देश को अब जमीनी स्तर पर समझने की जरूरत

Tuesday, Feb 21, 2017 - 11:55 PM (IST)

5 राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजे सामने आने को हैं और उनके निहितार्थों के उजास में 2019 में होने जा रहे चुनावों की तैयारियां होना तय है। फिलहाल मीडिया में इस बात पर घनघोर बहस छिड़ी है कि अमुक दल के तमुक नेता द्वारा गरीब या दलित या किसान या मजदूर या खादी ग्रामोद्योग के प्रति जताया जा रहा अपनापा असली है या महज वोट जुटाने की नकली थेथरी कवायद? और अगर सभी नेताओं के जनहितकारी तेवर कमोबेश नूरा कुश्ती वाले ही हैं तो आने वाले बरसों में नेताओं और जनता के बीच क्या उस तरह का जीवंत और अर्थमय अपनापा बन सकेगा जो गांधी के बाद हमारे राजनीतिक आसमान से गायब है?

बापू और भारत के बीच जैसा प्रेम न तो बॉडी में उपजता है और न ही हाट में बिकता है। ताडऩा सहित मिलने वाले मां-बाप के लाड-दुलार की तरह वह निरी मिठास का पैकेज भी नहीं होता। वह शब्दों से नहीं, ठोस काम से उपजता है और अनपढ़ जनता भी उसे तुरन्त समझ लेती है जैसे जंगल में रेवड़ के बीच हर बछड़ा अपनी मां की गंध पा लेता है। जनता ऐसे नेता को ही एक लंबी लड़ाई का नेतृत्व थमाती है।

दिक्कत यह है कि इन दिनों हमारे नेताओं के बाल जनता के बीच रहते हुए जमीनी चुनौतियों को समझने की कोशिश में सफेद नहीं होते। गांधी के प्रतीकों पर सब कब्जा चाहते हैं पर चुनाव काल के अलावा जनता के बीच जाने से कतराते हवा-हवाई बने रहते हैं। जभी सारे दल अब चुनाव आने पर कीमती प्रचार मशीनरी को ठेके देकर, भरपूर पैसे से दिन-रात अपने कारनामों के इश्तिहार छाप-दिखा कर अपनी छवि बनवाने पर उतर आए हैं। जनसभा संबोधित करनी भी हो तो वे सिक्योरिटी दस्तों से घिरे-घिराए घर या पार्टी मुख्यालयों से निकलते हैं और हवाई जहाज से उतरकर कमांडो दस्ते से घिरे हुए जनसभाओं में अचानक आ टपकते हैं जहां मंच और जनता के बीच खासा फासला रखा जाता है ताकि कोई अप्रिय वारदात न घट जाए।

जनता के जिस नेता को ही जनता से खतरा महसूस हो उसका लोकतांत्रिक योगदान किस तरह का होगा? ऐसी हवा-हवाई आवाजाही से सड़कें या शहरों की गलियां नहीं सुधरतीं, अलबत्ता ट्रैफिक जाम हो जाता है। जभी जनता की नजर में उनके तेवर नाटकीय, आक्षेप व्यक्तिपरक और भाषा उग्र, अभद्र बनती है। इस जायज शक का क्या किया जाए?

विपक्ष यह भूल कर कि कल जब वे सत्ता में होंगे तो यही तत्व उनको भी सिरदर्द देंगे, आग को बुझाने की बजाय उसमें घी डालने लगता है। कश्मीर, नागालैंड, मणिपुर, झारखंड या छत्तीसगढ़ हर कहीं सभी सत्तारूढ़ दल, सशस्त्र विद्रोहियों को रोकने में विफल रहे हैं। उनको बातचीत की मेज पर आने को जब कहा भी जाए, तो कभी उनकी अपनी असहजता से तो कभी सशस्त्र बलों के किसी अधिकारी के उनके खिलाफ  वक्तव्य या निर्देश के उछाले जाने से बनती बात बिगड़ जाती है। तब उनको लगता है कि सरकार बातचीत के नाम पर बस खिलवाड़ करती है या निरा दमन। उसकी नीयत साफ  नहीं है।

