‘पुलिस सुधार’ समय की मांग

Sunday, Sep 08, 2019 - 03:13 AM (IST)

राज्य में कानून व्यवस्था एवं शांति को बनाए रखने में पुलिस की अहम भूमिका होती है। लेकिन मौजूदा समय में पुलिस की कार्यशैली और व्यवहार पर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं। पुलिस हमारी उम्मीदों को पूरा क्यों नहीं कर पाती, पुलिसिंग की स्थिति पर आधारित एक रिपोर्ट में इसके अनेक कारण बताए गए हैं, जिनमें ड्यूटी का समय निर्धारित न होना, त्यौहारों पर छुट्टियां न मिलना, इसके अतिरिक्त कार्यकाल के दौरान मात्र 6 फीसदी को अतिरिक्त ट्रेनिंग मिल पाना शामिल है। पुलिस से लोगों का भरोसा और अपराधियों का डर दिनोंदिन कमजोर हो रहा है। 

पुलिसिंग का कार्य भारत में दिन-प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है। प्रत्येक वर्ष ड्यूटी के दौरान लगभग 500 से 800 पुलिसकर्मियों की जानें जाती हैं। यह आंकड़ा विश्व के अन्य देशों में 8 से 10 तक ही सीमित रहता है। भारत में पुलिस को न तो आवश्यक संसाधन उपलब्ध हैं और न ही पुलिस पर विश्वास किया जाता है। यहां तक कि भारत में पुलिस के उच्च अधिकारियों के समक्ष भी दिए गए बयान को साक्ष्य नहीं माना जाता है। 

अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार प्रति एक लाख जनसंख्या पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिएं लेकिन भारत में प्रति एक लाख जनसंख्या पर 189 पुलिसकर्मियों की ही स्वीकृति है और उसमें भी लगभग 35 प्रतिशत की कमी है। जहां एक तरफ संख्या बल में कमी है वहीं दूसरी तरफ पुलिस बलों के लिए वाहनों की कमी और फोरैंसिक सपोर्ट नाममात्र का है। इसके साथ-साथ अवसंरचनात्मक कमियां भी हैं। बहुत सारे मौकों पर पुलिसकर्मी अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन तो करना चाहते हैं लेकिन वाहनों की कमी या स्टाफ की कमी से वे ऐसा नहीं कर पाते।  इन सबके बावजूद भी पुलिस हमारी सेवा में दिन-रात लगी रहती है। 

ड्यूटी के अधिक घंटे 
भारत के 7 राज्यों में पुलिस कर्मियों को लगभग 18 घंटों तक ड्यूटी करनी पड़ती है। बिहार में कहीं-कहीं ऐसे थाने हैं, जहां मात्र एक ही पुलिसकर्मी की तैनाती है। हालांकि कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां पर ज्यादा काम के बदले पुलिस कर्मियों को एक माह का अतिरिक्त वेतन दिया जाता है लेकिन राज्य सरकारों को यह समझने की आवश्यकता है कि एक माह का अतिरिक्त वेतन दैनिक तनाव को कम नहीं कर सकता। कुछ राज्यों ने सप्ताह में एक दिन छुट्टी देने का भी प्रावधान किया लेकिन संख्या बल की कमी के कारण यह मूर्तरूप नहीं ले सका। 

ज्यादातर प्रदेशों में राजनीतिक नेतृत्व सामंतवादी है और पुलिस व्यवस्था पर वे खर्च नहीं करना चाहते। वहीं कुछ राज्य बेहतर सुधार भी कर रहे हैं। राज्यों के पास धन का अभाव नहीं है बल्कि धन के सदुपयोग की कमी जरूर है। धन को खर्च कहां करना है, राज्य इसकी प्राथमिकताएं ही नहीं बना पाते, जिसकी वजह से प्रतिवर्ष राष्ट्रीय सम्पत्ति का जो नुक्सान होता है इसका आकलन जी.डी.पी. के 9 प्रतिशत तक किया गया है। सरकारें लगातार केन्द्रीय पुलिस बलों की संख्या में वृद्धि कर रही हैं जो तर्कसंगत नहीं है। 

दो अलग विंग में विभाजित करने की आवश्यकता
पुलिस व्यवस्था में सुधार लाने का मतलब है, समुद्र में मंथन कर अमृत निकालना। राजनीतिक नेतृत्व पुलिस व्यवस्था में बदलाव लाना नहीं चाहता क्योंकि पुलिस उन्हीं के इशारों पर चलती है। फिर भी जनता के दबाव, विभिन्न आंदोलनों, पुलिस सुधारों पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद आंशिक परिवर्तन हमें पुलिस सुधार में देखने को मिल रहा है। पुलिस को अब कानून-व्यवस्था और जांच-पड़ताल दो अलग विंग में विभाजित करने की आवश्यकता है, जिससे पुलिस का दबाव कम किया जा सके। 

अभी तक यदि किसी क्षेत्र विशेष में कोई त्यौहार होता है या किसी वी.आई.पी. का आगमन होता है तो समस्त पुलिस बल उसी में व्यस्त हो जाता है। इस दौरान जांच प्रक्रिया बाधित रहती है। इसलिए समय की मांग है कि पुलिसिंग व्यवस्था को गतिशील बनाने के लिए पुलिस को दो विंग में विभाजित किया जाए। यह तभी संभव हो सकता है जब आपराधिक जांच प्रक्रिया फोरैंसिक साक्ष्यों पर आधारित हो। इसलिए इस पर भी गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। 

इन सबके अतिरिक्त कार्यस्थल पर ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है, जिससे पुलिसकर्मी दबाव मुक्त होकर कार्य कर सकें। पुलिस बल में जो रिक्तियां हैं उनको केन्द्रीय पुलिस बलों के 45 वर्ष से ज्यादा आयु वर्ग के पुलिसकर्मियों से भरा जा सकता है। इससे सरकार के धन और समय दोनों की बचत होगी। पुलिस बलों का वेतन भी बढ़ाए जाने की आवश्यकता है जिससे वे अपना काम ईमानदारी के साथ कर सकें। लेकिन कानून व्यवस्था राज्य का विषय होने के बावजूद राज्य सरकारें पुलिस सुधार को लेकर गंभीर नहीं हैं। इसके लिए हम सबको आवाज उठानी होगी तभी हम इस सिस्टम को मजबूत कर पुलिसिंग व्यवस्था को सुधार सकते हैं।-कुलिन्दर सिंह यादव

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