देश की मौजूदा ‘घटिया स्थिति’ के लिए हम सभी दोषी

Sunday, Sep 18, 2016 - 01:36 AM (IST)

(वीरेन्द्र कपूर): भारी-भरकम जनादेश से जीतने के कुछ ही महीनों के अंदर इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ के चुनाव जिताऊ नारे से दूरी बनानी शुरू कर दी थी। पुरानी कांग्रेस यानी सिंडीकेट को 1971 के चुनाव में धराशायी करने के बाद इंदिरा ने गाजियाबाद में प्रदर्शनकारियों पर चुटकी लेते हुए कहा था, ‘‘मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं, जिससे मैं गरीबी हटा दूं।’’ इस घटना को चार दशक से भी अधिक समय बीत गया और अभी भी गरीबी हमारे रोम-रोम में बसी हुुई है। 

 
यह इस तथ्य का प्रमाण है कि गरीबी और भुखमरी की महामारी को समाप्त करना कितना भारी-भरकम कार्य है। यह ऐसी दुर्गम बाधा है जिसे एक के बाद एक राजनीतिज्ञ चुनावी आकांक्षाएं पूरी करते समय पार नहीं कर सके। चुनावी वायदों और इनकी वास्तविक अमलदारी में दुनिया भर में सदा ही बहुत भारी अन्तर रहा है। 
 
जवाहर लाल नेहरू के जमाने से लेकर इंदिरा गांधी तक भारतीयों की दो पीढिय़ां इस भ्रम में रही हैं कि उनकी सूनी और रूखी जिन्दगियों को ‘स्वराज’ बदल कर रख देगा। लेकिन  न तो उनकी आशाएं तब फलवती हुईं और न ही उसके बाद कोई प्रधानमंत्री उनकी उम्मीदें पूरी कर सका। 
 
कुछ प्रधानमंत्री तो ऐसे भी रहे हैं जिनसे लोगों को कोई उम्मीद ही नहीं थी क्योंकि या तो वे मात्र संरक्षक थे या ‘टाइमपास’। चरण सिंह और चंद्रशेखर जैसे प्रधानमंत्री इसी कोटि में आते हैं। लेकिन राजीव गांधी जैसे अन्य भी हैं, जिनको जन सम्पर्क प्रबंधकों  द्वारा देश की नई आशा के रूप में प्रचारित किया गया था लेकिन उन्होंने देश की उम्मीदों पर पानी फेर दिया।   
 
ऐसे में जब सड़क परिवहन और राजमार्गों के नेक इरादों वाले मंत्री नितिन गडकरी ने काफी बेबाकी से यह स्वीकारोक्ति की कि ‘अच्छे दिन’ का वायदा सरकार के गले की फांस बन गया है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। चुनाव लड़ रहे प्रत्येक राजनीतिज्ञ की तरह मोदी एंड कम्पनी ने भी बहुत बड़े-बड़े सपने दिखाए थे। ‘अच्छे दिन’ तथा प्रत्येक भारतीय के खाते में 15 लाख रुपए का वायदा ऐसे ही दो नारे हैं जो किसी भी रूप में पूरे होने का नाम नहीं ले रहे। हालांकि ऐतिहासिक रूप में मनमोहन सिंह ने ही सबसे पहले ‘अच्छे दिन’ का चर्चा छेड़ा था। लेकिन वह ठहरे मनमोहन सिंह, जिनका किसी ने भी कभी संज्ञान नहीं लिया था कि वह क्या कहते हैं और क्या करते हैं। 
 
लेकिन यह मानना गलत होगा कि इन वायदों के बिना मोदी जीत नहीं सकते थे। जनता का मूड ही कुछ इस तरह का था कि मजबूत और संगठनात्मक समर्थन के बूते कोई भी विश्वसनीय नेता यू.पी.ए. को मलियामेट कर सकता था क्योंकि इसे व्यापक रूप में भ्रष्ट और अकर्मण्य माना जाता था।  ‘अच्छे दिन’ तथा ‘खाते में 15 लाख रुपए’ के वायदे ने राजग के चुनावी अभियान को नई शक्ति तो दी लेकिन  इसने भारतीयों की मतदान की वरीयता को किसी भी तरह बदला नहीं था क्योंकि वे तो पहले ही यू.पी.ए. को पटखनी देने पर आमादा थे। 
 
गडकरी के रुदन के बावजूद विवेकशील लोग यह संज्ञान लेने से नहीं चूकते कि गवर्नैंस के हर क्षेत्र में लगातार सुधार हो रहा है। वास्तव में मोदी ने अकेले दम पर व्यवस्था की ‘प्लम्बरी’ की जिम्मेदारी संभाल रखी है। शुरूआती रूप में उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि राजनीतिक कार्यकारिणी में एक भी व्यक्ति स्वार्थी हितों का वेतनभोगी न हो। यह एक ऐसी बात है जो नेहरू समेत स्वतंत्र भारत के एक भी मंत्रिमंडल के बारे में नहीं कही जा सकती। 
 
