खतरनाक स्थिति में पहुंची देश की ‘अर्थव्यवस्था’

Sunday, May 12, 2019 - 12:32 AM (IST)

2014 के चुनावों के दौरान नरेन्द्र मोदी ने अर्थव्यवस्था के बारे में एक विचारहीन टिप्पणी की थी। तब मैंने कहा था ‘अर्थशास्त्र के बारे में मोदी का ज्ञान पोस्टेज स्टैम्प के पीछे लिखा जा सकता है।’ मेरा मानना है कि यह एक संतुलित टिप्पणी थी लेकिन मोदी ने मुझे उस टिप्पणी के लिए माफ नहीं किया है! यह कोई मुद्दा नहीं है लेकिन समय ने यह साबित कर दिया है कि मैं सही था।

मोदी सरकार के पांच साल पूरे होने पर हम सरकार की गलतियों के बारे में एक लम्बी चार्जशीट तैयार कर सकते हैं। मेरे ख्याल में इस सूची में सबसे ऊपर अर्थव्यवस्था का प्रबंधन होगा। अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के मुख्य कारण हैं (1) मैक्रो इकोनॉमिक्स के बारे में प्रधानमंत्री को जानकारी और जानने की इच्छा न होना; (2) वित्त मंत्री का यह अनुमान लगाने में असफल रहना कि नीतियों में बदलाव के प्रति वाणिज्य, व्यापार, निवेशक और उपभोक्ता किस तरह प्रतिक्रिया देंगे तथा (3) सरकार की ओर से अर्थशास्त्रियों का तिरस्कार और नौकरशाहों पर अत्यधिक निर्भरता।

एक अलग तरह की लीग
किसी प्रदेश सरकार को चलाना भारत सरकार का शासन चलाने से बिल्कुल अलग है। किसी मुख्यमंत्री को विनिमय दर, चालू खाता घाटा अथवा मॉनिटरी पालिसी या बाहरी कारकों (जैसे कि अमरीका और चीन के बीच ट्रेड वार अथवा अमरीका द्वारा ईरान पर प्रतिबंध) के बारे में ङ्क्षचता नहीं करनी पड़ती। यदि कोई मुख्यमंत्री राज्य के राजस्व का प्रबंध कर लेता है, खर्चों पर नियंत्रण, केन्द्र सरकार से बड़ी ग्रांट पा लेता है तथा पर्याप्त निजी निवेशकों को आकॢषत कर लेता है तो वह आर्थिक प्रबंधन में निपुण मान लिया जाता है। बहुत से जाने-माने मुख्यमंत्री, जो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, ने राज्य की अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में नाम कमाया है।

भारत की अर्थव्यवस्था का प्रबंधन एक अलग प्रकार की लीग में खेलने की तरह है। कई सफल मुख्यमंत्री वित्त मंत्री बनाए जाने पर लडख़ड़ा गए। दूसरी तरफ डा. मनमोहन सिंह कोई भी राजनीतिक अनुभव नहीं होने के बावजूद एक सफल वित्त मंत्री रहे क्योंकि वह मैक्रो इकोनॉमिक्स में दक्ष थे और मशहूर अर्थशास्त्रियों से लगातार सम्पर्क में रहते थे। डा. सिंह के बिना उदारीकरण अथवा अनेक आर्थिक सुधार सम्भव नहीं होते।

गलती पर गलती
जब अर्थव्यवस्था का प्रबंधन किसी नौसिखिए अथवा तानाशाह के हाथों में सौंपा जाता है तो उसके परिणाम शीघ्र ही सामने आ जाते हैं। नोटबंदी इसका एक बड़ा उदाहरण था। कोई भी अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को यह सलाह नहीं देता कि प्रचलन में मौजूद 86 प्रतिशत करंसी को अवैध घोषित कर दो, इसके बावजूद यह किया गया क्योंकि अरुण जेतली ने कभी भी सार्वजनिक तौर पर इसकी जिम्मेदारी नहीं ली, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह निर्णय पूरी तरह से प्रधानमंत्री का था। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री इसकी जिम्मेदारी तो लेते हैं लेकिन यह स्वीकार करने से इंकार करते हैं कि नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार दिया, छोटे व मध्यम उद्योगों को खत्म कर दिया, नौकरियों को नष्ट कर दिया तथा कृषि क्षेत्र में संकट को बढ़ावा दिया।

