प्रतिशोध की भावना से न हो एफ.आई.आर.

punjabkesari.in Friday, Jun 09, 2023 - 06:11 AM (IST)

एक पुरानी कहावत है, ‘जब घी सीधी उंगली से न निकले तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है’ यानी जब कभी भी आपका कोई काम आसानी से न हो रहा हो तो आप कोई दूसरा विकल्प अपनाएं। परंतु प्राय: यह देखा गया है कि जब भी किसी को किसी से दुश्मनी निकालनी होती है तो वे उंगली टेढ़ी करने में ही विश्वास रखते हैं। यह बात अक्सर पुलिस की एफ.आई.आर. दर्ज कराने में देखी जाती है जब लोग बिना किसी ठोस कारण के दूसरों पर एफ.आई.आर. लिखवाने के लिए न्यायालय का रुख करते हैं। हाल ही में देश की सर्वोच्च अदालत ने इसी प्रचलन को देखते हुए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जिससे देश भर की अदालतों में एफ.आई.आर. को लेकर फिजूूल की याचिकाएं आनी कम हो सकती हैं। 

जब भी किन्हीं दो पक्षों में कोई विवाद होता है, भले ही वह मामूली-सा विवाद ही क्यों न हो, एक पक्ष दूसरे पक्ष पर दबाव डालने की नियत से एफ.आई.आर. दर्ज कराने की कोशिश में रहता है। ऐसा होते ही दूसरा पक्ष दबाव के चलते समझौते पर आ सकता है। प्राय: ऐसा मामूली विवादों में ही होता है। इन विवादों को कानूनी भाषा में ‘सिविल डिस्प्यूट’ कहा जाता है। 

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3), 1973 के अनुसार यदि कोई भी पुलिस अधिकारी आपकी शिकायत पर एफ.आई.आर. दर्ज नहीं करता है तो संबंधित मैजिस्ट्रेट के पास विशेषाधिकार हैं कि वह पुलिस को एफ.आई.आर. दर्ज करने के निर्देश दे सकते हैं। आजकल इसी बात का चलन बढऩे लग गया है और प्राय: हर दूसरी एफ.आई.आर.धारा 156(3) के तहत दर्ज हो रही है। इससे देश भर में विभिन्न अदालतों में दर्ज होने वाले मामलों में भी बढ़ौतरी हो रही है। साथ ही साथ पुलिस पर भी फिजूल के मामलों को लेकर काम का बोझ बढ़ रहा है। 

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत की जाने वाली एफ.आई.आर. को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में बाबू वेंकटेश बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक के मामले में ये विस्तृत दिशा-निर्देश दिए हैं। इस मामले के तहत दो पक्षों के बीच प्रॉपर्टी की खरीद -फरोख्त को लेकर एक सिविल डिस्प्यूट हुआ था। एक पक्ष का कहना था कि दूसरा पक्ष समझौते के तहत पैसा देने के बावजूद तय समय सीमा के भीतर प्रॉपर्टी की रजिस्ट्री नहीं करवा रहा। इस मामले को लेकर प्रथम पक्ष स्थानीय सिविल कोर्ट में पहुंचा और रजिस्ट्री करवाने की मांग को लेकर एक केस डाल दिया। 

दूसरे पक्ष ने भी सिविल कोर्ट में अपना जवाब दाखिल कर दिया। करीब एक-डेढ़ साल तक मामला चलता रहा और कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। इसी बीच प्रथम पक्ष ने सोचा कि क्यों न एक एफ.आई.आर. भी दाखिल कर दी जाए? इससे दूसरे पक्ष पर दबाव पड़ेगा और वह समझौता करने को राजी हो जाएगा। सिविल डिस्प्यूट होने के नाते पुलिस ने रिपोर्ट नहीं दर्ज की। लिहाजा प्रथम पक्ष ने मैजिस्ट्रेट के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत याचिका दायर की। 

मैजिस्ट्रेट ने धारा 156(3) के तहत विशेषाधिकार अधिकार के चलते प्रथम पक्ष की याचिका पर पुलिस को निर्देश दिए कि वह इस मामले में एफ.आई.आर. दर्ज करे। एफ.आई.आर. के विरोध में द्वितीय पक्ष ने उच्च न्यायालय का रुख किया। यदि आपके खिलाफ कभी कोई गलत एफ.आई.आर. दर्ज होती है तो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482, 1973 के तहत आप उसे उच्च न्यायालय द्वारा रद्द करा सकते हैं। परंतु इस मामले में जब उच्च न्यायालय ने द्वितीय पक्ष को कोई राहत नहीं दी तो वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। 

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के दौरान 1992 का स्टेट ऑफ हरियाणा बनाम चौधरी भजन लाल का फैसला संज्ञान में लिया। इस ऐतिहासिक फैसले में एक महत्वपूर्ण बात यह बताई गई थी कि यदि किसी पक्ष को यह लगता है कि उसके खिलाफ कोई एफ.आई.आर. बदले या बदनामी की भावना से दर्ज कराई गई है तो उसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत रद्द करवाया जा सकता है। इस मामले में भी कुछ ऐसा ही पाया गया। 

इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत एफ.आई.आर. दर्ज करवाने से पहले शिकायतकत्र्ता को एक हलफनामा देना जरूरी होगा कि वह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154(1)के तहत पहले स्थानीय पुलिस के पास गया और सुनवाई न होने के कारण धारा 154(3) के तहत संबंधित उच्च पुलिस अधिकारियों के पास भी गया था। इस ऐतिहासिक फैसले से देश भर की जानता, अदालतों और पुलिस विभाग में एक सकारात्मक संदेश गया है। जिससे प्रतिशोध की भावना से व प्राथमिक कार्रवाई किए बिना की जाने वाली एफ.आई.आर. की संख्या भी घट सकेगी।-रजनीश कपूर      
 


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