सबसे बढ़िया क्रिसमस उपहार

punjabkesari.in Friday, Dec 20, 2024 - 04:52 AM (IST)

3 सेवानिवृत्त पुलिस हैड कांस्टेबल मुझे पिछले शनिवार को पुलिस लाइन में आयोजित भगवान दत्ता की पूजा में भाग लेने के लिए आमंत्रित करने आए थे, जो उस इमारत के पीछे स्थित है, जिसमें मैं रहता हूं। कार्यक्रम स्थल पर पहुंचने पर मेरी मुलाकात कई अन्य सेवानिवृत्त और कुछ सेवारत पुलिसकर्मियों से हुई, जो वास्तव में मेरे आने से प्रसन्न थे। यह निश्चित रूप से सबसे बढिय़ा क्रिसमस उपहार था जिसकी मुझे उम्मीद थी। अपने करियर के किसी चरण में जिन लोगों का नेतृत्व करने का सम्मान आपको मिला, उनके द्वारा याद किए जाने और प्यार किए जाने से बड़ा कोई ईनाम नहीं है।

पुलिस कैंप में उस विशेष मंदिर का उद्घाटन मैंने 1982 में किया था, जब मैं शहर का पुलिस आयुक्त था। यह तथ्य मेरी याददाश्त से दूर हो गया था। इस आयोजन को रिकॉर्ड करने वाली एक पट्टिका मंदिर की दीवार पर चिपका दी गई थी। पुरुषों ने उस पट्टिका के सामने तस्वीरें खिंचवाने पर जोर दिया, जिस पर मेरा नाम लिखा था। इस साल मेरा 96वां क्रिसमस सैलीब्रेशन होगा। 1929 में जब मेरा जन्म हुआ, तब मेरे पिता बड़ौदा में डाक अधीक्षक थे। 1930 में उन्हें रेलवे मेल सेवा के अधीक्षक के रूप में पूना स्थानांतरित कर दिया गया। कई साल बाद 1964 में मुझे पुणे शहर का पुलिस अधीक्षक नियुक्त किया गया। भगवा वस्त्र पहने एक हिंदू पुजारी मेरे कार्यालय में आए और खुद को ‘कोई ऐसा व्यक्ति बताया जो मुझे तब से जानता था जब मैं 2 साल का था’। उन्होंने कहा कि उनके पिता डाक अधीक्षक कार्यालय में मेरे पिता के हैड क्लर्क थे। उन्होंने अपना परिचय उस नाम से दिया जो उन्होंने धार्मिक अनुशासन के प्रति अपनी पवित्रता और प्रतिबद्धता की शपथ लेने के बाद अपनाया था।

30 साल बाद मुंबई से राजगुरुनगर कार से जाते समय मैं लोनावला में रुका। रास्ते में एक रेस्तरां में मेरे पहुंचने की खबर सुनकर उसी संत द्वारा संचालित आश्रम में काम करने वाले 2 या 3 लोग उस टेबल पर आए जहां मैं और मेरी पत्नी बैठे थे और उन्होंने हमारा अभिवादन किया। उन्होंने मुझे बताया कि बाबा ने समाधि ले ली है। चूंकि बाबा ने एक से अधिक बार उनसे मेरा जिक्र किया था, इसलिए वे मुझसे व्यक्तिगत रूप से मिलकर बहुत खुश हुए। वह मुलाकात मेरी यादों में अभी भी अंकित है, जैसे बाबा का पुणे में मेरे कार्यालय में आना। उनमें से एक मुलाकात में उन्होंने ‘समाधि’ लेने की बात कही थी और मुझे याद है कि मैंने उन्हें ऐसा करने से रोकने की कोशिश की थी। मुझे इस बात का अफसोस है कि इतने सालों बाद भी मैं उनका नाम याद नहीं रख सका। हालांकि मुझे दो क्रिसमस याद हैं, एक 1956 में और दूसरी 1989 में। 1956 में मैं नासिक डिवीजन का सहायक पुलिस अधीक्षक था। देवलाली मेरे अधिकार क्षेत्र में था। आर्टिलरी रैजीमैंटल सैंटर देवलाली में स्थित था। वल्लाडारेस नाम के एक युवा ईसाई अधिकारी ने नासिक से मुंबई तक मेरी कार में लिफ्ट ली। हम दोनों एक हफ्ते की छुट्टी पर थे और चूंकि हमारे माता-पिता मुंबई से थे, इसलिए हमने क्रिसमस के लिए यात्रा की योजना बनाई।

