‘डोमीसाइल प्रमाणपत्र’ के फैसले से साम्प्रदायिक आधार पर बंट गया है जम्मू-कश्मीर

Saturday, Jan 14, 2017 - 12:38 AM (IST)

कश्मीर किधर जा रहा है? इस प्रश्न का कोई सीधा उत्तर उन लोगों द्वारा भी नहीं दिया जा सकता जो इस प्रदेश के बहुत अस्त-व्यस्त हो चुके मामलों के बारे में किसी प्रकार की जानकारी रखते हैं। राज्य के राजनीतिक तंत्र के सभी स्तरों पर स्थिति ‘केलन के पात-पात में पात’ जैसी बनी हुई है और निश्चय से यह कहना मुश्किल है कि किस स्तर पर बैठा अफसर या नेता किस-किस तरह अपना उल्लू सीधा कर रहा है और किस-किस को अपने हित के लिए प्रयुक्त कर रहा है?

सुविधा की इस राजनीति और मौजूदा जटिलताओं के ऐन बीचों-बीच गौण बातें भी महत्वपूर्ण मुद्दा बन जाती हैं जिनके बूते अलगाववादी रोष प्रदर्शनों के सहारे लगातार ब्लैकमेङ्क्षलग जारी रखे हुए हैं। इससे घाटी के वे लोग ही घाटे की स्थिति में हैं जो कानून का पालन करते हैं। इस हकीकत का साक्षात्कार हमने तब किया था जब गुंडा तत्वों ने अलगाववादियों और हुॢरयत समर्थकों के साथ मिलकर घाटी में अनेक स्कूल जला दिए थेे।

न केवल अलगाववादियों बल्कि प्रदेश की मुख्यधारा पाॢटयों की राजनीति का कार्यान्वयन इसी ढंग से हो रहा है। वैसे तो घाटी का परिदृश्य बहुत निराशाजनक और अंधकारमय है लेकिन फिर भी उम्मीद की केवल एकमात्र किरण यह है कि स्कूली बच्चों ने खुलकर हुॢरयत के आदेश की अवज्ञा की और इसी के चलते आखिर शरारती तत्वों को अपनी आक्रामक मुद्रा में कुछ नरमी लानी पड़ी जिससे हजारों अभिभावकों को राहत महसूस हुई।

हुॢरयत नेताओं की तो रोजी-रोटी ही आंदोलन के सहारे चलती है और वे किसी भी मुद्दे के गुण-दोष की परवाह किए बिना केवल नकारात्मकता की राजनीति पर ही फल-फूल रहे हैं। देश विभाजन के बाद कई दशकों से जम्मू-कश्मीर में रह रहे पश्चिमी पाकिस्तानी शरणाॢथयों को पी.डी.पी.-भाजपा सरकार द्वारा डोमीसाइल प्रमाण पत्र दिए जाने का फैसला अब इन तत्वों के लिए विरोध का नवीनतम मुद्दा बन गया है।

प्रदेश के जम्मू, सांबा और कठुआ जिलों में इस प्रकार के लगभग 20,000 परिवार रह रहे हैं। इनमें से केवल 20 परिवार मुस्लिम हैं जबकि शेष मुख्यत: पश्चिमी पाकिस्तान से आए हुए हिन्दू और सिख हैं। इनकी कुल आबादी लगभग डेढ़ लाख है।

इन शरणाॢथयों का मुद्दा फारूक अब्दुल्ला की नैशनल कांफ्रैंस सहित सभी घाटी केन्द्रित पाॢटयों के गले की फांस बना हुआ है। इन पाॢटयों तथा अलगाववादी तत्वों ने सरकार के इस फैसले का विरोध किया है जबकि भाजपा, विहिप, श्रीराम सेना और भीम सिंह की पैंथर्स पार्टी जैसी जम्मू आधारित पाॢटयों ने मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के इस ऐतिहासिक फैसले का समर्थन किया है।

इस दिलेरी भरे फैसले ने वास्तविक अर्थों में प्रदेश को साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित कर दिया है। विडम्बना देखिए कि फैसले का विरोध करने वाले इन राजनीतिक तत्वों ने तब एक बार भी आवाज नहीं उठाई थी जब सुदूर म्यांमार से आए हुए रोङ्क्षहग्या मुस्लिम शरणाॢथयों की प्रदेश में बाढ़-सी आ गई थी।

मोटे अंदाजे के अनुसार प्रदेश के जम्मू सम्भाग में ही लगभग 80 हजार रोङ्क्षहग्या मुस्लिम रहते हैं। वे लोगों के घरों तथा प्राइवेट कारोबार इकाइयों में अकुशल मजदूरों के रूप में या फिर कचरा बीनने वालों के रूप में कार्य करते हैं। कुछेक राजमिस्त्री हैं या फिर छोटे-मोटे रेहड़ी वाले।

जम्मू सम्भाग के नेताओं का कहना है कि रोङ्क्षहग्या मुस्लिमों की इस क्षेत्र में आबादी सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक है। वे जम्मू क्षेत्र में नए मुस्लिम परिवारों को बसाए जाने का भी विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि इस नीति से इस इलाके के पहले से ही सीमित संसाधनों पर और भी दबाव बन जाएगा तथा जम्मू के लोगों के लिए रोजगार के अवसर कम हो जाएंगे।

लेकिन जम्मू के लोगों की ङ्क्षचता किसको है? व्यावहारिक रूप में प्रदेश के राजनीतिक तंत्र पर कश्मीरी लोगों का ही वर्चस्व है और वे ही गवर्नैंस और नीति निर्धारण के समस्त आयामों पर छाए हुए हैं।

