जातिवाद का दबदबा : सावधान, यह किसी को नहीं छोड़ता
punjabkesari.in Wednesday, Oct 15, 2025 - 03:46 AM (IST)
कश्मीर से कन्याकुमारी, महाराष्ट्र से मणिपुर तक जाति विस्फोट और शोषण का बोलबाला है। पिछले हफ्ते हरियाणा के वरिष्ठ आई.पी.एस. अधिकारी वाई. पूरन कुमार (52) की आत्महत्या से जुड़ी दुखद परिस्थितियां इस बात को रेखांकित करती हैं कि भारतीय नौकरशाही के उच्चतम स्तरों में जातिगत भेदभाव अभी भी व्याप्त है। 8 पृष्ठों के अपने बयान में उन्होंने हरियाणा के डी.जी.पी. और रोहतक के एस.पी. सहित अपने वरिष्ठों पर ‘घोर जातिगत भेदभाव, सार्वजनिक अपमान और अत्याचार’ का आरोप लगाया।
अफसोस, कुमार के ङ्क्षनदनीय बयान, राजनीतिक दबाव और जनाक्रोश के बावजूद, यह मामला दलित पीड़ितों से जुड़े अपने पुराने रास्ते पर चल रहा है- शुरुआत में एफ.आई.आर. में आठों आरोपियों के नाम नहीं थे और न ही एस.सी./एस.टी. (अत्याचार निवारण) अधिनियम की कठोर धाराएं लगाई गईं, जिन्हें उनके परिवार के विरोध के बाद ही जोड़ा गया था। आज तक, दोष तय करने के लिए पोस्टमार्टम के नाम पर उनका अंतिम संस्कार रोक दिया गया है। लेकिन यह कोई अकेला मामला नहीं है।
रोजाना अखबार और सोशल मीडिया में खूनी खबरें छपती रहती हैं- उत्तर प्रदेश के रायबरेली में एक दलित की पीट-पीटकर हत्या, राजस्थान के सवाई माधोपुर में एक बुजुर्ग दलित महिला पर हमला, बिहार और मध्य प्रदेश में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार, तमिलनाडु में दलित व्यक्ति को जलाया जाना, पश्चिम बंगाल में एक आदिवासी सांसद पर जानलेवा हमला, कर्नाटक में एक आदिवासी लड़की की नृशंस हत्या, जिसकी परिणति सुप्रीम कोर्ट में भारत के मुख्य न्यायाधीश गवई पर जूता फैंकने के रूप में हुई, जो गहराते सामाजिक जहर और जातिवाद को सुलगाए रखने की लगातार राजनीतिक कोशिशों का एक अनिवार्य परिणाम है।
हैरानी की बात है कि जातिगत अस्पृश्यता के उन्मूलन के 76 साल बाद भी, भारत ‘ऊंची’ जाति की पहचान से जुड़ी शक्तियों और विशेषाधिकारों का लोकतंत्रीकरण करने में विफल रहा है, सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़ा यह समुदाय सत्ता के गलियारों से दूर बना हुआ है और राज्य की कल्याणकारी नीतियों का केवल निष्क्रिय प्राप्तकत्र्ता बनकर रह गया है। 27 प्रतिशत से ज्यादा लोगों का कहना है कि वे अपने घरों में किसी न किसी रूप में इसका पालन करते रहते हैं। अस्पृश्यता ब्राह्मणों (52 प्रतिशत) में सबसे व्यापक है, उसके बाद 35 प्रतिशत जैन, 33 प्रतिशत ओ.बी.सी., 24 प्रतिशत अगड़ी जातियां, 15 प्रतिशत एस.सी. और 22 प्रतिशत एस.टी. हैं। इससे भी बदतर, जैसा कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2013-23 के बीच दलितों और हाशिए पर पड़े लोगों के खिलाफ अपराध 46 प्रतिशत और आदिवासियों के खिलाफ 91 प्रतिशत बढ़े हैं, जिससे धमकी और दमन की राजनीति भारत के लोकतंत्र की नींव को खतरा पहुंचाती है।