वह युवा सेना अधिकारी बांद्रा से था। मैंने उसे उसके घर छोडऩे का फैसला किया। मैंने कभी किसी जगह को इतनी चमकीली रोशनी और सजावट से भरा हुआ नहीं देखा था, जैसा कि मैंने 1956 में उस यादगार क्रिसमस की पूर्व संध्या पर देखा था। पिछली सदी के 50 के दशक में बांद्रा लगभग पूरी तरह से ईसाइयों का इलाका था। आज यह आंशिक रूप से ही है, लेकिन बांद्रा के ईसाई अभी भी चमकदार रोशनी लाना जारी रखते हैं। 1989 में मैं पूर्वी यूरोप में रोमानिया की राजधानी बुखारेस्ट में तैनात था। यह एकमात्र ऐसा साल था जब मैं क्रिसमस के दिन चर्च में होने वाली प्रार्थना सभा में शामिल नहीं हो पाया था। रोमानियाई तानाशाह निकोले कॉसेस्कु को अभी-अभी पदच्युत किया गया था। उन्हें और उनकी पत्नी एलेना को क्रिसमस के दिन एक अस्थायी मुकद्दमे के बाद फायरिंग दस्ते द्वारा मार दिया गया था। 

इस साल मैं मुंबई में क्रिसमस पारंपरिक तरीके से मनाऊंगा। हर साल क्रिसमस के आसपास, मेरी दोस्त लीना गांधी तिवारी, वकोला झुग्गियों के बच्चों के लिए एक वार्षिक दिवस मनाती हैं, जिन्हें उन्होंने सचमुच गोद लिया है। शुरूआत में उन्होंने केवल लड़कियों के साथ शुरूआत की, लेकिन हाल ही में वह अपने केंद्र में लड़कों को भी भर्ती कर रही हैं, जिसका नाम उन्होंने अपनी दादी के नाम पर रखा है। इस साल 2 लड़कियों ने एम.बी.ए. (वित्त) की परीक्षा पास की, 3 लड़कियों ने बी.एम.एस. मार्कीटिंग और दो ने अकाऊंटिंग और वित्त में बी.ए.एफ. की परीक्षा पास की। उन्हें नौकरी के बाजार में प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम बनाने के लिए उनके कौशल का विकास किया जा रहा है।

देश को और भी कई लीनाओं की जरूरत है, जो अपने से कम भाग्यशाली लोगों के लिए अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा देने को तैयार हों। मेरी दोनों बेटियां जो अब 60 के दशक में हैं, दिल्ली स्थित उदयन शालिनी फाऊंडेशन नामक एक गैर-सरकारी संगठन द्वारा उनकी देखभाल के लिए सौंपी गई लड़कियों को प्रशिक्षित करती हैं, जिसने मुंबई में एक शाखा खोली है। मैं जिन 2  मुस्लिम महिलाओं मुमताज और शमीम को जानता हूं, वे अपने दिवंगत पिता द्वारा स्थापित बोटावाला ट्रस्ट चलाती हैं। ट्रस्ट ने 50 छोटी मुस्लिम लड़कियों को आश्रय दिया है जो कम उम्र में अनाथ हो गई थीं। वे अपनी संपत्ति पर बनी इमारत में लड़कियों को रखते हैं, उन्हें खाना खिलाते हैं और आम तौर पर उनकी भावनात्मक जरूरतों का ख्याल रखते हैं।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)


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