अल नीनो का असर, कहीं मानसून न बरपाए कहर

punjabkesari.in Wednesday, Jun 21, 2023 - 04:30 AM (IST)

भारत की अर्थव्यवस्था और जनसंख्या का बहुत बड़ा तबका मानसून पर निर्भर रहता है। भले ही हमने तरक्की के तमाम मुकामों को छू लिया है, बावजूद इसके, प्रकृति पर न कभी किसी का नियंत्रण रहा और न होगा। लेकिन हर रोज विकास की दुहाई पर पर्यावरण के लिए बढ़ाई जा रही मुसीबतों के चलते कहीं न कहीं आसमान से पाताल और समुद्र से लेकर नदी, झरने, झीलें, पोखर और कुएं तक कैसे प्रभावित हो रहे हैं, जग जाहिर है। कभी बाढ़-बारिश तो कभी सूखा दुनिया की नियति बनती जा रही है। तमाम वैज्ञानिक शोधों और घटनाओं से इतना तो सब समझने लगे हैं कि प्रकृति का जो रूप अब दिख रहा है, वह असामान्य है। 

मानसून को पहले से तय समय चक्र के अधीन माना जाता है। उसी आधार पर बारिश का पहले भी अनुमान लगाते थे और अब भी। तमाम वैज्ञानिक संसाधन और एक से एक तरकीबें, यहां तक कि सैटेलाइट से मानसूनी गतिविधियों पर लाइव निगाहें रखने में कामयाबी के बावजूद इस बात का जवाब किसी के पास नहीं कि सब कुछ सामान्य लगने के बावजूद मानसून को लेकर पूर्वानुमान क्यों गलत हो जाते हैं? आता हुआ मानसून भटक जाता है तो आया हुआ बिदक जाता है। 

पहले ऐसा कम होता था। इस बार मानसून को लेकर चिन्ता की लकीरें हर कहीं दिख रही हैं। भारत मौसम विज्ञान विभाग यानी आई.एम.डी. की वह भविष्यवाणी सभी हलकों में चिन्ता का सबब बनी हुई है, जिसमें मानसून के दौरान अबकी बार 70 फीसदी अल नीनो विकसित होने का अंदेशा है। इससे खरीफ की फसल पर बहुत बुरा प्रभाव तय है क्योंकि भारत कृषि प्रधान देश है और 70 प्रतिशत आबादी खेती पर ही निर्भर है। अल नीनो और ला नीना क्या है, इसकी तासीर और असर अब आमतौर पर सभी समझने लगे हैं। सरल भाषा में इस तरह कह सकते हैं कि अल नीनो के कारण तापमान गर्म होता है, तो ला नीना के कारण ठंडा। अल नीनो प्रशांत महासागर में पेरू के निकट समुद्री तट के असामान्य रूप से गर्म होने की घटना है, जिसका अर्थ स्पेनिश में छोटा लड़का होता है। लेकिन जल्द इस शब्द का इस्तेमाल तटीय सतह के पानी के गर्म होने की बजाय अनियमित एवं तीव्र जलवायु परिवर्तनों के लिए किया जाने लगा। 

चूंकि अल नीनो एक नियमित चक्र नहीं है, इसलिए इसकी भविष्यवाणी संभव नहीं। यह दो से सात वर्षों के अंतराल में अनियमित रूप से होता है। इससे समुद्र का तापमान बढ़ जाता है और मध्य व पूर्वी भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में सतह का पानी असामान्य रूप से गर्म होता है, जिससे सतही तापमान 4.5 डिग्री तक बढ़ जाता है। इसका असर जीव-जन्तुओं पर भी पड़ता है। कभी अल नीनो का प्रभाव तुरंत तो कभी बाद में दिखता है। इससे तमाम तरह की आर्थिक गतिविधियां खासी प्रभावित होती हैं। पुराने प्रभावों से इतना तो समझ आता है कि इसका नकारात्मक प्रभाव ही ज्यादा दिखा। अमरीका और भारत अल नीनो के जबरदस्त असर को झेल चुके हैं। 

