बिना बोले ‘हां’ या ‘न’ कहने की कला

Sunday, Apr 15, 2018 - 04:02 AM (IST)

YES तीन अक्षरों का एक सरल-सा शब्द है जोकि अक्सर प्रयुक्त किया जाता है लेकिन ऐसे समय भी आते हैं जब यह शाब्दिक अर्थों में गले में अटक कर रह जाता है। विडम्बना यह है कि ऐसा अक्सर तब होता है जब हम में से अधिकतर लोग ‘हां’ बोलना चाहते हैं। फिर भी कई बार उनके मुंह से ‘हां’ की बजाय ‘न’ ही निकल जाता है। 

जरा कल्पना कीजिए कि छोटे बच्चों को कितनी ही बार यह पूछा गया होगा कि वे विपरीत लिंग के किसी सदस्य को पसंद करते हैं और वे ‘हां’ नहीं कह पाते? इस प्रकार के शर्मीलेपन के कारण हो सकता है कि खेल उनके हाथों से निकल जाए लेकिन उनके होंठ ‘हां’ नहीं बोल पाते। या फिर उन वयस्कों की कल्पना कीजिए जो गुस्से से तमतमा रहे होते हैं और यदि उन्हें पूछा जाए कि क्या वे व्यथित और दुखी हैं तो वे ‘हां’ नहीं कह पाते। बच्चे अक्सर अधिक शर्मीलेपन के कारण यह शब्द नहीं बोल पाते लेकिन वयस्क अक्सर अपने अहंकार के कारण इस शब्द का उच्चारण नहीं करते। 

जिस प्रकार हम ‘तकल्लुफ’ के प्रति अति संवेदनशील रहते हैं उससे हमारी संस्कृति में विशेष तौर पर कई समस्याएं पैदा हो गई हैं। अक्सर ऐसा होता है कि आप ‘हां’ या ‘yes’ कहने को तो आतुर होते हैं लेकिन आपको पता ही नहीं चलता कि आपके मुंह से ‘न’ निकल जाता है। बहुत से मौकों पर मुझे यह पूछा गया कि क्या मैं खाने में कुछ और लेना चाहूंगा। हालांकि वास्तव में मेरी लालसा कुछ और खाने की होती है लेकिन एक मूर्खता भरे संकोच अथवा दिग्भ्रमित शालीनता के कारण मैं ‘yes’ नहीं बोल पाता। भारत में तो हमारी जान इसलिए बच जाती है कि हमारे यहां सामान्यतया दो या तीन बार अनुरोध किया जाता है लेकिन ब्रिटेन या अमरीका में जहां आपको केवल एक बार ही पूछा जाता है वहां आप निश्चय ही भूखे रह जाते हैं। 

गत रविवार मुझे यह पता चला कि वास्तव में इसका उच्चारण किए बिना ‘yes’ कहने के बहुत ही कलात्मक तरीके मौजूद हैं। हार्वर्ड क्लब आफ इंडिया के लिए सुप्रीम कोर्ट के दूसरे वरिष्ठतम जज न्यायमूर्ति चेलामेश्वर की एक घंटा लम्बी इंटरव्यू के दौरान बिल्कुल ऐसा ही हुआ। हम न्यायपालिका से जुड़ी कई समस्याओं और विवादों तथा सरकार के साथ इसके रिश्तों पर बातचीत कर रहे थे। जजों के लिए ऐसे विषयों पर सार्वजनिक चर्चा करना कुछ अटपटा-सा होता है। वास्तव में बहुत से लोगों का तो यही मानना है कि उन्हें सार्वजनिक रूप में ऐसी बातें करनी ही नहीं चाहिएं। लेकिन जस्टिस चेलामेश्वर ऐसा करने पर राजी हो गए और इसलिए उनके सामने यह समस्या पैदा हो गई कि पारदर्शिता और वाणी पर संकोच के बीच संतुलन कैसे बनाकर रखा जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो जिस बात को बहुत से लोग सत्य मानते हों उसे छिपाते हुए भी सच्चाई कैसे उगलनी है। 

जस्टिस चेलामेश्वर ने कुछ अत्यंत चालाकी भरे दो दाव-पेंच अपनाकर यह समस्या हल की। पहला दाव था पूरे चेहरे पर फैली हुई मुस्कुराहट, जिससे उनकी आंखें भी जगमगा उठती थीं और बिना कोई शब्द बोले संकेत स्पष्ट हो जाता था। बीच-बीच में जब वह लम्बी चुप्पी साध लेते तो उनका नुक्ता हर किसी की समझ में आ जाता। अधिकतर श्रोता समझ जाते थे कि जस्टिस चेलामेश्वर के मन में क्या है हालांकि उन्होंने मुंह से कुछ भी नहीं बोला होता था। दूसरा दाव बिल्कुल नई किस्म का था। ‘yes’ कहने की बजाय जस्टिस चेलामेश्वर बस थोड़ा-सा गुनगुनाते। अधिकतर मौकों पर यह नाक से निकलने वाली गुनगुनाहट अनिश्चितता या गहरे चिंतन का आभास देती है लेकिन जब जस्टिस चेलामेश्वर यह दाव-पेंच प्रयुक्त करते थे तो यह ‘yes’ का ही पर्याय होता था। 

सच्चाई यह है कि खुद को दोषी करार दिए जाने से बचते हुए मुंह से बिना कोई शब्द बोले ‘yes’ (हां) कहने की कला कोई आसान काम नहीं। इस कला की सबसे अधिक जरूरत राजनीतिज्ञों को होती है लेकिन वे अक्सर इसमें सबसे कम पारंगत होते हैं। आप जरा उनकी इंटरव्यू देखें तो आपको स्पष्ट पता चल जाएगा कि वे किस प्रकार मुंह से बोले बिना ‘हां’ कहने के लिए परेशान होते हैं। आम तौर पर उनकी जुबान फिसल ही जाती है और अक्सर वे खुद को परेशानी में डाल लेेते हैं। इसके विपरीत जस्टिस चेलामेश्वर न केवल इस प्रकार के शाब्दिक जाल को हैंडल करने में दक्ष थे बल्कि बहुत गौरवशाली ढंग से इस इंटरव्यू में से विजयी होकर निकले। खेद की बात है कि मुझमें उन जैसा आत्म संयम नहीं। मैं सामान्यतया उत्तर देने में बहुत फुर्ती दिखाता हूं, हालांकि बाद में मुझे इस बात का अफसोस ही होता है। जब आप सचेत रूप में खुद पर संयम बनाए रखते हैं केवल तभी आपको मुस्कुराने या ‘हूं-हां’ की शैली में गुनगुनाने का मौका मिलता है।-करण थापर

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