जातिवाद के दानव को बोतल में बंद कर दिया जाना चाहिए

punjabkesari.in Wednesday, Sep 04, 2024 - 06:26 AM (IST)

लगभग तीन दशक पहले राजनीतिक दलों द्वारा पैदा किया गया जाति का जिन्न पुन: अपना फन फनफनाने लगा है क्योंकि ‘इंडिया’ गठबंधन के दलों ने भारत की सबसे पुरानी कमजोरी जातिवाद को पुन: मुद्दा बना दिया है। हालांकि यह मुद्दा बहुत जटिल है। कई बार यह गहरे आघात करता है और कई बार यह धोखे और प्रपंच के माध्यम से जातीय मतभेद बढ़ाता है, किंतु किसे परवाह? यह मुद्दा अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण से संबंधित संसदीय समिति के समक्ष आया। राजग के घटक दल जद (यू) और लोजपा ने इस पर चर्चा की मांग की। वस्तुत: पिछले दो वर्षों में विपक्ष शासित बिहार में जद (यू) और राजद ने जातीय सर्वेक्षण शुरू किया और अब इसका प्रभाव अन्य राज्यों ओडिशा, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक पर भी पडऩे लग गया है क्योंकि यह लोगों की सामाजिक राजनीतिक चेतना को जगा रहा है और यह चुनावी टैग और पहचान से आगे बढ़ रहा है तथा लोगों को जातीय आाधार पर विभाजित कर रहा है, जैसा कि अडवानी की अयोध्या रथ यात्रा के दौरान मंडल-कमंडल विवाद हुआ। 

‘इंडिया’ गठबंधन इस सोच में है कि जब जाति आजीविका के मुद्दों का केन्द्र बन जाएगी, जो पहचान और आरक्षण के केन्द्र में है, तो इससे धर्म की बजाय जातीय आधार पर अधिक चुनावी लाभ मिलेगा। कांग्रेस नेता ओर लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने पहले ही बिगुल बजा दिया है कि जितनी आबादी, उतना हक और उनका उद्देश्य प्रधानमंत्री मोदी को गद्दी से हटाना है। विपक्ष के नेताओं का कहना है कि जातीय जनगणना का लक्ष्य अन्य पिछड़े वर्गों का कल्याण है, किंतु यह वास्तव में हिन्दू मतों को जातीय आधार पर विभाजित कर 2024 के चुनावों के बाद भाजपा को कमजोर करने के लिए किया जा रहा है। एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता के अनुसार, जातीय जनगणना एक अन्य मुद्दे को और भाजपा के लिए समस्या पैदा कर देगी। फिर धुरी मोदी समर्थक और मोदी विरोधी बनेगी और हम अन्य पिछड़े वर्गों को एकजुट करने का प्रयास करेंगे, जो मंडल 2.0 होगा जो मंडल 1.0 से अलग होगा, जिसमें अन्य पिछड़े वर्गों का आक्रामक धु्रवीकरण किया गया था। उनका मानना है कि जातीय जनगणना उनके मतों को कई गुना बढ़ाएगी। 

लोगों में आरक्षण के बारे में भय पैदा करके लोकसभा चुनाव में भाजपा से दलित और अन्य पिछड़े वर्गों के मतदाताओं को बड़ी संख्या में दूर किया गया था और इसलिए धर्म आधारित धु्रवीकरण में भाजपा का स्थान सिमट गया था। विशेषकर इसलिए भी, कि राजग के कुछ सदस्य और घटक दल मंडल के लाभार्थी हैं और वे अपने राजनीतिक एजैंडा में जातीय जनगणना को अगला ताॢकक कदम मानते हैं। मंडल राजनीति के बाद अब जातीय आधार पर धु्रवीकरण हो रहा है और चुनाव जातीय समीकरणों के आधार पर लड़े जा रहे हैं। मतदाता निर्णायक रूप से जातीय आधार पर मतदान कर रहे हैं हालांकि यह पश्चगामी कदम है। उनका सोचना है कि ब्राह्मण और ठाकुर, जिनका वोट बैंक केवल 15 प्रतिशत है, उनका वर्चस्व क्यों रहे और राजनीतिक जागरूकता जातीय स्तर पर जाकर समाप्त हो रही है। 

इसके अलावा जातीय जनगणना ऐतिहासिक अन्याय और भेदभाव को दूर करने में भी सहायक होगी और सरकार की कल्याण योजनाओं और नीतियों को निर्धारित करने में उपयोगी होगी तथा यह सुनिश्चित करेगी कि इन योजनाओं का लाभ लक्षित लाभार्थी तक पहुंचे और इस तरह वंचित वर्गों को एक नई पहचान मिलेगी और उनके दृष्टिकोण में बदलाव आएगा। किंतु न जाने क्यों, कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने अपनी जातीय जनगणना को ठंडे बस्ते में डाल रखा है क्योंकि इससे लिंगायत और वोकालिंगा के बीच विवाद पैदा हो सकता है। राहुल गांधी चाहते हैं कि राज्य में आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को हटा दिया जाए और इसे वह समय की मांग बताते हैं क्योंकि जातीय जनगणना 90 वर्ष पूर्व 1931 में की गई थी। दुखद तथ्य यह है कि वोट बैंक प्राप्त करने की चाह में किसी ने इस बारे में नहीं सोचा कि वे कैसा दानव पैदा कर रहे हैं। 

