पूंजीवादी व्यवस्था उम्र के आखिरी पड़ाव में

punjabkesari.in Saturday, Dec 02, 2023 - 05:27 AM (IST)

तानाशाह राजशाही (जागीरदारी व्यवस्था) के खात्मे के बाद स्थापित किए गए नए लोकतांत्रिक शासन प्रणाली (पूंजीवादी लोकतंत्र) के चलते लोगों के मनों के अंदर नई उम्मीदें जगी थीं। जन साधारण को अपने विचार प्रकट करने और  शासकों की लोक विरोधी नीतियों के प्रति अपना विरोध दर्ज किए जाने की आजादी मिली। बेशक इस लोकतांत्रिक व्यवस्था की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं परन्तु जागीरदारी शासन ढांचे की निरंकुश शासन की ओर से किए गए किसी भी कार्य या आदेश को कुदरत का फरमान समझ और उसे स्वीकार करने के सिवाय कोई अन्य रास्ता उपलब्ध न होने के मुकाबले यह नया शासन प्रबंध मानवता के लिए बड़ी उपलब्धि माना गया था। 

पूंजीवादी शासन के भीतर लोगों की वोटों के साथ चुनी जाने वाली सरकारों की भी कई किस्में अस्तित्व में आईं और कई किस्म की नई लोकतांत्रिक परम्पराएं कायम हुईं। जैसे संसदीय प्रणाली, इंगलैंड में सम्राट/सम्राज्ञी की संवैधानिक पोजीशन को कायम रखते हुए 2 सदनों वाला संसदीय ढांचा, अमरीका की तरह राष्ट्रपति प्रणाली और स्विट्जरलैंड जैसी अनुपातक प्रतिनिधित्व वाली संसदीय प्रणाली इत्यादि। बेशक इस नई व्यवस्था के अंदर भी राजसत्ता लुटेरे वर्ग के हाथों में ही केंद्रित रही परन्तु फिर भी ‘लोगों की ओर से और लोगों का तथा लोगों के लिए’ प्रशासन का अस्तित्व में आना मानवीय इतिहास की बड़ी उपलब्धि मानी गई थी। 

24 अक्तूबर 1945 में यू.एन.ओ.  की स्थापना भी इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की देन है जहां से विश्व भर में विभिन्न देशों के मध्य उठे विवादों और झगड़ों के समाधान के प्रयत्न किए जाते हैं। नए युद्धों को टालने के लिए हथियारों और गोला-बारूद के भंडार के बारे में कुछ नियम तय किए गए तथा किसी भी युद्ध के अंदर मानवीय अधिकारों की रक्षा को सामने रखते हुए कुछ बंधन, जिम्मेदारियां तथा परम्पराएं तय की गईं जिसके तहत युद्ध के दौरान अस्पतालों, स्कूलों, बच्चों तथा आम आबादी पर हमले करने की पूरी मनाही के साथ-साथ रैडक्रॉस तथा यू.एन.ओ. के कर्मचारियों को पूर्ण सुरक्षा देने की घोषणा की गई। वैसे तो साम्राज्यीय और फासीवादी ताकतों की ओर से वैश्विक स्तर पर स्वीकृत उपरोक्त फैसलों को कभी भी  सत्कार नहीं दिया गया और इन्होंने सदा ही ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाला फार्मूला ही जारी रखा है। 

धनवान देशों की ओर से अपने निजी हितों को आगे बढ़ाना, लूट-खसूट तेज करने तथा विभिन्न तरीकों से गरीब तथा पिछड़े देशों के प्राकृतिक साधनों, मंडियों तथा मानवीय स्रोतों पर कब्जा जमाने के लिए पूर्व में भी मानवता के खात्मे के लिए युद्ध लड़े गए और मानव विरोधी व्यवहार आज भी निरंतर जारी है। यही नहीं इन हमलावरों ने नए आजाद हुए देशों को किसी न किसी ढंग से गुलामी में जकडऩे का कार्य भी निरंतर जारी रखा हुआ है। इन गुनाहों के लिए मुख्य रूप में अमरीका, यू.के., फ्रांस इत्यादि देश जिम्मेदार हैं जिनका प्रतिनिधित्व अमरीकी साम्राज्य कर रहा है। क्यूबा, वियतनाम, कोरिया,चिली, अफगानिस्तान, ईराक और अब फिलिस्तीन में इन जंगबाजों ने बेकसूर लोगों का जो सामूहिक कत्लेआम किया है वह हर इंसाफ पसंद इंसान को झकझोर कर रख देता है। ऐसे कुकर्म करते हुए न तो यू.एन.ओ. के किसी आदेश, परामर्श या निर्देशों को माना जाता है और न ही विश्व भर में प्रमाणित ऐसे किसी अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून की ही परवाह की जाती है जिसका युद्ध के दौरान पालन करना तय किया गया है। 

यही नहीं वैश्विक मंचों पर अपने दबदबे को आगे बढ़ाते हुए बिकाऊ मीडिया की मदद से इन खूंखार जंगबाजों की ओर से युद्ध अपराधों की जिम्मेदारी उल्टा पीड़ित देशों के सिर पर ही डाल कर झूठे इल्जामों के साथ उन्हें बदनाम करने के प्रयत्न किए गए हैं। यहां वर्णनीय है कि सी.आई.ए. और मौसाद जैसी बदनाम एजैंसियों ने अपने साम्राजीय आकाओं के आदेशों के तहत हमास, अलकायदा और आई.एस.आई.एस. जैसी आतंकी कार्रवाइयां करने वाले संगठनों की स्थापना की है। ऐसे संगठनों की मदद से रोजाना विश्व के विभिन्न हिस्सों में तख्तापलट की कोशिशें की जाती हैं।  यदि कोई देश इनसे बचने के लिए कोई कदम उठाता है तो उस पर बिना देरी किए आतंकवादी होने की मोहर लगाकर उसके विरुद्ध निम्र दर्जे की नफरती मुहिम छेड़ दी जाती है और तुरन्त ही सैन्य हमले किए जाते हैं। यदि कोई समाजवादी या प्रभुसत्ता सम्पन्न देश साम्राज्यीय ताकतों के विरोध में आवाज उठाता है या फिर अपने किसी एक-दो नागरिक को देश का कानून तोडऩे के कारण कोई सजा देता है तो साम्राज्यीय ताकतों का पालतू मीडिया मानवीय अधिकारों के हनन की दुहाई देने लग पड़ता है। 

यदि अमरीका वियतनाम के लोगों पर घातक हथियारों या फिर कैमिकल गैसों का प्रयोग कर उन्हें तड़पा-तड़पा कर मारता है या ईराक के प्रमुख सद्दाम हुसैन के पास घातक हथियारों के जखीरे होने का झूठा इल्जाम लगाकर ईराक पर धावा बोल देता है तो वह फिर भी अपने आपको मानवीय अधिकारों का सबसे बड़ा संरक्षक होने का दावा करता है। आज संकटग्रस्त पूंजीवादी ढांचा अपनी ओर से शुरू किए गए लोकतांत्रिक और मानवीय कदरो-कीमतों को आज खुद ही मिट्टी में मिला रहा है। शायद अब पूंजीवादी व्यवस्था अपनी उम्र के आखिरी दौर में दाखिल हो गई है। विश्व भर में विभिन्न देशों में रहते अलग-अलग धर्मों, राष्ट्रीयताओं, जातियों, रंगों, नस्लों, अनेक भाषाओं को बोलने वाले लोगों को आज बचाने का समय आ गया है।-मंगत राम पासला


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Related News