 में राज्यसभा के लिए अपने नामांकन के बाद वह 6 महीने की अनिवार्य अवधि के भीतर एक राजनीतिक पार्टी में शामिल नहीं हुए तथा उनकी सदस्यता दल-बदल विरोधी कानून के तहत चुनौती देने योग्य थी। वर्षों से अदालतों ने फैसला किया है कि एक पार्टी को बदलना या दूसरे में शामिल होना औपचारिक कार्य नहीं है। 

एक सांसद के कार्यों के माध्यम से एक मामले के आधार पर इसकी व्याख्या की जा सकती है। पूर्व में किसी राजनीतिक दल के लिए चुनावी मुहिम चलाना, राज्यपाल को प्रतिनिधित्व देने के लिए किसी अन्य राजनीतिक दल के चुने हुए प्रतिनिधिमंडल में शामिल होने, राजनीतिक रैलियों में उपस्थित होने या किसी राजनीतिक पार्टी के चिन्ह पर चुनाव लड़ने पर कार्रवाइयां की गई हैं। जब 1985 में कानून बनाया गया था तो वस्तुओं और कारणों के अपने बयान में कहा गया था कि राजनीतिक चूक की बुराई राष्ट्रीय ङ्क्षचता का विषय रही है।  यदि नेताओं के इस चलन से नहीं निपटा गया तो हमारे लोकतंत्र की नींव और इसके सिद्धांत कमजोर पड़ जाएंगे।-चक्षु राय 

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