प्रश्न यह भी उठता है कि क्या जातीय जनगणना से राष्ट्रीय राजनीति और विखंडित नहीं होगी? भाजपा के लिए जातीय जनगणना बड़ा मुद्दा नहीं बनता, यदि वह हाल के चुनावों में हिन्दू वोट बैंक को बचाए रखने में सफल होती और उसे 542 सदस्यीय लोकसभा में 240 सीटें नहीं मिलतीं। यही नहीं, उसे उत्तर प्रदेश में करारी हार का सामना करना पड़ा और उसे केवल 33 सीटें मिलीं, जबकि 2019 में 62 सीटें मिली थीं। घाव पर नमक छिड़कने का कार्य अयोध्या में जनवरी में राम मंदिर के उद्घाटन के बाद फैजाबाद सीट पर भाजपा की हार ने किया, जहां पर कुर्मी, दलित और मौर्य का 8 प्रतिशत वोट बैंक है। भाजपा ने अभी तक इस बारे में कोई रुख नहीं अपनाया क्योंकि यह उसके हिन्दुत्व अभियान के लिए एक बड़ी चुनौती हो सकता है और उसका वोट बैंक बिखर सकता है। हालांकि वह विभिन्न जातियों को हिन्दुत्व के अधीन एकजुट करना चाहती है। जातीय जनगणना करने का राजनीतिक जोखिम भी हो सकता है। 

अन्य पिछड़े वर्गों को जनगणना में शामिल करने से उनकी संख्या के बारे में एक ठोस आंकड़ा मिलेगा और इससे राज्य के संस्थानों, विशेषकर न्यायपालिका, शिक्षा आदि में अन्य पिछड़े वर्गों की हिस्सेदारी की जांच करने में सहायता मिलेगी, जिन पर अब तक समाज के उच्च वर्गों का एकाधिकार था और दलित तथा बहुजन समाज की उनमें छोटी सी उपस्थिति है। इससे इन समूहों के लिए आरक्षण की मांग बढ़ सकती है और विद्यमान सतत् समीकरण और राजनीतिक प्रतिनिधित्व गड़बड़ा सकता है। परिणामस्वरूप सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों में एक राजनीतिक चेतना विकसित होगी और सामाजिक न्याय के लिए एक नया आंदोलन शुरू हो सकता है, जो भाजपा को हाशिए पर ले जा सकता है। भाजपा विपक्ष के ‘जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ के नैरेटिव का प्रत्युत्तर देने के लिए न्यायमूर्ति रोहिणी आयोग की रिपोर्ट को लागू कर सकती है, ताकि वह पिछड़े वर्गों में कमजोर जातियों का समर्थन प्राप्त कर सके। किंतु इस रणनीति में भी जोखिम है। 

इस बार भाजपा को जातीय समूहों को हिन्दुत्व और सुदृढ़ राष्ट्रवाद के नाम पर एकजुट करने के फार्मूले को छोडऩा होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हाल ही में किसी तरह की जातीय जनगणना के बारे में सजग किया है क्योंकि यह बहुत संवेदनशील मुद्दा है और यह केवल चुनावी लाभ के लिए नहीं किया जा सकता। वर्तमान में जातीय जनगणना के लिए मांग बढ़ती जा रही है और भाजपा के पास भी अवसर है कि वह इसे अपने राष्ट्रीय एकीकरण के आह्वान के विरुद्ध विभाजनकारी एजैंडा के रूप में प्रस्तुत करे। भाजपा का राष्ट्रीय एकीकरण आह्वान हिन्दुत्व पर केन्द्रित है। इसलिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने घोषणा की है कि सनातन धर्म ही जातीय जनगणना का एकमात्र प्रत्युत्तर है, चाहे इससे कोई पंडोरा बॉक्स ही क्यों न खुल जाए। 

जाति समर्थकों के विचारकों का कहना है कि जाति एक सामाजिक-आर्थिक वास्तविकता है और इसके बारे में ठोस आंकड़े होने से सही नीतियां बनाई जा सकती हैं। किंतु जातीय जनगणना से विभाजन,  सामाजिक मतभेद बढ़ेगा, जातीय भावनाओं को बल मिलेगा, पहचान की राजनीति मजबूत होगी और जातीय आधार पर देश का विभाजन होगा। एक प्रगतिशील समाज के रूप में जातीय जनगणना आधुनिकता के प्रयोजन को विफल कर देगी। आज के आधुनिक जीवन में जाति का महत्व नहीं रह गया है किंतु यह भारत के सामाजिक ताने-बाने और राष्ट्रीय एकता को स्थायी रूप से खंडित कर सकती है। नि:संदेह जातिवाद के दानव को बोतल में बंद कर दिया जाना चाहिए। यह अविवेकपूर्ण सामाजिक समूहों की राजनीति का समय नहीं है क्योंकि इससे लोग जातीय आधार पर और बंटेंगे तथा अमीरों और गरीबों के बीच खाई और बढ़ेगी। यदि भारत को सफलता की सीढिय़ों पर आगे बढऩा है तो उसे ऐसी तुच्छ राजनीति से बचना चाहिए।-पूनम आई. कौशिश 
 


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