केंद्र को लद्दाख की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए

punjabkesari.in Thursday, Oct 17, 2024 - 04:54 AM (IST)

मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और पर्यावरणविद् सोनम वांगचुक के नेतृत्व में लद्दाखियों का एक समूह पिछले महीने लेह से सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली पहुंचा और केंद्र सरकार के नेताओं के सामने अपनी मांगें रखीं। किसी केंद्रीय नेता ने उनसे मुलाकात करने की बजाय उन्हें शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने से रोक दिया और उन्हें लद्दाख भवन में ही रहने को कहा गया, जहां वे अब भूख हड़ताल पर बैठे हैं। केंद्र सरकार का उनसे मिलने और उनकी मांगों को सुनने से इंकार करना हैरान करने और चौंकाने वाला है। यह उनकी मांगों पर कोई आश्वासन देने की बात नहीं है, बल्कि उनकी मांगों को सामने रखने के लिए बैठक के अनुरोध को अस्वीकार करने की बात है। 

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म या मन की बात के माध्यम से एकतरफा संवाद की मौजूदा सरकार की नीति के साथ, प्रतिनिधिमंडल से मिलने से किसी वरिष्ठ मंत्री के इंकार पर कोई आधिकारिक स्पष्टीकरण नहीं है। लेह-लद्दाख के निवासी आदिवासी क्षेत्रों को अतिक्रमण और शोषण से बचाने के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपायों की मांग कर रहे हैं। उनकी मांगों में लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा, संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करना, जो क्षेत्रीय स्वशासन संस्थाओं का प्रावधान करता है, स्थानीय लोगों के लिए नौकरियों में आरक्षण और लेह तथा कारगिल क्षेत्रों के लिए एक-एक संसद सीट शामिल है। उनकी सबसे बड़ी चिंता जनसांख्यिकी में बदलाव और आदिवासी भूमि की सुरक्षा है। उन्हें आशंका है कि देश के अन्य हिस्सों से लोग उद्योग लगाएंगे, व्यापार स्थापित करेंगे, जमीन खरीदेंगे, बाहर से लोगों को लाएंगे जिससे जनसांख्यिकी परिवर्तन होगा और स्थानीय लोगों की नौकरियां जाएंगी। 

यह क्षेत्र, विशेष रूप से लेह और कारगिल, पर्यटकों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गए हैं, जिससे अति-पर्यटन की समस्या पैदा हो रही है। इससे होटल, गैस्ट हाऊस, होम स्टे, परिवहन और यात्रा सेवाओं सहित पर्यटन उद्योग में भी उछाल आया है। निवासियों की लंबे समय से स्वायत्त दर्जा दिए जाने की मांग रही है। 2019 तक यह जम्मू और कश्मीर राज्य का हिस्सा रहा, जब इसे एक अलग केंद्र शासित प्रदेश घोषित किया गया, जबकि जम्मू और कश्मीर क्षेत्रों को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। लद्दाख के मामले में जम्मू और कश्मीर के मामले की तरह निर्वाचित विधानसभा का कोई प्रावधान नहीं था। इसमें एक स्वायत्त पर्वतीय क्षेत्र परिषद थी, लेकिन इसके सभी निर्णयों की पुष्टि केंद्र द्वारा की जाती है क्योंकि यह अब एक केंद्र शासित प्रदेश है। 

लद्दाख की 95 प्रतिशत आबादी आदिवासी है, जिनकी अपनी अलग जातीयता, संस्कृति और रीति-रिवाज हैं। लद्दाख के अधिकांश हिस्सों में बौद्ध धर्म प्रमुख धर्म है, जबकि कारगिल और द्रास जैसे मुस्लिम आबादी वाले इलाके हैं। चीन और पाकिस्तान की सीमा से सटे इस क्षेत्र की संवेदनशीलता को कम करके नहीं आंका जा सकता, भले ही उनकी कुल आबादी सिर्फ 3 लाख है। लद्दाखियों को सच्चे राष्ट्रवादी और हमारी रक्षा की पहली सीमा के रूप में जाना जाता है। आंदोलन को शांतिपूर्ण बनाए रखने के लिए सोनम वांगचुक और उनके अनुयायियों की टोली बधाई की पात्र है। आम लोगों को असुविधा में डालने के बजाय, जैसा कि किसानों और डाक्टरों सहित विरोध प्रदर्शनों द्वारा आम तौर पर किया जाता है, वे भूख हड़ताल पर बैठकर और मार्च निकालकर खुद को पीड़ा पहुंचा रहे थे। 

कुछ महीने पहले उन्होंने लेह में माइनस 12 डिग्री तापमान में टैंट के नीचे रहकर लंबी रिले भूख हड़ताल की थी। इसके बाद सीमावर्ती क्षेत्रों में एक असफल शांतिपूर्ण मार्च निकाला गया। जब सरकार और मीडिया के बड़े हिस्से ने उनके विरोध और मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया, तो उन्होंने अपने पैरों के नीचे छाले और खराब मौसम की स्थिति का सामना करते हुए लेह से दिल्ली तक मार्च करने का फैसला किया। हाल ही में मीडिया से बात करते हुए वांगचुक ने कहा कि हम जल्दबाजी में नहीं हैं, और हम बेचैन भी नहीं हैं। हम खुद को तकलीफ दे रहे हैं, किसी और को नहीं। जब तक हम दूसरों की आजादी में कटौती नहीं करते, हमें अकेला छोड़ देना चाहिए। जब हमारे उपवास का महत्वपूर्ण समय आएगा, मुझे यकीन है कि देश अपनी आवाज उठाएगा।  अब समय आ गया है कि सरकार उन तक पहुंचे और उनकी बात सुने। सरकार का अडिय़ल रवैया लद्दाखियों के साथ-साथ देश के लिए भी अच्छा नहीं है। देश ने पूर्वोत्तर के कुछ इलाकों की इसी तरह उपेक्षा करके बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। लद्दाख में इतिहास को दोहराने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।-विपिन पब्बी
 


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