गडकरी स्वयं भी राजमार्गों के निर्माण में तेजी लाने, परित्यक्त परियोजनाओं को फिर से बहाल करने, नई परियोजनाएं चालू करने का उत्कृष्ट काम कर रहे हैं और मोटे रूप में उनके बारे में यह प्रभाव है कि वह बातें करने की बजाय काम करने वाले व्यक्ति हैं। हालांकि उनके भाषण में इस तरह की मुम्बइया सड़क छाप लोकोक्तियां और मुहावरे अक्सर सुनने को मिल जाते हैं-‘इसको तो मारूंगा।’ या ‘खाली-पीली बम मारता है,’  जोकि किसी मंत्री के लिए अधिक शोभनीय नहीं लगती। 
 
फिर से चुनावी अभियान दौरान किए गए जरूरत से बड़े वायदों की ओर लौटते हैं। लोकतांत्रिक जगत में एक भी ऐसी पार्टी नहीं, जिस पर ऐसे वायदे करने का आरोप न लगाया जा सके। अमरीका में भी ‘न्यू डील’ के दौर में यह नारा लगाया गया था-‘‘हां, हम कर सकते हैं:’’ या ‘‘आपकी आंखों के सामने बदलाव दिखाई देगा, तो भला आप कैसे विश्वास नहीं कर सकते,’’ इत्यादि। ये नारे हाल ही के अमरीकी इतिहास के कुछ प्रसिद्ध राष्ट्रपति चुनावों में प्रयुक्त किए गए थे। ‘बदलाव’ के स्वयंभू मसीहा ओबामा उन राष्ट्रपतियों की सूची में शामिल होने जा रहे हैं, जिन्होंने अमरीकी नागरिकों को बहुत अधिक निराश किया था। 
 
आज तो हम ऐन अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं कि बिल्कुल उद्दंड किस्म के डोनाल्ड ट्रम्प किस प्रकार परम्परागत राजनीति को तार-तार कर रहे हैं और सबसे निचले स्तर के मतदाताओं को आकॢषत कर रहे हैं। ऐसा करते हुए वह दुनिया के सबसे खुले समाज को आॢथक, राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से अंतर्मुखी बनाने की चुनौती पेश कर रहे हैं। 
 
अपने देश की ही बात करें तो यहां भी हमारे पास अरविन्द केजरीवाल हैं, जिनके बारे में अब तो विधिवत प्रमाणित हो चुका है कि उनकी जीभ सामान्य से कहीं ज्यादा लंबी है जोकि उनके छोटे-से चेहरे के साथ काफी ज्यादती है, हालांकि वह इसे हर ऐरे-गैरे नत्थू खैरे को गालियां देने के लिए प्रयुक्त करते हैं। अब वह राष्ट्रीय राजधानी में हर चीज का कबाड़ा करने में पूर्णकालिक तौर पर लगे हुए हैं। जब उनकी सरकार की अत्यधिक जरूरत होती है तो ऐन उसी समय यह गायब होती है। 
 
उदाहरण के तौर पर दिल्ली में डेंगू और चिकनगुनिया की महामारी फैली हुई है और उनकी सरकार के सभी जिम्मेदार लोग गायब हैं। जब कभी यह सरकार सामने आती है तो संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के विरुद्ध विषवमन करने के अलावा और कोई काम नहीं करती। क्या लंबी जुबान वाले व्यक्ति ने मतदाताओं के साथ अनहोनी किस्म के वायदे नहीं किए थे?
 
इसी बीच शैतान के वकील की भूमिका अदा करते हुए यह दलील दी जा सकती है कि कोई भी सरकार मतदाताओं की आकांक्षाओं पर पूरी तरह खरी नहीं उतर सकती, खास तौर पर भारत जैसे देश में तो कदापि नहीं, जहां गरीबी, भुखमरी, अज्ञानता और अनपढ़ता इत्यादि ने गहरी जड़ें जमा रखी हैं। मोदी या कोई अन्य नेक इरादों वाला राजनीतिज्ञ केवल प्रयास ही कर सकता है। 
 
लेकिन जब तक स्थायी नौकरशाही, पुलिस और प्रत्येक सरकारी वेतनभोगी अपने भ्रष्ट और आलस्य भरे तौर-तरीके नहीं बदलता तब तक किसी बदलाव का आना असंभव है। संक्षेप में कहा जाए तो  हमारे राष्ट्रीय चरित्र में ही खोट है। आप एक नेता को बदल सकते हैं, परन्तु क्या पूरे राष्ट्र को बदल सकते हैं? देश जिस घटिया स्थिति में से गुजर रहा है, अंतिम रूप में हम सभी उसके लिए दोषी हैं क्योंकि किसी न किसी रूप में हम सभी भ्रष्ट हैं। 
 
मोदी से अप्वाइंटमैंट
बिहार में लोकसभा चुनाव में पराजित हो चुके एक नेता ने गडकरी के आगे रोना रोया कि बार-बार प्रयास करने के बावजूद भी उन्हें मोदी से अप्वाइंटमैंट नहीं मिली। गडकरी ने उसे बताया, ‘‘हिम्मत न हारें, मोदी जी ने तो अपनी मां को भी अप्वाइंटमैंट पी.एम. बनने के 2 साल बाद दिया था। उनकी मां की तरह आप भी धैर्य रखें।’’ 
 
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