1967 की तरह आज ‘आया राम, गया राम’ का युग

punjabkesari.in Tuesday, Jul 23, 2019 - 02:40 AM (IST)

जब सोना खनकता है तो जुबान बंद हो जाती है। पिछले पखवाड़े से देश में इस घूमती कुर्सी की राजनीति बखूबी देखने को मिल रही है। नई दिल्ली से लेकर कर्नाटक और आंध्र, तेलंगाना से लेकर गोवा तक इस तरह की राजनीति देखने को मिली। वास्तव में आजकल दल-बदलुओं का जमाना है क्योंकि अब राजनीतिक नैतिकता में हर कीमत पर सत्ता एक नया मानदंड बन गई है। पैसा है तो सत्ता है। 

इस तथ्य पर बेंगलूर के विधान सौंध में कुमारस्वामी के नेतृत्व में जद (एस)-कांग्रेस सरकार और भाजपा के बीच चल रही रस्साकशी बखूबी प्रकाश डालती है। कुमारस्वामी ने भाजपा पर आरोप लगाया है कि उसने उसके 15 फरार विधायकों को रिश्वत दी है और उन्हें मुम्बई के एक होटल में बंद रखा है जिसके चलते 224 सदस्यीय सदन में सत्तारूढ़ गठबंधन की सदस्य संख्या 117 से घटकर 102 रह गई है और भाजपा इसका फायदा उठाने के लिए तैयार बैठी है। इस घटनाक्रम में किसी को इस बात की परवाह नहीं है कि इससे हमारे लोकतांत्रिक मानदंडों और उनकी कार्यप्रणाली को और नुक्सान पहुंचेगा। 

इसी तरह पिछले सप्ताह नई दिल्ली में भी एक राजनीतिक खेल खेला गया जब तेदेपा के 4 राज्यसभा सांसद भाजपा में शामिल हो गए। गोवा में 10 कांग्रेसी विधायक भाजपा में शामिल हो गए और उनमें से 3 विधायकों को मंत्री बना दिया गया जिससे 40 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा की सदस्य संख्या 27 तक पहुंच गई। आंध्र प्रदेश में तेदेपा के विधायक भाजपा में शामिल होने के लिए तैयार बैठे हैं। आज भाजपा अपने दल-बदलुओं के महागठबंधन के माध्यम से देश के बड़े भू-भाग पर सत्ता में है और कांग्रेस गिने-चुने राज्यों तक सिमट गई है। 

भाजपा उत्तर, पूर्व, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में अपनी पैठ बनाने का प्रयास कर रही है और इसके लिए वह दूसरे दलों में सेंध लगा रही है, जिससे स्पष्ट होता है कि आज राजनीति प्रतिद्वंद्वियों की ताकत कम करना बन गई है और उद्देश्य पूरा होने के बाद वे आपको भी छोड़ देंगे। आज स्थिति 1967 की ‘आया राम, गया राम’ संस्कृति की तरह बन गई है जब हरियाणा में निर्दलीय विधायक गया लाल ने 15 दिनों में तीन पाॢटयां बदल दी थीं। उसके बाद भजन लाल ने अपनी जनता पार्टी सरकार को कांग्रेस में शामिल कर दिया था जिसके बाद 1960 से 1980 के दशक तक बड़े पैमाने पर दल-बदल होता रहा। इस बारे में 1993 में झामुमो सांसद सूरज मंडल ने लोकसभा में कहा था, ‘‘पैसो बोरियों में आता है। दो सांडों के बीच एक बेचारा क्या करे?’’ 

पैसे और सत्ता का मोलभाव
राजनेता गिरगिट की तरह एक पार्टी से दूसरी पार्टी की ओर अपनी निष्ठा बदलते हैं और इसके लिए पैसे और सत्ता का मोलभाव होता है और यह विधायक के प्रभाव पर निर्भर करता है। जो दल-बदल करता है उसे आलीशन होटलों में ठहराया जाता है और वहीं सरकार गिराई जाती है और बनती है और इन सब में विचारधारा, सिद्धांतों और व्यक्तिगत पसंद का कोई स्थान नहीं होता है। 

दल-बदल करने वाले और इसके नए लाभाॢथयों को संरक्षण और सत्ता में हिस्सा दिया जाता है जिसके चलते अलग-अलग विचारधारा वाली पाॢटयां एकजुट हो जाती हैं और विधायकों की सेंधमारी को स्मार्ट राजनीतिक प्रबंधन कहा जाता है। पैसे का लालच दिया जाता है, धमकाने के लिए राज्य तंत्र का प्रयोग किया जाता है, विजेता कोई पाप नहीं कर सकता है। किन्तु जब कोई दल-बदलू सत्तारूढ़ पार्टी में शामिल होता है तो उसके सारे अपराध और पाप धुल जाते हैं और सत्ता की खातिर दोस्त और दुश्मन सब एक हो जाते हैं। 