इस प्रकार राजनीतिक रूप से, जाति एक प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक दोष रेखा है जो कार्यस्थलों और मतदाता विकल्पों पर राजनीतिक और सामाजिक रूप से संरेखण को प्रभावित करेगी और राज्य द्वारा सकारात्मक कार्रवाई का मूल बनेगी। भाजपा और कांग्रेस दोनों मानते हैं कि उन्हें जाति को एक राजनीतिक श्रेणी के रूप में संबोधित करना होगा, न कि संरक्षण के माध्यम से। मंडलीकरण से प्रेरित होकर, राजनीति अब जाति के आधार पर ध्रुवीकृत हो गई है और चुनाव जातिगत आधार पर लड़े जा रहे हैं। मतदाता प्रतिगामी लेकिन निर्णायक रूप से जाति के आधार पर मतदान कर रहे हैं। आखिर, सिर्फ 15 प्रतिशत वोट बैंक वाले ब्राह्मण और ठाकुर ही क्यों राज करें? साफ है कि आज राजनीतिक चेतना जाति के स्तर पर ही खत्म हो जाती है। बिहार को ही लीजिए। जाति राजनीति का मूल व्याकरण बनी हुई है, जो एक लामबंदी के औजार के रूप में जाति के आधार पर ध्रुवीकृत है और चुनाव जातिगत आधार पर लड़े जा रहे हैं। सामाजिक गठबंधनों के साथ-साथ राजनीति में भी बदलाव आया है, जिसके तहत हर पार्टी उम्मीदवार चुनने से पहले मतदाता और निर्वाचन क्षेत्र की जातिगत संरचना जानना चाहती है।
हिंदू एकता की अपनी अवधारणा के विरुद्ध जातिगत सर्वेक्षणों से जूझने के बाद, भाजपा ने आज इसे अपना लिया है, जो एक महत्वपूर्ण वैचारिक बदलाव का संकेत है। आज, इसने गैर-प्रमुख ओ.बी.सी. और दलितों को टिकट, मान्यता और संदेश देने में भारी निवेश किया है। इसके अलावा, यह बिहार में ओ.बी.सी. के संभावित पलायन को लेकर चिंतित है और निर्वाचन क्षेत्र तथा मतदाता आधार के साथ-साथ जाति के आधार पर टिकट वितरण को संतुलित कर रहा है। यादव लहर में निहित राजद को भी अपने जनाधार से वैसा ही दबाव झेलना पड़ रहा है जैसा नीतीश की जद (यू), पासवान की लोजपा और अन्य दलों को झेलना पड़ रहा है।
दुर्भाग्य से, वोट बैंक हासिल करने के लिए किसी ने भी उनके द्वारा छोड़े गए धोखे पर ध्यान नहीं दिया। जाति के राजनीतिकरण को न समझना दोधारी तलवार है। जाति को राजनीति की उतनी ही जरूरत है, जितनी राजनीति को जाति की। जब जाति समूह राजनीति को अपनी गतिविधियों का क्षेत्र बनाते हैं, तो उन्हें अपनी पहचान स्थापित करने और सत्ता व पद के लिए प्रयास करने का मौका मिलता है। सवाल यह है कि क्या जाति राष्ट्रीय राजनीति को और भी विभाजित नहीं कर देगी?
स्पष्ट रूप से, कोई भी पार्टी अपने जातिगत वोट बैंक को खतरे में नहीं डालना चाहती। नि:संदेह, जाति एक फिसलन भरी ढलान है। अगर भारत को आगे बढऩा है, तो समाज का पुननिर्माण समानता के आधार पर करना होगा। यह सामाजिक समूह की राजनीति के नासमझ लोकलुभावनवाद का समय नहीं है क्योंकि यह लोगों को जाति के आधार पर और विभाजित करेगा तथा अमीर और गरीब के बीच की खाई को और बढ़ाएगा। समय ही बताएगा कि जाति का दांव क्या रंग दिखाता है। अगर भारत को सफलता के शिखर पर पहुंचना है, तो उसे तुच्छ राजनीति में नहीं रमना चाहिए।-पूनम आई. कौशिश
