आस्था के कवच में कानफोड़ू शोर

punjabkesari.in Monday, Apr 18, 2022 - 05:50 AM (IST)

पिछले दशक में जल, वायु, ध्वनि और भूमि प्रदूषण पर गहरी चिंता जताई जा रही थी। अब ऐसा नहीं दिखता या तो हमने ठीक-ठाक कर लिया है या आंखें फेर ली हैं। नजर डालने से पता लगता है कि हालात हम सुधार नहीं पाए। हाल ही मेंं ध्वनि प्रदूषण को लेकर सामाजिक स्तर पर कुछ सक्रियता दिखी है, खास तौर पर धार्मिक स्थानों पर।

लाऊडस्पीकर से ध्वनि की तीव्रता बढ़ती जा रही है। कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं जरूर हैं जो गाहेबगाहे आवाज उठाती हैं, लेकिन पता नहीं क्यों उन्हें किसी क्षेत्र से समर्थन नहीं मिल पाता। हो सकता है ऐसा इसलिए हो क्योंकि ध्वनि प्रदूषण की समस्या प्रत्यक्ष तौर पर उतनी बड़ी नहीं समझी जाती और शायद इसलिए क्योंकि हमारे पास विलाप के कई बड़े मुद्दे जमा हो गए हैं। 

जब तक हमें कोई दूसरा उपाय न सूझे तब तक आर्थिक विकास के लिए सब तरह के प्रदूषण सहने का तर्क माना जा सकता है, लेकिन धार्मिक स्थानों से हद से ज्यादा तीव्रता की आवाजें बढ़ती जाना और इस हद तक बढ़ती जाना कि वह ध्वनि प्रदूषण तक ही नहीं बल्कि सामुदायिक सौहार्द और सामाजिक समरसता के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रदूषण भी पैदा करने लगे, यह स्वीकारना मुश्किल है। 

कानून है कि 75 डेसिबल से ज्यादा तीव्रता की ध्वनि पैदा करना अपराध है, लेकिन इस कानून का पालन कराने में सरकारी एजैंसियां या पुलिस बिल्कुल असहाय नजर आती हैं। धार्मिक स्थानों पर बड़े-बड़े लाऊडस्पीकरों की यह समस्या आस्था के कवच में बिल्कुल बेखौफ बैठी हुई है और इसके बेखौफ हो जाने का एक पक्ष वह राजनीति भी है, जो अपने वोट बैंक को संरक्षण देने के लिए कुछ भी करने की छूट देती है। 

जहां तक सवाल आस्था या धार्मिक विश्वास का है तो समाज के जागरूक लोग और विद्वत समाज क्या दृढ़ता के साथ नहीं कह सकता कि धार्मिक स्थानों पर बड़े-बड़े लाऊडस्पीकर लगा कर दिन-रात जब चाहे तब जितनी बार तेज आवाजें निकलना सही नहीं है, इसका आस्था या धर्म से कोई लेना देना नहीं है। आस्था बिल्कुल निजी मामला है। धार्मिक विश्वास नितांत व्यक्तिगत बात है। उसके लिए दूसरों को भी वैसा करने को तैयार करना उन पर दबाव डालना या अपने ही वर्ग के लोगों को भयभीत करना बिल्कुल ही नाजायज है। 

हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी खूबी है कि किसी भी तरह के अन्याय या अनदेखी के खिलाफ न्यायपालिका सजग रहती है। आस्था और धार्मिक विश्वासों के कारण पनपी जटिल समस्याओं के निदान के लिए न्यायपालिका ही आखिरी उपाय दिखती है। यहां यह समझना भी जरूरी है कि अदालतों को भी साक्षी के तौर पर समाज के जागरूक लोगों, विद्वानों और विशेषज्ञों का सहयोग चाहिए। 

गौरतलब है कि दुनिया में कई देशों में लाऊडस्पीकर द्वारा अजान की ध्वनि सीमाएं तय की गई हैं। इनमें यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड्स, स्विट्जरलैंड, फ्रांस, जर्मनी, नॉर्वे और बैल्जियम जैसे देश शामिल हैं। लाओस और नाइजीरिया जैसे देशों ने स्वघोषित रूप से भी लाऊडस्पीकर द्वारा अजान की या तो सीमाएं तय की हैं या फिर मस्जिदों में लाऊडस्पीकर को प्रतिबंधित किया है। इसी परिप्रेक्ष्य में अगस्त 2014 में मैंने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर देश के सभी धर्मस्थलों से लाऊडस्पीकर हटाने की मांग की थी।

मेरे वकील ने याचिका में साम्प्रदायिक दंगों के इतिहास की सूची भी जोड़ दी थी, जो इन लाऊडस्पीकर्स के कारण देश में हुए थे। इस याचिका से सभी धर्मों के मानने वाले बहुत प्रसन्न हुए थे। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री एच.एल. दत्तु ने याचिका को कुछ सुनवाई के बाद यह कह कर लौटा दिया कि अदालत पहले ही ध्वनि प्रदूषण के स्तर की सीमा निर्धारित कर चुकी है। इसलिए शासन व पुलिसकर्मी से कहो कि वह उस आदेश को लागू करवाएं। पर क्या धरातल पर ऐसा कभी होता है? नहीं होता। 

आज मस्जिदों में अजान के लाऊडस्पीकर पर शोर को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है उसका जवाब 5 बार हनुमान चालीसा पढऩा या लाऊडस्पीकर मंदिरों को बांटना नहीं है। इससे तो शोर और बढ़ेगा, शांति भंग होगी और दंगे भी भड़केंगे। टी.वी.18 के संवाददाता सौरभ शर्मा, उनकी पत्नी अंकिता शर्मा और 6 वर्षीय बच्चे को ‘माता के जागरण’ के नाम पर, अदालती आदेश के विरुद्ध, देर रात तक शोर मचाने वाले हुड़दंगियों ने बुरी तरह अपमानित किया, उनकी पत्नी के कपड़े फाडऩे की धमकी देते हुए दूर तक दौड़ा दिया। उधर वृंदावन, जो कि एक वैष्णव भक्ति का शहर है, जहां मुसलमान गिनती के रहते हैं, वहां भी ब्रह्ममुहूर्त में पूजा, ध्यान के समय लाऊडस्पीकर द्वारा अजान के शोर से खलल पड़ता है। इसलिए लगता है मुझे अब दोबारा अपनी इस याचिका को सर्वोच्च अदालत में दाखिल करना पड़ेगा।-विनीत नारायण
 


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