चौंकाने वाली बात यह है कि 1967 और 1983 के बीच संसद में 162 दल-बदल हुए और विधानसभाओं में 2700 दल-बदल हुए जिनमें से 212 दल-बदलुओं को मंत्री बनाया गया और 15 दल-बदलू मुख्यमंत्री बने। राजनेताओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इनका किसी खास पार्टी की ओर कोई झुकाव नहीं है और वे उसके साथ मिल जाएंगे जो उनकी सबसे बड़ी बोली लगाएगा और उन्हें पैसा और कुर्सी देगा। 1985 में दल-बदल रोधी कानून बनने से इस पर अस्थायी रूप से रोक लगी किन्तु सत्तारूढ़ पार्टी ने अपने सांसदों या विधायकों को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के अध्यक्ष बनाकर इस कानून का उल्लंघन किया। 

कानून क्या कहता है
कानून कहता है कि लोकसभा या विधानसभा अध्यक्ष दूसरे सदस्य की याचिका के आधार पर दल-बदलू को अयोग्य घोषित कर सकता है या उसे त्यागपत्र देना पड़ता है और इसमें यदि दल-बदल सत्तारूढ़ पार्टी के हक में होता है तो अध्यक्ष विधायक का त्यागपत्र स्वीकार कर सकता है और यदि ऐसा नहीं होता है तो उसे अयोग्य घोषित कर देता है। कानून की इस खामी से दल-बदल की प्रक्रिया जारी रही और स्थिति यह बनी कि दल-बदल करने वाले विधायक सरकार में मंत्री बने और उनसे यह भी प्रश्न नहीं पूछा जाता कि जनता को किए गए उनके वायदों का क्या हुआ। प्रश्न पूछा जा सकता है कि चुनाव पार्टी द्वारा जीते जाते हैं न कि व्यक्ति द्वारा। लोकतंत्र के इस बाजार मॉडल में यह मानना गलतफहमी होगी कि पार्टी विचारधारा से शासित होती है। 

इस खेल में पैसा प्रदूषित और भ्रष्ट राजनीति को आगे बढ़ाता है। ऐसे वातावरण में जहां पर दल-बदलू लोकतंत्र की आधारशिला को कमजोर करता है और जहां पर राजनीतिक अनैतिकता के माध्यम से अस्थिर सरकारें बनाई जाती हैं, वहां कोई भी पार्टी नैतिक होने का दावा नहीं कर सकती और हमारे नेता भूल जाते हैं कि इस क्रम में चुनावों के बाद वह वातावरण को विषाक्त कर चुके होते हैं। राजनीति के नैतिक मरुस्थल और चर्चा की बंजर भूमि में भाजपा दल-बदल के खेल में सिद्धहस्त हो गई है और ऐसे व्यवहार की अवसरवाद के रूप में ङ्क्षनदा करने की बजाय इसे राजनीतिक महत्वाकांक्षा का संकेत माना जाता है। 

विचारधारा और नैतिकता
मोदी का न खाऊंगा, न खाने दूंगा का नारा राजनीतिक नैतिकता के चेहरे पर उछल गया है। राजनीतिक चर्चा में विचारधारा और नैतिकता को कुचलने के नेता के अधिकार को जायज ठहराया जाता है क्योंकि ऐसे नेताओं को अपने हित साधने होते हैं। जन सेवा के बारे में प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं क्योंकि हर कोई 10 नम्बरी पर भारी पडऩा चाहता है। इसलिए यह झूठ और धोखाधड़ी का खेल आज भारत की वास्तविकता बन गई है। सत्ता ही सब कुछ है। अत: प्रश्न उठता है कि क्या अल्पकालिक लाभ दीर्घकालिक कीमत पर भारी पड़ेंगे? क्या इस तरह के अवसरवाद को राजनीतिक चर्चा के योग्य माना जा सकता है? 

किन्तु आप कह सकते हैंं कि यही लोकंतत्र है तथापि गत वर्षों में लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांत को कुचल दिया गया है। हमारे नेता भूल गए हैं कि लोकतंत्र अपने आप में एक साध्य नहीं है, अपितु वह साध्य अर्थात जनता के कल्याण और खुशहाली को प्राप्त करने का साधन है और यह तभी संभव है जब समॢपत नेताओं द्वारा संचालित स्वच्छ और स्थिर सरकार देश को सर्वोच्च प्राथमिकता दे। यह देखने को मिल रहा है कि कोई भी पक्ष दल-बदल पर रोक लगाने के लिए तत्पर नहीं है क्योंकि इससे उन्हें लाभ मिलता है। नैतिक मूल्यों के बिना राजनीति लोकतंत्र के लिए खतरनाक है क्योंकि इससे हर स्तर पर अविश्वास पैदा होता है और आज की राजनीति के समक्ष गंदा नाला भी साफ लगता है। इसलिए लोकतंत्र के लिए संघर्ष जारी रहेगा। देखना यह है कि क्या अवसरवादी दल-बदलुओं की भीड़ में विचारधारा, मूल्यों और ईमानदारी को कोई स्थान मिलेगा?-पूनम आई. कौशिश


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