राजनीतिक अस्थिरता की जननी है आर्थिक अस्थिरता

punjabkesari.in Saturday, Apr 27, 2019 - 04:31 AM (IST)

चुनावी माहौल में राजनीतिक अस्थिरता ने बड़ी-बड़ी पार्टियों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है। नेताओं को विकास या बेहतरी जैसे  सैद्धांतिक शब्द भूल गए हैं तथा उनके मुंह पर या तो भ्रष्टाचार है या पाकिस्तान या फिर जुमलेबाजियां। इसके बावजूद देश लगातार तरक्की करता ही रहेगा। फिर भी एक आर्थिक अस्थिरता का माहौल बना हुआ है, जिसके कारण राजनीतिक अस्थिरता ने भी देश को परेशानी में डाल रखा है। 

बहुत से विश्लेषक यह कह रहे हैं कि इस बार स्थानीय पार्टियों पर निर्भर होगा कि सरकार किस करवट बैठती है लेकिन ऐसा होने के पीछे जो तथ्य हैं, उनकी तरफ अधिकतर इशारा नहीं कर रहे। आज आवश्यकता उन तथ्यों की निशानदेही की है, जिन्होंने देश में ऐसा माहौल पैदा किया, जिसका असर आज हर भारतीय पर नजर आ रहा है। खासतौर पर मिडल क्लास का तो जैसे कचूमर ही निकल गया है। 

एम.आई.टी. के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी का कहना है कि देश की अर्थव्यवस्था 5 प्रतिशत से 9 प्रतिशत बढ़ती ही रहेगी तथा यह वृद्धि कई देशों के मुकाबले बहुत अधिक है परन्तु उन्होंने यह भी कहा है कि यह वृद्धि वहां तक नहीं पहुंच सकेगी, जो देश के आर्थिक बदलाव के लिए जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा है कि कम जी.डी.पी. दर तथा उच्च बेरोजगारी दर वाली अर्थव्यवस्था देश के लिए अच्छी खबर नहीं है। 

बढ़ रही आर्थिक असमानता
देश की जो सम्पन्नता है, वह तो बढ़ रही है परन्तु उतनी ही तेजी से आर्थिक असमानता भी बढ़ रही है। यही मामले की जड़ है। पैसा कुछेक हाथों में, कुछेक कार्पोरेट घरानों के पास जमा हो रहा है। आम आदमी के पास खरीद शक्ति ही नहीं है। उसके पास से रोजगार छिन रहा है। इसी आर्थिक असमानता ने समाज में हलचल पैदा की हुई है। लोगों को समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर पैसा जा कहां रहा है? उनके कारोबार क्यों खत्म हो रहे हैं? 

पूंजीवाद अपने ही नैतिक मूल्य तोडऩे लगा!
पूंजीवाद के बदलते रूप को हम पहचानने की कोशिश करते हैं तो सभी मामलों की पेचीदगी की गांठें खुलनी शुरू हो जाती हैं। दो नियम हैं, जिनकी तरफ ध्यान देने की जरूरत है। दो बड़ी तबदीलियां आर्थिक सिस्टम में नजर आ रही हैं। पहली है आम कीमत (मार्जिनल कॉस्ट) का कम होना, बल्कि लगभग जीरो तक पहुंच जाना। उदाहरण के लिए हम ‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटैनिका’ लेते हैं। उनका कितना बड़ा ढांचा है, कितने कर्मचारी रखे गए हैं, कितना प्रसार है पर वह हमें बड़ी कीमत पर जानकारी मुहैया करवाता है। 

दूसरी तरफ हमारे पास विकीपीडिया है। उनके कुछ कर्मचारी हैं, बहुत कम खर्च है तथा लोग स्वयं ही डाटा अपलोड कर रहे हैं। वह हमें लगभग मुफ्त में सेवाएं दे रहा है। अब इस व्यवस्था ने पूंजीवाद को असमंजस में डाल दिया है। उसकी अपनी ही खोज उसे नई तरफ मोड़ देती है तथा वह हर तरीके से अपनी लालसा पूरी करने की दौड़ में बहुत कुछ पूंजीवादी मूल्यों के उलट भी कर जाता है। दूसरा बड़ा बदलाव  है ट्रांजैक्शनल कॉस्ट में कटौती। इसके लिए एक हम एक उदाहरण लेते हैं कि एक आदमी कार रखता है, सारे खर्च करता है, ड्राइवर है, गैराज है, इंश्योरैंस है, रोड टैक्स है वगैरा। वह कार इसलिए रखता है कि बहुत जरूरत चाहे न भी हो परंतु यदि उसे एमरजैंसी हेतु कार की जरूरत पड़ेगी तो वह कार कहां से लेगा। अब क्या हुआ? उसकी इस ङ्क्षचता को ऊबेर व ओला जैसी टैक्सियों ने समाप्त कर दिया, जो एमरजैंसी के लिए 24 घंटे मौजूद हैं। इसने एक बार फिर पूंजीवादी सिस्टम को प्रभावित किया है तथा एक बड़ा बदलाव हमारे सामने है। 

प्रदूषण एक बड़ा सवाल
तीसरा इसके साथ ही जुड़ा बहुत गंभीर मुद्दा है जिसका अभी तक कोई समाधान नहीं मिल रहा, वह है प्रदूषण का मुद्दा क्योंकि हम देखते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के बदलने से तथा जबरदस्त मुकाबले की भावना के साथ यदि पैदावार बढ़ी है तो साथ ही प्रदूषण भी कई गुणा बढ़ गया है। इन दोनों का विरोधाभासी रिश्ता है, पूंजी पैदा करेंगे तो प्रदूषण भी बढ़ेगा ही। सिस्टम में लालच का बोलबाला इतना है कि इस तरफ कोई ध्यान ही नहीं दे रहा, बल्कि हम तो हैरान रह गए थे कि इस बहुत ही गंभीर मामले को लेकर राजनीतिक दलों ने यदि चर्चा भी शुरू की थी तो वह राजनीतिक दोषारोपण तक ही सीमित होकर रह गई। 

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि यह प्रदूषण पंजाब में पराली जलाने से पैदा होता है। मामले को क्या से क्या बना देते हैं ये नेता। यह पूंजीवाद के बदलते मॉडल के कारण है। इसे गंभीरता से समझने की जरूरत है। इसे समझे बिना किसी फैसले पर नहीं पहुंचा जा सकता। बड़ी बात यह भी है कि मौजूदा समय में प्रदूषण को कैसे घटाया जा सकता है, इसका कोई हल नजर ही नहीं आ रहा। 

इससे स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक अस्थिरता ने कैसे राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो देश की आॢथकता को पटरी पर लाने का नारा देकर 2014 के चुनाव मैदान में उतरे थे, आज वह राष्ट्रवाद, पाकिस्तान, एयर स्ट्राइक के मुद्दों पर उतर आए हैं। हालांकि कांग्रेस के 22 लाख खाली पद भरने या गरीबों के खाते में हर साल 72,000 रुपए डालने के बयान भी आर्थिक अस्थिरता के सिस्टम की तरफ ध्यान दिलाते हैं परंतु उनका लक्ष्य भी इसका समाधान ढूंढना न होकर लालच देना ही है। जरूरत इस बात की है कि नई तबदीलियों के मद्देनजर वैकल्पिक सिस्टम की तलाश की जाए जिसका नैतिक आधार हो और जो आम लोगों को राहत दे सके।-देसराज काली(हरफ-हकीकी)


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