मानसूनी बारिश पर ही हमारे किसानों की निर्भरता है। साइंस जर्नल के हालिया नए शोध में 2023 के अल नीनो पर जो चेतावनी है, वह बेहद डरावनी है क्योंकि इसका प्रभाव अगले 6 बरसों तक दिखेगा। इससे ग्लोबल इकानॉमी को 3 ट्रिलियन डॉलर तक के नुक्सान का अंदेशा भी है। यदि पुराना रिकॉर्ड देखें तो 2016 में एक बड़े अल नीनो का ऐसा असर दिखा, जो सबसे गर्म साल के रूप में दर्ज भी हुआ। लेकिन एक सच्चाई और है कि तब के मुकाबले अब ग्लोबल वाॄमग का असर बेहद बढ़ा है। इसलिए अल नीनो का कहर तय है। जहां भारत में इस पर गहरी चिंता दिख रही है, वहीं अमरीका के वाणिज्य विभाग द्वारा साल 1970 में गठित राष्ट्रीय महासागरीय और वायुमंडलीय प्रशासन, यानी नैशनल ओशियानिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एन.ओ.ए.ए.), जिसका उद्देश्य जलवायु, मौसम, महासागरों और तटीय स्थितियों में परिवर्तन को समझना तथा उनकी भविष्यवाणी करना है, खुद बेहद चिंतित है। इस संस्था को आशंका है कि इसको मई, जून, जुलाई में करीब 80 प्रतिशत बनना, जून, जुलाई और अगस्त तक बढ़कर 90 प्रतिशत होना ही है। वहीं भारत मौसम विभाग इसके 70 प्रतिशत विकसित होने की आशंका जता चुका है। मौसम वैज्ञानिकों के ये दावे सच हुए तो खरीफ फसल पर जबरदस्त असर से इंकार नहीं किया जा सकता।

उधर ला नीना भी स्पेनिश शब्द है जिसका अर्थ छोटी लड़की होता है। यह एक शीत घटना है जो भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर क्षेत्र की सतह पर निम्न हवा के दबाव से बनती है। ला नीनो बनने के कई अलग-अलग कारण हैं, जिनमें सबसे मशहूर है कि जब व्यापारिक पवन यानी ट्रेड विंड, जिसे भारतीय आमतौर पर पुरवाई कहते हैं, जो पूर्व से बहने वाली तेज गति की हवा होती है, उसके बहने से समुद्री सतह का तापमान कम होने लगता है। इसी कम होते तापमान को ला नीना कहते हैं, जिसका असर पूरी दुनिया पर पड़ता है। जिस वर्ष यह असर दिखाती है, उस वर्ष तापमान औसत से ज्यादा ठंडा होता है। 

यदि मौसम वैज्ञानिकोंकी चेतावनियों को देखें तो साफ है कि वर्ष 2023 का बचा समय भारत के लिए ङ्क्षचता से भरा रहने वाला है। जहां एक ओर पहले ही जबरदस्त गर्मी की आशंका है, तो दूसरी ओर कई राज्यों में सूखे का खतरा, खेती और आम जनजीवन पर बुरे असर का डर बना हुआ है। हमारे यहां अप्रैल के बाद से ही जल स्तर तेजी से गिरने लगता है। जल स्रोत सूखने की स्थिति में पहुंचने लगते हैं। वैसे भी जंगलों की कटाई, गिट्टियों में तबदील होते पहाड़ तो नदियों का सीना चीरकर रेत निकालने से लगभग सभी जल स्रोतों की स्थिति काफी दयनीय हो गई है। जलाशयों के जल्द सूखने से पीने के पानी तक का गंभीर संकट और फसलों की सिंचाई बड़ी मुसीबत बन जाती है। 

इसी साल फरवरी में कई जगह पारा 33 डिग्री सैल्सियस तो  राजस्थान और गुजरात में कई जगह 40 डिग्री को छू चुका है। वहीं साल 2022 का मार्च भला कौन भूलेगा, जब पारा 33.1 डिग्री सैल्सियस पहुंच गया, जो सामान्य से 1.86 डिग्री सैल्सियस ज्यादा था और जिसने पिछले 122 सालों के औसत तापमान का रिकॉर्ड भी तोड़ा था। जलवायु परिवर्तन अध्ययन संस्थान यानी आई.सी.सी.एस. गर्मी को लेकर चेतावनी में कह चुका है कि अल नीनो की मौसमी घटना के कारण इस साल मानसूनी बारिश में काफी कमी आएगी जो 90 प्रतिशत तक हो सकती है।-ऋतुपर्ण दवे     


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