जालन्धर का ‘स्वामी नारायण मंदिर’ समाज-रक्षा का केन्द्र भी बनेगा

Wednesday, Mar 01, 2017 - 12:43 AM (IST)

पूर्वी उत्तर  प्रदेश के छपैया गांव में जन्मे घनश्याम पांडे 11 वर्ष की आयु में परिव्राजक बन गए और उनका नाम ही नीलकंठवर्णी हो गया। 1799 में वह गुजरात आए और सन् 1800 में उन्हें स्वामी रामानंद जी ने दीक्षा देकर सहजानंद स्वामी नाम दिया। 1802 में उनके गुरु जी ने निर्वाण से पूर्व उन्हें गुरु गद्दी सौंप दी। सहजानंद स्वामी लोकप्रिय और वत्सल भाव वाले थे। उन्होंने भक्तों को एकत्र कर स्वामी नारायण मंत्र दिया और तब से उनकी भक्ति धारा स्वामी नारायण सम्प्रदाय कहलाने लगी। 

अगर स्वामी सहजानंद की भक्ति का प्रभाव और स्वामीनारायण सम्प्रदाय का विस्तार गुजरात में न हुआ होता तो वर्तमान गुजरात अधिकांशत: ईसाई हो गया होता। अंग्रेजों के साए तले ईसाई मिशनरी बहुत तीव्रता से अपना मत बढ़ा रहे थे लेकिन जो काम तुलसी की रामचरितमानस ने उत्तर में किया वह स्वामी सहजानंद के स्वामी नारायण मंत्र ने गुजरात में किया। 

धर्म रक्षा, व्यसन मुक्ति और दलितों अंत्यजों को बराबरी का दर्जा यह स्वामी नारायण सम्प्रदाय का प्रमुख अवदान है। आज यह भक्तिधारा संपूर्ण विश्व में हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता और सर्वत्र सम्मानित परिचय-पताका बन गई है। संस्कृत का गहन ज्ञान तथा मंदिरों को सामाजिक परिवर्तन का केन्द्र बनाकर विशेषकर युवाओं में सद्गुणों का विकास स्वामी नारायण सम्प्रदाय के संतों द्वारा अद्भुत तरीके से किया जाता है। इनके अत्यंत श्रद्धेय प्रमुख स्वामी जी का गत वर्ष ही निर्वाण हुआ। उनके बाद विद्वता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति महंत स्वामी ने प्रमुख दायित्व संभाला। 

पूरी दुनिया में प्रमुख स्वामी के नेतृत्व में 700 से ज्यादा अत्यंत भव्य और हिन्दू वास्तुशिल्प के मंत्रमुग्ध करने वाले मंदिर बने। सैंकड़ों युवा संन्यासी जिनमें डाक्टर, इंजीनियर, बैरिस्टर,आर्कीटैक्ट और कला तथा संस्कृति में महारत हासिल किए विशेषज्ञ हैं, आज स्वामी नारायण सम्प्रदाय का आधुनिक प्रगतिशील चेहरा बने हैं। दिल्ली और गांधीनगर में जिन्होंने अक्षरधाम देखा है वे जानते हैं कि स्वामी नारायण के संन्यासी धर्म और राष्ट्र को एकरूप मानते हैं। अक्षरधाम मंदिरों में देव पूजन के साथ-साथ भारत की महान विरासत, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्राप्त किए उत्कर्ष और सभ्यता के सुनहरे अध्यायों का बहुत प्रेरक और मनोरम चित्रण भी देखने को मिलता है। स्वामी विवेकानंद को देश भक्त संन्यासी कहा गया था। स्वामी नारायण सम्प्रदाय का हर संन्यासी उसी देश भक्ति के रंग में रंगा तिरंगा संन्यासी कहा जा सकता है। 

पंजाब के प्रसिद्ध शिक्षा और संस्कृति के केन्द्र जालंधर में स्वामी नारायण मंदिर का उद्घाटन पंजाब के भविष्य के लिए एक प्रेरक घटना है। मुझे स्वामी नारायण सम्प्रदाय की भक्ति की शक्ति पर इतना भरोसा है  कि जालंधर का मंदिर केवल देव पूजन नहीं बल्कि समाज रक्षण का भी केन्द्र बनेगा। मंदिर केवल पूजा आरती का स्थल हो यह भारत की प्राचीन परम्परा नहीं बताती। मंदिर का अर्थ है समाज का रक्षा कवच। दुर्भाग्य से विशेषकर उत्तर भारत के मंदिरों में पावनत: सामाजिक चैतन्य जागरण का धीरे-धीरे लोप होता गया है। हालांकि अधिकांश मंदिरों में अब दलितों के प्रवेश पर कोई पाबंदी नहीं है लेकिन फिर भी ऐसे उदाहरण मिल ही जाते हैं।

पिछले वर्ष उत्तराखंड में दलितों के मंदिर प्रवेश दौरान मुझ पर और मेरे दलित साथियों पर भयानक पत्थर बरसाए गए। हम किसी चमत्कार से ही जीवित बचे। जो अपने आप को ऊंची जाति का मानते हैं और अहंकार करते हैं उन्हें अपने धर्म की कोई जानकारी नहीं होती। अपने ही समाज के रक्त बंधुओं-दलितों को अपने से दूर करने तथा पंजाब के चिट्टे की व्याधि के खिलाफ धर्म पुरुषों को खड़े होना चाहिए और इस कार्य में मंदिर वही भूमिका निभा सकते हैं जो पिछली शताब्दी के समाज सुधारकों ने निभाई थी।

स्वामी नारायण मंदिर पंजाब को व्यसन मुक्ति की दिशा में ले जाते हुए इसका सामाजिक रक्षा कवच बन सकता है। कुरीतियों एवं अंध कर्मकांड के जाल से परे स्वामी नारायण के संन्यासी केवल करुणा, प्रेम और आत्मीयता बांटते हैं। जालंधर में स्वामी नारायण मंदिर ठीक समय पर स्थापित हो रहा है। पंजाब को इसकी आवश्यकता थी इसमें संदेह नहीं।    

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