नोटबंदी के बाद और भी गलत निर्णय लिए गए। लोगों के आर्थिक व्यवहार को समझे बिना बजट तैयार किए गए; जी.एस.टी. को खराब तरीके से बनाया गया और जल्दबाजी में लागू किया गया; एन.पी.ए. के मामले से अपरिपक्व तरीके से निपटा गया। इसके अलावा गैर-यथार्थवादी राजस्व लक्ष्यों का पीछा किया गया तथा आर्थिक समस्याओं से निपटने के लिए त्वरित नौकरशाही समाधान निकालने की कोशिश की गई।

निराशाजनक रिपोर्ट कार्ड

  • वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामले विभाग ने 5 वित्त वर्षों के अंत में एक रिपोर्ट कार्ड तैयार किया है। इस रिपोर्ट में नोटबंदी के बाद के वर्षों का डाटा दर्शाया गया है। इस रिपोर्ट के कुछ मुख्य बिन्दू इस प्रकार हैं:
  • वर्ष 2016-17, 2017-18 और 2018-19 में वास्तविक जी.डी.पी. ग्रोथ 8.2 प्रतिशत से कम होकर 7.2 प्रतिशत से 7.0 प्रतिशत हो गई। 2018-19 की अंतिम तिमाही में ग्रोथ 6.5 प्रतिशत थी।
  • सकल वित्तीय घाटा जी.डी.पी. का 3.5, 3.5 तथा 3.4 प्रतिशत था। 2018-19 के लिए अंतिम आंकड़ा संदिग्ध है क्योंकि संशोधित अनुमान के मुकाबले टैक्स कलैक्शन में 11 प्रतिशत की कमी आई है।
  • 2018-19 में पूंजी खर्च स्थिर था जोकि जी.डी.पी. का 1.7 प्रतिशत था। 2015-16 में भी यह इतना ही था।
  • जी.डी.पी. अपस्फीतिकारक 3.1 प्रतिशत से बढ़ कर 4.2 प्रतिशत हो गया।
  • चालू खाता घाटा जी.डी.पी. के 0.6 प्रतिशत से बढ़ कर 1.9 प्रतिशत से 2.6 प्रतिशत हो गया।
  • निजी उपभोग खर्च और सरकारी उपभोग खर्च दोनों स्थिर रहे।
  • निश्चित निवेश दर डी.जी.पी. के 28.2 और 28.9 प्रतिशत पर स्थिर रही जोकि 2011-12 के 34.3 प्रतिशत से काफी कम थी। जी.वी.ए. ग्रोथ रेट 6.3 से घट कर 5.0 से 2.7 प्रतिशत रही, जिससे कृषि क्षेत्र के संकट का पता चलता है।
  • 2018-19 में पोर्टफोलियो इन्वैस्टमैंट का कुल प्रवाह नैगेटिव रहा।

भाजपा के दावों की हवा निकल गई है। अर्थव्यवस्था की स्थिति के बारे में हमारा डर सही साबित हुआ है। इसके अलावा सी.एस.ओ. द्वारा घोषित विकास दरें संदेह के घेरे में हैं। एन.एस.एस.ओ. जिसने 45 वर्षों में सबसे अधिक बेरोजगारी की बात कही थी, ने सी.एस.ओ. द्वारा प्रयोग किए गए एम.सी.ए. 21 डाटा बेस में कमी पाई है। यह पता चला है कि एम.सी.ए. 21 डाटा बेस की 36 प्रतिशत कम्पनियां निष्क्रिय या लापता हैं!

भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले कई वर्षों के मुकाबले सबसे कमजोर स्थिति में है। इसलिए मोदी अर्थव्यवस्था से ध्यान हटाना चाहते हैं। 12 और 19 मई को वोट देने जा रहे लोगों के लिए यह एक बड़ी चेतावनी है            -पी. चिदम्बरम

Advertising