अब ऐसी ही शंका का कीड़ा सरकार-किसान रिश्तों को भी कुतरने लगा है। 3 बड़ी काश्तकार जातियों : जाट, पटेल और मराठा ने अपने लिए पिछड़ी जाति का दर्जा पाने की जंग का ऐलान कर दिया है जबकि हाल में प्रकाशित डाटा (दिल्ली स्कूल ऑफ  इकोनॉमिक्स तथा गेटे वि. वि. जर्मनी) के अनुसार ये तीनों जातियां सामाजिक-आॢथक हैसियत के स्वीकृत पैमानों पर पिछड़ों की तुलना में अगड़ी जातियों के ज्यादा करीब ठहरती हैं।

इसकी मोटी वजह तो यह है कि जोतों का क्षेत्र कम होने और लागत बढऩे से खेतिहरों की आय लगातार घटी है जबकि वहीं उनके जातीय नुमाइंदों की राजनीति में भागीदारी मजबूत हो गई है जिनकी खामोश मदद से न्यायालय द्वारा पिछड़ा आरक्षण रद्द करने के बाद भी इस मुद्दे को लेकर हाॢदक पटेल सरीखे नेता अपना दबदबा बनाने में सफल हो रहे हैं। उनकी ताकत भांप कर राज तथा उद्धव ठाकरे सरीखे महत्वाकांक्षी तगड़े-अगड़े नेता भी उनके समर्थन में उतर रहे हैं।

वे सब समझ चुके हैं कि आज राजनेता सार्वजनिक विकास के पैमाने या जल-जंगल की बंटवार के लिए भी जनता की बजाय बड़ी कम्पनियों तथा अपने दल द्वारा शासित राज्यों को ही प्राथमिकता देते हैं। लिहाजा सरकार के भीतर-बाहर अपनी ताकत का सार्वजनिक प्रदर्शन कर राज-काज ठप्प करवाते हुए आरक्षण की मलाई में अपना हिस्सा पाने को सभी जातियों ने धरने, ङ्क्षहसक प्रदर्शनों से भरा रास्ता पकड़ लिया है।

अब सरकार को मंडल के बाद के दशकों में देश में बनते गए कमजोर, पिछड़े और अगड़े वर्गों के इननए स्वरूपों और असली-नकली मांगों के भेद को समझना ही होगा। इसके बिना किसी तरह का स्वस्थ औद्योगिक या सामाजिक विकास लाना या उसके लिए शांतिमय वातावरण बनाना नामुमकिन है। इतनी पुरानी और जटिल समस्याओं के जवाब तत्काल नहीं मिलेंगे पर फिर भी सत्ता चाहिए तो 2019 तक वे खोजने ही होंगे।

नीति आयोग के महापंडितों के मसौदे या महालेखाकार के आंकड़े भी अपनी जगह हैं पर अब देश को जमीनी स्तर पर भी समझना होगा : क्यों वे ताकतवर और बड़ी जोतदार जातियां जो हर तरह की कर छूट व सबसिडी पाती रही हैं, आज अपनी नई नस्ल को खेती की बजाय सरकारी नौकरियों की तरफ  भेजना चाहती हैं? मेक इन इंडिया और विदेशी निवेश के धुर समर्थक रहे गुलाबी अखबार भी आज नोटबंदी और बैंकिंग क्षेत्र को लेकर इतने नाखुश क्यों हैं?

किस वजह से जो पार्टी 2014 के चुनावों में यू.पी.ए. की समाजवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था के गड़बड़झाले से लेकर पड़ोसी देश के प्रति उसके नर्म रुख के साथ मनरेगा जैसी योजना को हर मंच से मुखरता से कोस कर चुनाव जीती थी, वह आज उनको ही और जोर से धुकाने लगी है। जे.एन.यू. की घेरेबंदी, अशांत सूबों में गोलीचालन बढ़ाने या हाॢदक पटेल या यशपाल मलिक जैसे नेताओं को जेल भेजने भर से इन तकलीफदेह सवालों का उठना बंद नहीं होगा।  

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