‘सौ हाथ रस्सा सिरे पर गांठ’ जैसा नुक्ता यह है कि क्या नैशनल कांफ्रैंस के नेताओं में कश्मीरियत और सैकुलरवाद का कोई एक भी विश्वसनीय उदाहरण मौजूद है? जहां तक गिलानी, मीरवायज उमर फारूक और जे.के.एल.एफ. प्रमुख यासीन मलिक जैसे अलगाववादियों और हुॢरयत नेताओं का सवाल है, भारत विरोधी और हिन्दू विरोधी पत्ता खेलना उनका अनुवांशिक लक्षण बन चुका है।

इस मामले में हमें किसी भी भ्रम में नहीं रहना चाहिए। उनके लिए सुदूर म्यांमार से आए हुए मुस्लिम तो स्वागत योग्य हैं लेकिन पाकिस्तान के बिल्कुल पड़ोसी इलाकों से आए हुए हिन्दू शरणार्थी उन्हें फूटी आंख भी नहीं सुहाते जोकि गत 70 वर्षों से प्रदेश में रह रहे हैं।

इन शरणाॢथयों को यहां रहते इतना समय हो गया है कि उनकी चौथी और पांचवीं पीढ़ी भारत में परवान चढ़ रही है। वे भारत के नागरिक तो हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर के स्थायी वासी नहीं। डोमीसाइल प्रमाण पत्र केवल इस विसंगति को सुधारने का प्रयास मात्र है।

इस प्रमाण पत्र के बूते अब वे राज्य में खुद की सम्पत्ति बना सकेंगे और उन्हें प्रदेश के प्रोफैशनल कालेजों में प्रवेश के लिए निश्चित कोटा भी हासिल हो जाएगा। फिर भी सवाल पैदा होता है : इस फैसले से मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर प्रदेश में आबादी का अनुपात कैसे प्रभावित होगा?

कश्मीरी मुस्लिमों में वर्तमान में  बढ़ रहा साम्प्रदायिकवाद का रुझान इस बात का प्रमाण है कि उनकी मानसिकता में बहुत प्रतिगामी मोड़ आ चुका है। पाकिस्तान द्वारा लगातार किए जा रहे प्रचार की सहायता से जमात-ए-इस्लामी और हुॢरयत प्रदेश में सामाजिक मर्यादा के नियमों का निर्धारण कर रही हैं और आतंकवादी इस नियमावली को लागू कर रहे हैं जिसके चलते घाटी के मुस्लिमों की स्वतंत्र आवाज के लिए कोई जगह ही नहीं रह गई।

वैसे तो यह स्थिति पैदा करने के लिए मुख्य रूप में अंग्रेज हुक्मरान ही जिम्मेदार थे। उन्होंने अलग मताधिकार, नौकरियों इत्यादि में साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिनिधित्व की नीति जारी करके साम्प्रदायिक विभेदों को संस्थागत रूप देकर प्रदेश में साम्प्रदायिकवाद के बीज बोए थे।
 

वर्ष बीतने के साथ-साथ इन नीतियों ने ऐसे निहित स्वार्थों का सृजन किया जो इन साम्प्रदायिक विभेदों को जारी रखने में गहरी रुचि लेते हैं, साम्प्रदायिक आधार पर दावे करते हैं। यह वर्ग ही घाटी में बढ़ रहे साम्प्रदायिक दृष्टिकोण का प्रतीक बन चुका है। यह वर्ग जम्मू और कश्मीर के साथ-साथ शेष देश की सैकुलर शक्तियों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है।

ऐसी स्थिति को टालने के लिए भारत ने मजहबी देश न बनने का फैसला लिया था क्योंकि यदि ऐसा न हुआ होता तो हमारे देश के लोगों की प्रतिभा और सांस्कृतिक जीवन मूल्यों को बहुत बड़ा आघात पहुंचा होता। फिर भी नेताओं को यह महसूस करना चाहिए था (और इस अनुभूति को जारी रखना चाहिए था) कि ऐसे पैंतरे के स्पष्ट तौर पर क्या परिणाम हैं। हमें सत्य की खोज का अपना सफर हर हालत में जारी रखना और अलग राय रखने, सैकुलर, बहुनस्लीय, बहुमजहबी बने रहने का अपना अधिकार अक्षुण्ण बनाए रखना होगा।

इस उद्देश्य के लिए हमें दिलेरी से यह बखान करना होगा कि इस पैंतरे के मद्देनजर हमारे कत्र्तव्य क्या होने चाहिएं ताकि भारतीय समाज (जिसमें कश्मीरी भी शामिल हैं) तथा व्यक्तियों के रूप में हम अपनी सभ्यता की आधारभूत मान्यताओं और जीवन मूल्यों को हर हालत में आगे बढ़ाना जारी रखें। यदि हम ऐसा करने में विफल रहे तो यह नए खतरों को बुलावा सिद्ध होगा।

आज कश्मीर एक समस्या बन चुका है तो ऐसा मुख्य तौर पर इसलिए हुआ है कि हम एक कल्पना लोक में जीना जारी रखे हुए हैं। घाटी के कुछ हजार आतंकी, अलगाववादी और अवसरवादी राजनीतिज्ञ शेष प्रदेश और भारत को बंधक बनाए हुए हैं। हमें अपनी नीतियों और पहुंच में से इस नरम रुख को खारिज करना होगा और इस विशाल देश के एक छोर से दूसरे छोर तक (जम्मू-कश्मीर सहित) गवर्नैंस की प्रक्रिया को साम्प्रदायिकता विहीन बनाना होगा।
 

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